व्यंग्य साहित्य की वह विधा है जो पाठकों के लिए तो हमेशा रुचिकर रही लेकिन आलोचकों ने इसे स्थापित करने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। अक्सर व्यंग्य को हास्य के साथ जोड़ दिया जाता है जबकि हास्य और व्यंग्य दोनों अलग-अलग प्रकार की विधा है। व्यंग्य में गंभीरता भी होती है पर हास्य अक्सर हास्यास्पद बन जाता है।
कविता में व्यंग्य निश्चित तौर पर मौजूद होता है; क्योंकि कविता अपनी बात को प्रस्तुत करने के लिए जिस वक्रता और लाक्षणिकता का सहारा लेती है तथा समाज और व्यवस्था पर जिस प्रकार से प्रहार दिखता है, यह व्यंग्य की ही शैली या विषय रहे हैं। व्यंग्य शब्द का शब्दकोश में अर्थ भी शब्द की व्यंजना शक्ति के द्वारा निकला गूढ़ अर्थ बताया गया है। कविता में ही नहीं मनुष्य के अंदर भी तंज़ करने या व्यंग्य करने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। हम कह सकते हैं कि व्यंग्य वह माध्यम है जो बातों को विपरीत रूप में प्रस्तुत करता है। वक्ता के अभिप्राय या आशय को श्रोता अपने आप उसे समझने की चेष्टा करता है। कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना यह पंक्ति भी व्यंग्य पर फिट बैठती है। हास्य का उद्देश्य भले मनोरंजन करना हो लेकिन व्यंग्य का उद्देश्य लोगों को जगाना होता है। व्यंग्य में स्पष्टता ने होने पर भी यह हमें प्रभावित करता है। हम जो बातें सहज रूप में नहीं कर सकते व्यंग्य के द्वारा वह बातें आसानी से कह लेते हैं। रीतिकालीन कवि बिहारी व्यंग्य के माध्यम से राजा जयसिंह को पत्नी से अलग होकर राज- काज से जोड़ देते हैं।
व्यंग्य लेखक के पास अनुभव की विशाल संपदा होती है। उनके पास शब्दों के तकनीक होते हैं जिनके सहारे वह अपनी बातें प्रभावी रूप से रख पाते हैं।
व्यंग्य के अर्थ पर विचार करें तो इसका एक अर्थ ताना कसना है। कहने का मतलब व्यंग्य के द्वारा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक या व्यक्तिक विसंगतियों और विडंबना पर प्रहार किया जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य को बड़े अच्छे ढंग से परिभाषित करते हुए कहा है कि व्यंग्य वो है जहां बोलने वाला हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला रहा हो।
हरिशंकर परसाई जो हिंदी के सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं वह व्यंग्य को पाखंडों का पर्दाफाश कह कर पुकारते हैं। अमृत राय के मुताबिक व्यंग्य सीधे कोड़े लगाने का काम करता है।
हिंदी में ग़ज़ल अपने प्रारंभिक काल से ही युग की विसंगतियों पर चोट करती रही है। उर्दू का यह प्रेम काव्य भी हिंदी में अपने इसी तल्ख तेवर को लेकर सामने आया। गजल ने अपने तीखेपन से सामाजिक भेदभाव के ऊपर उंगलियां उठाई। हिंदी के शायद ही कोई गज़लकार हों जिन्होंने अपनी ग़ज़ल के किसी शेर में व्यंग्य की शैली न अपनाई हो। कबीर ने जहां दुनियादारी पर व्यंग्य किया, निराला ने जहां पूंजीपति पर व्यंग्य किया तो दुष्यंत इसी के सहारे सत्ता और सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करते हैं।
