जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

इस जग में (काव्य)

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Author: शम्भुनाथ शेष

इस जग में भेजा था तूने 
तो जग का जीवन भी देता! 
जैसा मुझको हृदय दिया था, 
कुछ वैसे साधन भी देता!

राई-सी है दुनिया तेरी, 
पर्वत से हैं सपने मेरे; 
मेरी प्रतिभा के हारिल को 
सीमाहीन गगन भी देता!

सागर के प्यासे की भी क्या, 
ओस-कणों से प्यास बुझी है?
प्रेम-प्यास मुझको दी थी, 
तो प्रेम सहित मधुकण भी देता!

तीनों लोक लीक से लगते, 
मेरी आकांक्षा के आगे; 
कलित-कामना की क्रीडा को 
विस्तृत-सा प्रांगण भी देता!

प्रस्तर की प्रतिमा में कब तक 
प्राण-प्रतिष्ठा होगी तेरी?
कण-कण में जो तुझे देखते, 
ऐसे दिव्य-नयन भी देता !

नयनों में आश्चर्य भरा है, 
देख किसी की अद्भुत झांकी, 
जग होता प्रतिबिम्बित जिसमें, 
वह विचार-दर्पण भी देता!

सुनता हूँ तेरा निवास है 
मेरे सत् सौन्दर्य लोक में, 
अकुलाता यों ज्ञान भला क्यों 
प्रिय, जो तू दर्शन भी देता!

-शम्भुनाथ शेष 
(2 जून 1915 - 23 मई 1958)

हारिल = एक प्रकार की चिड़िया जो प्रायः अपने चंगुल में कोई लकड़ी या तिनका लिए रहती है। 
प्रस्तर की प्रतिमा = वह मूर्ति जो पत्थर से निर्मित हो। 

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