अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल

एक गज़ दूध (बाल-साहित्य )

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रचनाकार: भारत-दर्शन संकल

एक दिन शेख़चिल्ली ने अपनी अम्मी से कहा, ‘अम्मी! तुम या अब्बू मुझसे कोई काम नहीं करवाते। सभी बच्चों के अम्मी-अब्बू उनसे कोई-न-कोई काम करवाते हैं। क्या मैं इतना नकारा हूँ कि आप मुझे किसी काम के क़ाबिल नहीं समझते?’

शेख़चिल्ली की बात सुन शेख़चिल्ली की माँ चौंक पड़ीं। अरे! यह बच्चा, अभी से क्या काम करेगा? उन्होंने शेख़चिल्ली को प्यार से सहलाते हुए कहा, ‘ठीक है, मेरे राजा बेटे! अब मैं तुमसे भी कोई-न-कोई काम कराती रहूंगी।’

माँ का दुलार पाकर शेख़चिल्ली ख़ुश हो गया और मदरसे से मिला सबक़ पूरा करने में लग गया।

दूसरे दिन सुबह जब वह मदरसा जाने के लिए निकला तो देखा, अम्मी दरवाजे़ पर फेरीवाले से कपड़े ख़रीद रही थीं। उसे पास से गुज़रता देखकर अम्मी ने उसे आवाज़ दी, ‘जरा इधर तो आना शेख़ू!’ शेख़चिल्ली का भी मन था कि वह फेरीवाले के पास जाकर नए-नए कपड़े देखे। अम्मी की पुकार सुनकर वह ख़ुश हो गया और दौड़कर अम्मी के पास पहुंच गया। अम्मी ने उससे कहा, ‘बेटे, देख तो इनमें से कौन-सा कपड़ा तुम्हें अच्छा लग रहा है?’

शेख़चिल्ली ने एक बार रशीदा बेगम की तरफ़ ख़ुश होकर देखा और फिर उसकी निगाहें फेरीवाले के कपड़ों पर दौड़ने लगीं और अंतत: उसने लाल-लाल छापोंवाले कपड़े के थान पर अपनी अंगुली रख दी, ‘अम्मी, यह!’ शेख़चिल्ली की माँ को भी लाल बूटों वाला वह कपड़ा पसंद आ गया और उसने फेरीवाले से कहा, ‘भैया, इसमें से एक गज़ निकाल दो।’

फेरीवाले ने अपने पास से एक फीता निकाला और कपड़े के किनारे पर उसे फैलाकर माप लिया और कैंची से कपड़ा काटकर उन्हें थमा दिया।

शेख़चिल्ली के लिए माप का यह शब्द ‘गज़’ नया था और बांहें फैलाकर कपड़ा मापने का तरीक़ा भी उसके लिए नया और दिलचस्प था। ‘गज़’ और हाथ फैलाकर माप लेना--ये दो बातें शेख़चिल्ली के दिमाग़ में बैठ गईं। शाम को शेख़चिल्ली मदरसे से वापस आया। बस्ता रखकर हाथ-मुंह धोया। तभी उसकी माँ ने उसे दुअन्नी थमाते हुए कहा, ‘बेटा, दौड़कर जाओ और पास वाले हलवाई से दो आने का दूध लेकर आओ!’

शेख़चिल्ली ने मुट्‌ठी में दुअन्नी दबाई और दूध लेने के लिए एक बर्तन चौके से लेकर दौड़कर हलवाई की दुकान पर पहुंच गया। गांव के कई लोग उस हलवाई के पास खड़े थे। हलवाई अपने दोनों हाथ में एक-एक मग पकड़े था और एक हाथ ऊपर करते हुए उससे गरम दूध की धार गिराता और दूसरे हाथ को नीचे कर उस दूध की धार को मग में भर लेता। फिर भरे मगवाला हाथ ऊपर करता और ख़ाली मगवाला हाथ नीचे। यह क्रिया वह बार-बार यंत्रवत् दोहराता जा रहा था।

शेख़चिल्ली के लिए यह दृश्य भी नया था। दूध ठंडा करने का यह तरीक़ा उसके लिए नया था। वह समझने की कोशिश कर रहा था कि आख़िर यह हलवाई क्या कर रहा है! फिर उसे सुबह की घटना याद हो आई। कपड़ावाला भी तो इसी तरह कपड़े की लम्बाई माप रहा था। उसने सोचा--यह दूधवाला ज़रूर दूध की लम्बाई माप रहा है। ऐसा सोचकर वह गर्वित हुआ कि सही वक़्त पर उसके दिमाग़ ने साथ दिया और वह यह समझने के क़ाबिल हुआ कि दूधवाला क्या कर रहा है।

शेख़चिल्ली को अपने पास देर से टकटकी लगाए खड़ा देखकर हलवाई ने पहले सोचा कि यह किसी ग्राहक के साथ आया होगा, लेकिन जब पहले से खड़े ग्राहक दूध लेकर लौट गए, तब भी शेख़चिल्ली को वहीं खड़ा देख हलवाई ने पूछा, ‘ऐ लड़के! तुम्हें क्या चाहिए?’

शेख़चिल्ली की तंद्रा टूटी और उसने कहा, ‘दूध!’

‘कितना दूध चाहिए?’ हलवाई ने शेख़चिल्ली से पूछा।

अम्मी ने तो बताया नहीं था कि कितना दूध लेना है? फिर भी अक़्ल पर ज़ोर डालते हुए उसने कहा, ‘एक गज़ दूध दे दो!’

हलवाई और उसकी दुकान पर खड़े लोगों ने जब शेख़चिल्ली की बात सुनी तो ठहाका मारकर हँस पड़े। शेख़चिल्ली समझ नहीं पा रहा था कि लोग हँस क्यों रहे हैं।

हलवाई समझ गया था कि शेख़चिल्ली दूध की माप नहीं जानता, इसलिए उसने शेख़चिल्ली से पूछा, ‘क्यों बेटे, पैसे लाए हो?’

‘हाँ!’ शेख़चिल्ली ने कहा और दुअन्नी हलवाई को थमा दी।

हलवाई ने उसके कटोरे में दो आने का दूध डाल दिया।

जब शेख़चिल्ली दूध लेकर घर की ओर चलने लगा, तभी एक ग्राहक ने दुकानदार से ज़ोर से कहा, ‘देना भैया, मुझे भी एक गज़ दूध!’ और फिर वे ठहाके लगाकर हँसने लगे।

[भारत-दर्शन संकलन]

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