मैं नहीं समझता, सात समुन्दर पार की अंग्रेजी का इतना अधिकार यहाँ कैसे हो गया। - महात्मा गांधी।

पुस्तक समीक्षा : ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने पारसी रंगमंच पर रचा था इतिहास (विविध)

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Author: रणजीत पांचाले

वीर अभिमन्यु

पुस्तक समीक्षा
‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने पारसी रंगमंच पर रचा था इतिहास
रणजीत पांचाले

उन्नीसवीं सदी में पारसी थिएटर के प्रति लोगों में ज़बरदस्त आकर्षण था। मंच पर लगे पर्दों पर बनी सीनरियाँ,  कलाकारों के बेहतरीन अभिनय, गीत-संगीत और संवाद दर्शकों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते थे। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में मूक सिनेमा के रूप में लोगों को मनोरंजन का एक और साधन मिल गया। जादुई असर वाले इस सिनेमा के बावजूद लोगों में पारसी थिएटर के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि थिएटर में ‘आवाज़’ थी जबकि सिनेमा ‘मूक’ था। पारसी थिएटर में जहाँ एक ओर प्रेम कहानियों पर आधारित नाटक प्रस्तुत किए जाते थे तो दूसरी ओर ऐतिहासिक-धार्मिक-सामाजिक नाटक भी प्रस्तुत करके समाज को शिक्षित किया जाता था। परतंत्रता के उस दौर में दर्शकों का धार्मिक-सामाजिक नाटकों की ओर काफ़ी रुझान था। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में जबकि भारत में आग़ा हश्र काश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब’ सरीखे नाटककारों के नाटकों की धूम मची हुई थी, उसी समय पारसी थिएटर में एक युवा नाटककार का प्रवेश हुआ जिसका नाम था- पंडित राधेश्याम कथावाचक। 

पारसी थिएटर में फ़ारसी लदी उर्दू भाषा का प्रयोग किया जाता था। विशेष रूप से नाटककार आग़ा हश्र काश्मीरी की यही भाषा थी। नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने यथासंभव फ़ारसीमुक्त सरल हिन्दुस्तानी भाषा को अपनाया जिसमें उर्दू शब्द तो अच्छी ख़ासी संख्या में थे ही, लेकिन हिंदी शब्द भी बहुतायत में होने के कारण पारसी थिएटर की भाषा में बदलाव आना शुरू हो गया था। मुख्यतः बेताब के नाटक ‘महाभारत’ से पारसी थिएटर की नाट्य भाषा में विशेष परिवर्तन आया। जब ‘महाभारत’ नाटक पहली बार 29 जनवरी 1913 को दिल्ली के संगम टाकीज़ में खेला गया तो दर्शकों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। अगले तीन-चार दिनों में शहर में नाटक की धूम मच गई। नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने अपनी आत्मकथा ‘बेताब चरित’ में लिखा है कि हिंदू समाज के महानुभावों ने इस नाटक को नवीन ही नहीं, बल्कि ‘नवयुग प्रवर्तक, क्रांतिकारक, हिंदू इतिहास प्रदर्शक, पवित्रतापूर्वक मनोरंजक’ इत्यादि अनेक उपाधियाॅं दीं। जिस काल में उर्दू नाटकों का राज था और पारसी थिएटर कम्पनियाॅं अपने व्यावसायिक दृष्टिकोण के कारण हिंदी भाषा से डरती थीं, उस काल में बेताब द्वारा उर्दू को महत्त्व देते हुए इस नाटक में हिंदी का प्रवेश कराना बहुत बड़ी बात थी। इस नाटक में बेताब का लिखा निम्नलिखित धार्मिक गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया था:

    अजब हैरान हूँ भगवन तुम्हें क्योंकर रिझाऊॅं मैं?
     कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे सेवा में लाऊॅं मैं॥
     करूँ किस तर्ह आवाहन, कि तुम मौजूद हो हरजा। 
     निरादर है बुलाने को अगर घंटी बजाऊॅं मैं॥
     तुम्हीं हो मूर्ति में भी तुम ही व्यापक हो फूलों में।
     भला भगवान को भगवान पर क्योंकर चढ़ाऊॅं मैं॥
     लगाना भोग कुछ तुमको यह इक अपमान करना है।
     खिलाता है जो सब संसार को, उसको खिलाऊॅं मैं?
     तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं सूरज चन्द्र और तारे।
     महान अन्धेर है तुमको अगर दीपक दिखाऊॅं मैं॥

