मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।

सूर्य की अब... (काव्य)

Print this

Author: कुमार शिव 

सूर्य की अब किसी को ज़रूरत नहीं, जुगनुओं को अँधेरे में पाला गया 
फ़्यूज़ बल्बों के अद्भुत समारोह में, रोशनी को शहर से निकाला गया 

बुर्ज पर तम के झंडे फहरने लगे, साँझ बनकर भिखारिन भटकती रही 
होके लज्जित सरेआम बाज़ार में, सिर झुकाए-झुकाए उजाला गया 

नाम बदले खजूरों ने अपने यहाँ, बन गए कल्पवृक्षों के समकक्ष वे 
फल उसी को मिला जो सभा-कक्ष में साथ अपने लिए फूलमाला गया 

उसका अपमान होता रहा हर तरफ़, सत्य का जिसने पहना दुपट्टा यहाँ 
उसका पूजन हुआ, उसका अर्चन हुआ, ओढ़कर झूठ का जो दुशाला गया 

फिर अँधेरे के युवराज के सामने, चाँदनी नर्तकी बन थिरकने लगी 
राजप्रासाद की रंगशाला खुली, चाँद के पात्र में जाम ढाला गया 

जाने किस शाप से लोग पत्थर हुए, एक भी मुँह में आवाज़ बाक़ी नहीं 
बाँधकर कौन आँखों पे पट्टी गया, डालकर कौन होंठों पे ताला गया 

वृक्ष जितने हरे थे तिरस्कृत हुए, ठूंठ थे जो यहाँ पर पुरस्कृत हुए 
दंडवत लेटकर जो चरण छू गया, नाम उसका हवा में उछाला गया

-कुमार शिव 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश