एक नामी कंजूस था। लोग कहते थे कि वह स्वप्न में भी किसी को प्रीति-भोज का निमन्त्रण नहीं देता था। इस बदनामी को दूर करने के लिए एक दिन उसने बड़ा साहस करके एक सीधे-सादे सज्जन को अपने यहां खाने का न्योता दिया। सज्जन ने आनाकानी की। तब कंजूस ने कहा--आप यह न समझें कि मैं खिलाने-पिलाने में किसी तरह की कंजूसी करूंगा। मैं अपने पुरखों की कसम खाकर कहता हूं कि जो बढ़िया से बढ़िया चीज मिलेगी, वही आपके सामने रखूंगा। आप अवश्य पधारें धर्मावतार !
कंजूस के आग्रह से सज्जन दोपहर को उसके घर खाने पहुंचा। वहां देखा तो चूल्हा तक नहीं जला था। कंजूस अपने बाल-बच्चों के साथ बैठा हुआ शकरकन्द खा रहा था। अतिथि को देखते ही वह उठकर बोला--आओ-आओ मेरे इकलौते मेहमान, हम तुम्हारे साथ अभी-अभी बाजार चलते हैं। वहां बीच बाजार में लोग जिस वस्तु को सबसे बढ़िया कहेंगे, उसी से मैं तुम्हारा भोग लगाऊंगा। उसके लिए एक लाख रुपया भी खर्च करने पड़ेंगे, तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। अपनी भूख को मरने मत देना।
खाने का समय हो गया था। बढ़िया भोजन के लोभ से सज्जन की भूख भी प्रबल हो गई थी। वह कंजूस के साथ बाजार की ओर चल पड़ा। बाजार में कंजूस ने पहले एक हलवाई की दुकान पर जाकर उससे पूछा--कहो जी, ये पूरियां कैसी हैं?
हलवाई बोला--सेठजी, देख लीजिए मक्खन जैसी मुलायम हैं।
कंजूस ने तब अपने मेहमान से कहा कुछ सुना आपने? यह इन पूरियों को मक्खन जैसी बता रहा है। मतलब यह है कि मक्खन इनसे उत्तम वस्तु है, तभी तो उसके साथ इनकी तुलना की जा रही है। चलिए, आपके लिए हम मक्खन खरीदेंगे।
दोनों एक दूध-दहीवाले की दुकान पर पहुंचे। वहां कंजूस ने दुकानदार से पूछा--कहो भाई, यह मक्खन कैसा है? दुकानदार बोला--बड़े सरकार, चखकर देखिए; जैतून के तेल जैसा जायकेदार है।
कंजूस फिर सज्जन से बोला--सुनिए-सुनिए, यह क्या कह रहा है। इसके कहने का अर्थ यह है कि जैतून का तेल मक्खन से भी उत्तम वस्तु है। चलिए, उसी का भोग लगाया जाएगा; आज आप हमारे देवता हैं।
दोनों एक तेलवाले के यहां पहुंचे। वहां कंजूस ने जैतून का तेल देखकर बेचनेवाले से पूछा--अरे यह कैसा है? दुकानदार ने कहा--दयानिधान, देख लीजिए; पानी जैसा स्वच्छ है।
कंजूस परम प्रसन्न होकर भूखे-प्यासे अतिथि से बोला--लीजिए भाई साहब, सर्वोत्तम वस्तु मिल गई। पानी इस तेल से बढ़-चढ़कर है, तभी तो इसको उसके जैसा बताया जा रहा है। यही नहीं, पानी ही पूरी, मक्खन, जैतून सबसे बढ़कर है क्योंकि पूरी का बाप मक्खन, मक्खन का चचा जैतून का तेल और तेल का दादा पानी है, यह सिद्ध हो चुका है। अब चलिए, जिस चीज की जरूरत थी, मिल गई है। मैं दिल खोलकर आपका सत्कार करूंगा।
अतिथि को लेकर वह धूर्त तीसरे पहर घर लौटा। वहां तुरन्त कई घड़े पानी सामने रखकर वह उससे हाथ जोड़कर बोला--दीनदयालु, अब संकोच न कीजिए; इस अमूल्य वस्तु को ग्रहण कीजिए। आपकी तृप्ति से हमारी सात पीढ़ियां तर जाएंगी।
अतिथि थोड़ा-सा जल पीकर चुपचाप बैठकर मन में अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। कंजूस ने फिर विनय के साथ कहा--बस, इतने से ही आपका पेट भर गया! और लीजिए साहब! यह मेरे बाबा के बाबा के खुदवाए हुए कुएं का जल है। पहले यह पाताल तक गहरा था, लेकिन अब किनारे की मिट्टी और पेड़ की पत्तियों के गिरते रहने से पटता जा रहा है। इसका पानी पहले शरबत जैसा मीठा होता था, लेकिन न जाने क्यों, इधर कुछ खारा हो गया है। इसका गंदलापन देखकर शंका न कीजिए। बात यह है कि खर्चे की कमी के कारण पुरखे इसकी सफाई नहीं करा सके। पानी में मछली नहीं है। आप जी भरकर पीजिए। इससे भूख की ज्वाला की कौन कहे, घर की ज्वाला भी बुझ जाती है। इन घड़ों को खाली कर दीजिए; मैं अभी दो-चार घड़े और ला दूंगा। सब आप ही का तो है। आप मेरे लिए अगस्त्य ऋषि की भांति पूज्य हैं। मेरे समुद्र को सोखिए नाथ! सोखिए!
सज्जन ने नाक बन्द करके थोड़ा-सा पानी और पी लिया। इसके बाद वह विदा मांगकर चलने लगा। कंजूस ने बड़े भक्तिभाव से विदा करते हुए कहा भाई साहब, आप मान गए होंगे कि मैंने अपने वचन का पूरा पालन किया है। जिस जल से मैंने आज आपको तृप्त किया है, उसे मैं किसी दूसरे को छूने भी नहीं देता। दूसरों के लिए वह दुर्लभ है। अब आप प्रसन्न होकर यह आशीर्वाद दें कि मेरे पितर तर जाएं। इसी जल से में पितरों का तर्पण करता हूं। सज्जन का पेट उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों से कैसे भरता! वह उस धूर्त को धन्यवाद देकर खाली पेट अपने घर लौट आया।
-आनंदकुमार