पौराणिक नाटक होते हुए भी बेताब के ‘महाभारत’ नाटक में उर्दू शब्दों की भी भरमार थी। नाटक के एक दृश्य में जब रुक्मिणी और सत्यभामा बातचीत कर रही हैं, तभी वहाॅं द्रौपदी आती हैं। सत्यभामा उनका स्वागत करते हुए कहती हैं : 

     मरीज़े नातवाँ तक चारागर वे इल्तमास आया। 
     ज़हे-क़िस्मत कुआँस प्यासे के पास आया॥

 ‘महाभारत’ नाटक के प्रथम मंचन के मात्र तीन वर्ष बाद दिल्ली के उसी संगम टाकीज़ में 1916 में पं. राधेश्याम कथावाचक के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ का मंचन हुआ जिसने एक नया इतिहास रच दिया। इस नाटक ने पारसी थिएटर में हिंदी को प्रतिष्ठित कर दिया। नाटक में परिष्कृत हिंदी का प्रयोग किया गया था। कहीं-कहीं तो हिंदी संस्कृतनिष्ठ भी थी। उर्दू शब्दों का प्रयोग न्यूनतम था। पारसी थिएटर कम्पनी ‘न्यू अल्फ्रेड’ के डायरेक्टर सोराबजी ने जब नाटक मंचन के लिए तैयार करा दिया तो इसकी ‘ग्राण्ड रिहर्सल’ देखकर कम्पनी के मालिक माणिकजी जीवनजी उदास हो गए। उन्होंने नाटक को ‘टोटली फ़ेल’ बताते हुए कहा कि इस पर पैसा बर्बाद किया गया है। उन्होंने डायरेक्टर सोराबजी से कहा कि इतनी ज़्यादा हिंदी का नाटक पब्लिक नहीं समझ पाएगी। ‘वीर अभिमन्यु’ को लेकर अपने अति उत्साह के बावजूद डायरेक्टर सोराबजी भी इसमें अत्यधिक हिंदी के कारण आशंकित थे कि कहीं नाटक दर्शकों द्वारा नकार न दिया जाए। जनता के सामने नाटक की प्रस्तुति से एक दिन पहले सोराबजी ने पं. राधेश्याम से कहा--“अधिक हिंदी स्टेज पर पहुॅंचाकर हम परीक्षण कर रहे हैं, कर तो अच्छा ही रहे हैं-अब भगवान् जाने।”

‘वीर अभिमन्यु’ नाटक में कैसी हिंदी का प्रयोग किया गया था, यह निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है :
अर्जुन की अनुपस्थिति में द्रोणाचार्य द्वारा युद्ध-क्षेत्र में चक्रव्यूह के निर्माण पर जब युधिष्ठिर चिंतित होकर कहते हैं कि इस चक्रव्यूह को अब कौन तोड़ेगा? तो अभिमन्यु स्वयं को प्रस्तुत करते हुए कहता है : 

     कायर कभी न होगा, जो क्षत्री का वंश है।
     अर्जुन अगर नहीं है, तो अर्जुन का अंश है॥

रणभूमि में प्रस्थान से पूर्व जब अभिमन्यु अपनी पत्नी उत्तरा से मिलने जाता है और वह अमंगल की आशंका व्यक्त करती है, तो अभिमन्यु उससे कहता
है : 

     प्रिय उत्तरे, प्रियतमे, प्राणवल्लभे प्रान।
     समर-क्षेत्र ही सर्वदा, क्षत्रिए का सुस्थान॥

आख़िरकार 4 फरवरी 1916 को जब संगम टाकीज़ में ‘वीर अभिमन्यु’ का मंचन हुआ, तो इसकी असाधारण सफलता ने सोराबजी और पं. राधेश्याम कथावाचक को भी आश्चर्यचकित कर दिया। अपनी आत्मकथा ‘मेरा नाटक काल’ में पं. राधेश्याम ने लिखा है कि दर्शकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया देखकर सोराबजी सेठ की ऑंखों से अश्रुधारा बह निकली थी। अगले दिन देहली में नाटक की इतनी चर्चा हुई कि शहर के क़रीब-क़रीब सभी ‘रईस’ उसी दिन इस नाटक को देख लेना चाहते थे, पर बुकिंग बंद हो चुकी थी। इसलिए अगले हफ़्ते के रिज़र्वेशन शुरू कर दिए गए। आगे चलकर हिंदी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं ‘सरस्वती’, ‘भारत मित्र’, ‘आज’, ‘प्रताप’ आदि ने इस नाटक की बहुत प्रशंसा की। 

