मेह मधुराग
यूँ तो कई गीत
गुनगुनाता है
गाता है मौसम
बारिश में सबसे
मधुरम गीत
सुनाता है मौसम।
कि इन बूँदों में
चैतन्य हो रहा
प्रभु का नर्तन
धुले-धुले पल्लव
खिले खिले प्रसून
जैसे हैं श्री चरणों
में अर्पण।
भीगी रुत में रमा
मन ख़ुद को ही
पुकार उठता है
अवार्चीन भावों से
शृंगार कर
निखर जाता है
बूँद-बूँद जैसे
दस्तक़ देती
है मन पर
और हिलोरे लेती
हैं तन पर।
इन आत्मीय के
आतिथ्य को
पलक-पांवड़े
बिछाए रहते हैं नयन
साँसों में बजते हैं मृदंग
मनमयूर नृत्य को बेचैन
झर-झर अंजोर बूँदें
जैसे चमकता साज़
बिखर अवनि पर
छेड़ जाती हैं मधुराग।
अवनि से अंबर के
जुड़ाव की ये
सम्मोहक डोर
मनहर पावस का
पावन उत्सव हर ओर।
सोलह कला
जितनी भी हैं, जहाँ भी हैं
कलाओं से ही ज़िंदगी है।
विस्तार है उस अनंत का
कलाओं के रूप में
कितनी बेरौनक निस्तेज
ज़िंदगी है कलाओं के बिना।
कला के प्रणेता से अनुग्रहीत
इन पलों को साँसें मिलती हैं
तमन्नाओं की चंद कलियाँ खिलती हैं
कलाओं में रच-बस जाती है
सृजनशीलता की मधुर खुशबू
निखर-निखर, बिखर जाती है
उसी तरह उन्मुक्त मासूम
झरने सी निर्दोष हँसी भी
किसी कला से कम नहीं
जिंदगी को रोशन कर
देती है झिलमिला के।
-अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'
ई-मेल -ashri0910@gmail.com