वह उठती हुई एक सुन्दर ज्वाला है। दूर से देख भर ले; उसे छूने का दुःसाहस मत कर। सन्तप्त नेत्रों को ठंडा करले, कोई रोकता नहीं। पर, मूर्ख! उसके स्पर्श से अपने शीतल अंगों को कहीं जला न बैठना।
वह इठलाता हुआ एक प्रमत्त सागर है। अपनी अधीर आँखों को उसकी गर्वीली हिलोरों पर दूर ही से नवा भरले; उसके निःस्नेह अंक का आलिंगन करने आगे मत बढ़। तू ही बता, तुझे अपने भोले-भाले रसिक नेत्रों की मीठी मुस्कराहट पसन्द है, या तूफ़ानी समुद्र का भयंकर अट्टहास?
वह खिला हुआ एक पङ्किल पद्म है। अपने नयन-मुकुरों में उस विकसित सरोज की केवल छाया ही पड़ने दे, चयन-चेष्टा न कर। अधीर भावुक! तू ही बता, नीरस दृष्टि को उसकी सरसता में विभोर कर लेना कल्याण-कर है, अथवा उसे तोड़ कर अपने अमल अंग पर कीचड़ का अंगराग कर बैठना?
सारांश यह कि, वह उपास्य तो है, पर अस्पृश्य है।
-वियोगी हरि
[गद्य-काव्य]