‘वीर अभिमन्यु’ की अपार लोकप्रियता को देखकर पारसी थिएटर कम्पनियों के मालिकों और डायरेक्टरों के मन से हिंदी को लेकर डर ख़त्म हो गया। पं. राधेश्याम कथावाचक ने बाद में और भी अनेक हिंदी नाटक लिखे जो पारसी थिएटर में खेले गए तथा वे ख़ूब सफल हुए। ऐसे नाटकों में ‘श्रवण कुमार’, ‘परिवर्तन’, ‘परम भक्त प्रह्लाद’, ‘श्रीकृष्णावतार’ तथा ‘ईश्वर भक्ति’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हिंदी के कारण नारायण प्रसाद ‘बेताब’ और पं. राधेश्याम कथावाचक के नाटकों की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर आग़ा हश्र काश्मीरी ने इसके बाद लिखे गए अपने नाटकों में हिंदी को काफ़ी महत्त्व दिया। पौराणिक और सामाजिक नाटकों की प्रस्तुतियों में शुचिता के कारण वे लोग भी अपनी स्त्रियों को नाटक दिखाने लाने लगे, जो उन्हें ड्रामा दिखाना पाप समझते थे। 

राधेश्याम कथावाचक साहित्य के विशेषज्ञ हरिशंकर शर्मा के संपादन में कुछ समय पूर्व ही ‘वंस मोर : वीर अभिमन्यु’ पुस्तक आई है जो इस नाटक के ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करती है। बहुत खोज करके हरिशंकर शर्मा ने पिछले 100 वर्षों में विद्वानों द्वारा इस नाटक पर लिखे गए लेखों को प्रकाशित किया है। सन् 1918 में नैनीताल निवासी जियाराम एम.ए. ने लिखा था: ‘यदि हिंदी साहित्य में नाटकों के चरित्र संस्कृत के प्राचीन ग्रंथो से लिए जाऍंगे तो इसमें कुछ संदेह नहीं कि उन इतिहासों की बेजान हड्डियों में फिर जान पड़ जाएगी, और इस प्रकार भारतवासियों का ध्यान अपने प्राचीन धर्म की ओर आकर्षित हो जाएगा।… जयद्रथ वध पर यह नाटक समाप्त हो जाता है, परन्तु कुछ मित्रों के आग्रह से लेखक ने परीक्षित का राज्याभिषेक और बढ़ा दिया है जो हमारी राय में अभिमन्यु वध की घटना का शोक शांत करने के लिए तथा संस्कृत नाटकों के नियमानुसार नाटक को सुखांत करने के लिए अच्छा ही हुआ है।’ 

कथा सम्राट प्रेमचंद ने इस नाटक पर टिप्पणी करते हुए लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में लिखा था : ‘हम समझते हैं कि इससे पहले इतने हिन्दीत्व का कोई नाटक पारसी कम्पनियों के स्टेज पर नहीं आया। इस नाटक का हास्य वाला भाग (कामिक) भी बड़ा शिक्षाप्रद और अश्लीलता से रहित था। यह उस ज़माने में पहली बार स्टेज पर आया जिस ज़माने में कितने ही उर्दू के नाटककारों ने ऐसे-ऐसे गन्दे कामिक स्टेज पर पहुॅंचाए थे कि माताओं और बहनों को थिएटर में ले जाते हुए भी लज्जा आती थी। माता को स्त्री, और स्त्री को माता कहलाना तो उन दिनों के कुछ उर्दू नाटककारों का मानो धर्म हो रहा था। ख़ैर, ‘वीर अभिमन्यु’ को पूर्ण सफलता मिली। महामना मालवीय जी तक ने इसे देखा और प्रशंसा की। इतना ही नहीं, जनता ने भी इसे उतना आदर दिया, जितना आदर इससे पहले के पारसी कम्पनियों के किसी नाटक को प्राप्त नहीं हुआ था। पंजाब यूनिवर्सिटी ने इसे क्रमशः ‘हिन्दी भूषण’ और ‘इन्टरमीडिएट’ क्लास कोर्स की पुस्तकों में पढ़ाए जाने के लिए चुना।’ 

