जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

रूप | गद्य काव्य (विविध)

Print this

Author: वियोगी हरि

वह उठती हुई एक सुन्दर ज्वाला है। दूर से देख भर ले; उसे छूने का दुःसाहस मत कर। सन्तप्त नेत्रों को ठंडा करले, कोई रोकता नहीं। पर, मूर्ख! उसके स्पर्श से अपने शीतल अंगों को कहीं जला न बैठना।

वह इठलाता हुआ एक प्रमत्त सागर है। अपनी अधीर आँखों को उसकी गर्वीली हिलोरों पर दूर ही से नवा भरले; उसके निःस्नेह अंक का आलिंगन करने आगे मत बढ़। तू ही बता, तुझे अपने भोले-भाले रसिक नेत्रों की मीठी मुस्कराहट पसन्द है, या तूफ़ानी समुद्र का भयंकर अट्टहास?

वह खिला हुआ एक पङ्किल पद्म है। अपने नयन-मुकुरों में उस विकसित सरोज की केवल छाया ही पड़ने दे, चयन-चेष्टा न कर। अधीर भावुक! तू ही बता, नीरस दृष्टि को उसकी सरसता में विभोर कर लेना कल्याण-कर है, अथवा उसे तोड़ कर अपने अमल अंग पर कीचड़ का अंगराग कर बैठना?

सारांश यह कि, वह उपास्य तो है, पर अस्पृश्य है।

-वियोगी हरि
[गद्य-काव्य]

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश