हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

कुण्डलिया दिवस  (काव्य)

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Author: भारत-दर्शन

त्रिलोक सिंह ठकुरेला साहित्य जगत का परिचित नाम है। उन्होंने लुप्तप्रायः कुण्डलिया छंद के लिए विशेष उद्यम किया है। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ साहित्यकार 19 नवंबर को कुण्डलिया दिवस का आयोजन कर रहे हैं। 

ठकुरेला जी ने बताया, "19 नवंबर को कुछ ई-पत्रिकाओं के कुण्डलिया दिवस परिशिष्ट प्रकाशित होंगे। कुण्डलियाकार हैशटैग (# कुण्डलिया_दिवस) के साथ फेसबुक पर अपनी कुण्डलियाँ पोस्ट करेंगे। इस सम्बन्ध में कुण्डलिया गोष्ठी, कुण्डलिया परिचर्चा आदि आयोजित किये जा सकते हैं।" 

इसके विधान के बारे में राम औतार 'पंकज' लिखते हैं--

"कुण्डलिया साहित्य में, छन्दों का सिरताज। 
निश्चित मात्रा पंक्ति में, सर्जन इसका राज॥ 
सर्जन इसका राज, भाव उठते जो दिल में। 
पहला दोहा छन्द, तैल संचित ज्यों तिल में॥ 
'पंकज रोला बन्द, कथ्य की खोले पुड़िया। 
प्रथम शब्द से अन्त, छन्द उत्तम कुण्डलिया॥" 

कुंडलिया दोहा और रोला के संयोग से बना छंद है। इस छंद के 6 चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि कुंडलिया के पहले दो चरण दोहा तथा शेष चार चरण रोला से बने होते है यानी 13-11, 13-11, 11-13, 11-13, 11-13, 11-13 का क्रम होता है। इस छंद में प्रथम और अंतिम शब्द या शब्द समूह समान हों तो उन्हें उत्तम माना जाता है।

गिरिधर कविराय का नाम कुंडलिया छंद के लिए बहुत प्रसिद्ध है। संत गंगादास, बाबा दीनदयाल गिरि, राय देवीप्रसाद पूर्ण, कवि ध्रुवदास जैसे अनेक रचनाकारों का नाम कुंडलिया छंद के साथ जुड़ा हुआ है। कुण्डलिया दिवस के संदर्भ में भारत-दर्शन कुछ चयनित कुण्डलिया प्रकाशित कर रहा है। 

गिरिधर कविराय की कुण्डलिया

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय। 
जैसे कागा- कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥ 
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन। 
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अलावा॥ 
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के। 
बिन गुण लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के॥ 
[गिरिधर कविराय]

साईं बैर न कीजिये, गुरु, पंडित, कवि, यार। 
बेटा, बनता, पँवरिया, यज्ञ-करावनहार॥ 
यज्ञ- करावनहार, राज मंत्री जो होई। 
विप्र, पड़ौसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई॥ 
कह गिरिधर कविराय, जुगनते यह चलि आई। 
इन तेरह सौं तरह, दिये बनि आवै साईं॥ 
[गिरिधर कविराय]

बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय। 
काम बिहारी आपनो, जग में होत हॅंसाय॥ 
जग में होत हॅंसाय, चित्त में चैन न आवै। 
खान-पान सनमान, राग रँग मनहि न भावै॥ 
कह गिरिधर कविराय, दु:ख कछु करते न टारे। 
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना विचारे॥
[गिरिधर कविराय]

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ। 
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥  
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै। 
दुर्जन हॅंसे न कोय, चित्त में खता न पावै॥
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन परतीती। 
आगे की सुधि लेइ, समझ बीती सो बीती॥ 
[गिरिधर कविराय]

लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। 
गहिरि नदी, नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥ 
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता को मारै। 
दुश्मन दावागीर, होय तिनहूं  को झारै॥ 
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो धर के पानी। 
सब हथियारन छोड़ि, हाथ में लीजै लाठी॥
[गिरिधर कविराय]