‘वीर अभिमन्यु’ की उस समय पूरे देश में इतनी लोकप्रियता बढ़ गई थी कि इसे देश के लगभग सभी नाट्य-क्लबों द्वारा खेला गया था। अनेक स्कूल-कॉलेजों में भी इसका मंचन हुआ। पुस्तक में दिए गए एक लेख के अनुसार राजस्थान के मुख्यमंत्री एवं भारत के उपराष्ट्रपति रह चुके भैरों सिंह शेखावत जब 1940-41 में वैदिक हाई स्कूल जोबनेर (बाद में श्री कर्ण-नरेन्द्र उच्च माध्यमिक विद्यालय) में पढ़ रहे थे तब उन्होंने जोबनेर स्कूल में मंचित राधेश्याम कथावाचक के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ में अभिमन्यु की भूमिका निभाई थी। अभिनय करते हुए वीरता का उन्माद उन पर छा गया था। एक हुंकार के साथ दर्शकों के देखते-देखते चक्रव्यूह में प्रविष्ट हो उन्होंने एक के बाद एक योद्धा को धराशाई करते हुए चक्रव्यूह का भेदन कर डाला। दर्शक समुदाय उनके अद्भुत पराक्रम को देखकर मुग्ध हो गया। तालियों की गड़गड़ाहट और वीर अभिमन्यु की जय जयकार से सभागारगूँज उठा। दर्शकों में स्कूल के संस्थापक रावल नरेन्द्र सिंह की दोनों रानियाँ भी अन्य महिलाओं सहित यह नाटक देखने आई थीं। वे अभिमन्यु के जीवंत अभिनय से इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने एक स्वर्ण पदक तथा 11 रुपए पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए। उस ज़माने में यह राशि काफ़ी मायने रखती थी।   
  
हिंदी जगत के सुप्रसिद्ध आलोचक मधुरेश ने अपने लेख ‘पारसी थिएटर का पहला हिंदी नाटक’ में लिखा है कि ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने एक तरह से हिंदी के लेखकों को जगा दिया था। उर्दू के विरुद्ध हिंदी का बढ़ता वर्चस्व और उसी के हिसाब से हिंदू अभिनेताओं की खोज ‘वीर अभिमन्यु’ से शुरू हो गई थी। एक नाटककार के रूप में राधेश्याम एक ओर यदि उर्दू के गढ़ में हिंदी की सेंध लग रहे थे, वहीं वे हिंदू आदर्शों के सम्पोषण और प्रचार में भी सक्रिय थे। लेकिन उनका यह हिंदुत्व समावेशी और सकारात्मक हिंदुत्व था। सनातन धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर भी वे किसी और धर्म के प्रति विद्वेष, घृणा और शत्रुता के भाव से मुक्त थे।
 
शिक्षाविद् डॉ. अशोक उपाध्याय ने इस नाटक के विभिन्न अवयवों का विश्लेषण करते हुए अपने लम्बे आलेख में लिखा है: ‘वीर अभिमन्यु पारसी रंगमंच के प्रसिद्ध हिंदी नाटकों में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है। इसमें करुण और वीर रस के साथ-साथ हास्य रस का भी मजे़दार रूप देखने को मिलता है। भाषा भी प्रायः साफ़-सुथरी और भावाभिव्यंजक है। तत्कालीन जनता की अभिरुचि को ध्यान में रखकर जिन नाटकों को खेला जा रहा था, उनकी पूर्ण उपलब्धि और पराकाष्ठा ‘वीर अभिमन्यु’ में हुई थी।’
 
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में प्रोफेसर डॉ. पामेला लैटस्पाईक ने अपने लेख ‘वीर अभिमन्यु एंड द फैबुलस पारसी थिएटर’ में लिखा है : ‘कथावाचक जी का सदैव यह प्रयास रहा कि वे कुछ ऐसा दिखाऍं जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ देश और समाज का भी कल्याण हो। नाटक के अभिनेता से राधेश्याम जी कहलाते हैं, “और सुनो यह एक हिंदू नाटक है। हिंदी भाषा का इसमें प्रयोग है। सभी अभिनेताओं को समझा दिया जाए कि वे हिंदी और हिंदू दोनों का आदर और सम्मान, अपने चरित्रों और प्रदर्शन में तथा संवादों में बनाए रखेंगे क्योंकि हमें आर्य सभ्यता का गौरवपूर्ण इतिहास जनता तक पहुँचाना है।” शोधार्थी सत्यभामा ने अपने लेख ‘राधेश्याम कथावाचक और वीर अभिमन्यु’ में लिखा है : ‘पारसी रंगमंच की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसमें जो कामिक सीन होते थे, वे समाज की सच्चाई बयान करते थे। ‘वीर अभिमन्यु’ में राजाबहादुर का चरित्र जनता को हॅंसाता तो अवश्य है, साथ ही तत्कालीन समाज पर कमेन्ट्री भी करता है। राजाबहादुर कहता है—“ख़ुशामद सीखो। ख़ूब रुपया पैसा पैदा करके रईस बनना है, तो ख़ुशामद सीखो। ख़ुशामद सीखने के लिए किसी मकतब में नहीं जाना होगा। यह सबक़ नीम शरीफ़ों से सीखो या हम जैसे राजाबहादुरों से सीखो। कहीं भी न मिले, तो ऐश-पसन्द राजा-महाराजाओं की सभा से सीखो। राजाधिराज सुयोधन महाराज (यहाँ दुर्योधन को सुयोधन जानबूझकर कहा गया है) ने जब द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया, तो हमें भी ख़ुशामद की बदौलत राजाबहादुर का ख़िताब दिया।” पं. राधेश्याम के समय में चापलूसी करने वाले लोगों को अंग्रेज़ों ने पुरस्कृत किया था। उन्हें ‘रायबहादुर’ आदि का खिताब दिया था। बड़ी सूक्ष्मता से राधेश्याम ने इस नाटक में उन पर व्यंग्य किया था।
 
संपादक हरिशंकर शर्मा ने इस नाटक पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि कथावाचक जी ने पारसी थिएटर की व्यावसायिकता को ध्यान में रखते हुए बड़ी कुशलता के साथ ‘वीर अभिमन्यु’ में आदर्श के साथ मनोरंजन को भी समाहित किया है। पुस्तक में हेमा सिंह का लेख पारसी नाट्य शैली को बारीकी से समझने के लिए आज के रंगकर्मियों के लिए इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालता है। उन्होंने लिखा है : ‘स्वर्गीय बी. एम. शाह द्वारा निर्देशित पारसी शैली के नाटक ‘मशरिक़ी हूर’ में मुख्य पात्र ‘हमीदा’ और ‘वीर अभिमन्यु’ में ‘सुभद्रा’ निभाने के अनुभव के आधार पर मैंने पाया के पारसी रंगमंच शास्त्रीय संस्कृत नाटक शैली, लोकनाट्य परम्पराओं और विक्टोरियन थिएटर का अनूठा, अद्भुत और जटिल मिश्रण है। जिसकी अच्छी झलक ‘वीर अभिमन्यु’ में देखी जा सकती है।’ 

पुस्तक में प्रकाशित गोपीवल्लभ उपाध्याय, रणवीर सिंह, डॉ. नितिन सेठी सहित सभी साहित्यकारों के लेखों से पारसी थिएटर के महत्त्व, वीर अभिमन्यु नाटक के सामाजिक सरोकार, देशभक्ति और स्वाधीनता आंदोलन को शक्ति एवं प्रेरणा देने वाले इसके प्रसंग, तत्कालीन रंगमंच पर इस नाटक की अपार लोकप्रियता, प्रस्तुति की शैली और इसकी साहित्यिक विशेषताओं की अच्छी जानकारी मिलती है।

-रणजीत पांचाले 
 24-कैलाशपुरम, निकट डेलापीर, 
 बरेली-243122 (उ. प्र.)
 ईमेल: ranjeetpanchalay@gmail.com
 मो. 73516 00444
 
संपादक-हरिशंकर शर्मा, पुस्तक-वंस मोर:वीर अभिमन्यु, प्रकाशक-बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ 115 

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