दीनदयाल गिरि की कुण्डलिया

सोई देस विचार कै, चलिये पथी सुवेत। 
जाके जस आनन्द की, कविवर उपमा देत॥ 
कविवर उपमा देत, रङ्क भूपति सम जामें। 
आवागवन न होय, रहै मुद मङ्गल तामें॥
बरनै दीनदयाल, जहां दुख सोक न होई। 
ए हो पथी प्रबीन, देस को जैयो सोई॥
[दीनदयाल गिरि]

आछी भाति सुधारि कै, खेत किसान बिजोय। 
नत पीछे पछतायगो, समै गयो जब खोय॥
समै गयो जब खोय, नहीं फिर खेती ह्वैहै। 
लैहै हाकिम पोत, कहा तब ताको दैहै॥
बरनै दीनदयाल, चाल तजि तू अब पाछी। 
सोउ न सालि सभालि, बिहंगन तें विधि आछी॥
[दीनदयाल गिरि]

 

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ की कुण्डलिया

देशी प्यारे भाइयो। हे भारत-संतान!
अपनी माता-भूमि का, है कुछ तुमको ध्यान?
है कुछ तुमको ध्यान! दशा है उसकी कैसी?
शोभा देती नहीं, किसी को निद्रा ऐसी॥ 
वाजिब है हे मित्र! तुम्हें भी दूरंदेशी। 
सुन लो चारों ओर, मचा है शोर ‘स्वदेशी’॥  
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

थाली हो जो सामने, भोजन से संपन्न। 
बिना हिलाए हाथ के, जाय न मुख में अन्न॥ 
जाय न मुख में अन्न, बिना पुरुषार्थ न कुछ हो। 
बिना तजे कुछ स्वार्थ, सिद्ध परमार्थ न कुछ हो॥ 
बरसो, गरजो नहीं, धीर की यही प्रणाली। 
करो देश का कार्य, छोड़कर परसी थाली॥  
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

दायक सब आनंद का, सदा सहायक बन्धु। 
धन भारत का क्या हुआ, हे करुणा के सिंध॥
हे करुणा के सिंधु, पुनः सो संपति दीजै। 
देकर निधि सुखमूल, सुखी भारत को कीजै॥ 
भरिए भारत भवन, भूरिधन त्रिभुवन-नायक!
सकल अमंगलहरण, शरणवर मंगलदायक॥
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

धन के होते सब मिले, बल विद्या भरपूर।
धन से होते हैं सकल, जग के संकट चूर॥ 
जग के संकट चूर, यथा कोल्हू में घानी। 
धन है जन का प्राण, वृक्ष को जैसे पानी॥ 
हे त्रिभुवन के धनी, परमधन निर्धन जन के। 
है भारत अति दीन, लीन दुख में बिन धन के॥ 
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

 

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलिया

रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध॥
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते॥
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़॥
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक-बाती॥
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप।
जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप॥
जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता।
मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।
बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान॥
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज॥
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में॥
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी, मीत।
कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत॥
मधु, मेवा, नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायें।
अवसर हो उपयुक्त, साथियो, हँसें, हँसायें॥
‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना।
रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

 

लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की कुण्डलिया

अपराधी बेखौफ हैं, जनता है बेहाल। 
न्याय निर्भया को मिले, आठ लगाए साल॥ 
आठ लगाए साल, रोज़ नुचती है बेटी। 
मुँह पर ओढ़े मास्क, मौन मानवता बैठी॥ 
लुटी सभ्यता रोज, स्वर्ग से देखें गांधी। 
करें लुटेरे मौज, खुले घूमें अपराधी॥  
[लक्ष्मीशंकर वाजपेयी] 

बीती जाए ज़िंदगी, जीना रही सिखाय। 
सारे दुख को भूल के, तनिक दियो मुस्का॥ 
तनिक दियो मुस्काय, मधुर सब बोलो बानी।  
खुशबू दो बिखराय, गढ़ो इक नई कहानी॥  
दुख में भी जो हँसे, तो जानो जंग जीती। 
जी लो पल पल आज, उमरिया जाये बीती॥ 
[लक्ष्मीशंकर वाजपेयी] 

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