हिंदी ग़ज़ल के कई शेर ऐसे हैं जो कुर्सी पर बैठे हुए लोगों की कथनी और करनी के अंतर का जायज़ा लेते हैं कुछ शेर गौरतलब हैं -
भले हो देश में दंगा हमें चिंता नहीं कोई
जले गोदावरी गंगा हमें चिंता नहीं कोई
- अश्वनी कुमार पांडेय
जहां रहनुमा लूट रहे हैं होगी फिर खुशहाली क्या
हम महंगाई के मारों को होली क्या दिवाली क्या
- अशोक अंजुम
मुंसिफ़ो काज़ी सभी जल्लाद होकर रह गए
कायदे कानून सब अपवाद होकर रह गए
- गुलशन मदान
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख्याल है साहब
- प्रदीप चौबे
व्यंग्य की भाषा टेढ़ी भंगिमा लिए होती है उसमें बातों को उलट-पुलट कर रखने से ही श्रोताओं के बीच आनंद का संचार होता है। देखें कुछ शेर--
पहले दाना डाल भतीजे
फिर कर उसे हलाल भतीजे
बिला वजह मत करिए शोर
जिसका डंडा उसका ज़ोर
- विजय
हो रहे सारे काम वर्दी में
जो रहे सुबह शाम वर्दी में
- हरीश दुबे
फकत तीरगी है बसेरे में मौला
नया साल गुजरा अंधेरे में मौला
- राजेश रेड्डी
ग़ज़ल के कई शेर ऐसे हैं जो सामाजिक गैर बराबरी पर चोट करते हैं। जीवन सिंह ने कहा है- यह संयोग मात्र नहीं था कि बीसवीं सदी के आठवें दशक के प्रारंभिक दिनों से ही भारतीय समाज में ग़ैर बराबरी, भ्रष्टाचार अन्याय और उत्पीड़न का सिलसिला कायम था। हिंदी गजल के कई शायरों ने इस व्यवस्था पर प्रहार किया है जहां इंसानियत को बांटने की कोशिश की गई है। चंद शेर मुलाहिजा हों -
हमारे सामने था पेट का मसला बहुत पहले
नहीं तो छोड़ते क्यों गांव का साया बहुत पहले
- मधुवेश
है उनका एक ही मकसद वही हर बार करते हैं
सियासी लोग हैं मतलब का कारोबार करते हैं
- अनिरुद्ध सिन्हा
दाने से मछलियों को लुभाता रहा
क्या हकीकत थी क्या वो दिखाता रहा
- डॉ भावना
कदम कदम पर छल कपट कदम कदम पे चाले हैं
मगर हमें पता नहीं कमाल है कमाल है
- अभिषेक कुमार सिंह
वो दुखों को बस नया आकार देते हैं
हम समझते हैं कि हम को प्यार देते हैं
- विनय मिश्र
वो क्या जाने वो क्या समझे पागल है दीवाना है
पीर पराई कैसे जाने दर्द से जो अंजाना है
- कृष्ण कुमार प्रजापति
जो भी वादे किए सब हवा हो गए
चंद नारे महज आसरा हो गए
- बालस्वरूप राही
व्यंग्य को गंदगी साफ करने वाला विधा भी कहा गया है। व्यंग्य समाज में फैले भ्रष्टाचार पर कटाक्ष करता है पर इसके कहने का तरीका और लहजा ऐसा होता है कि लोग तिलमिला भले ही जाए प्रहार करने का साहस कतई नहीं जुटा पाते। व्यंग्य व्यक्तिवाचक संज्ञा में बात नहीं करता उसे जातिवाचक संज्ञा में बात करना पसंद है। सुनने वाले को यदि पता चल भी जाये कि वक्ता का कथन उसी की तरफ है फिर भी इसकी शैली ऐसी होती है कि वह मजबूर होकर रह जाता है, और कोई प्रतिकार नहीं कर पाता है।
हिंदी गजल की सबसे बड़ी विशेषता है कि हिंदी कविता की तरह यह किसी वाद से जुड़ी हुई नहीं है। ए. एफ नज़र की मानें तो "हिंदी ग़ज़ल के कथ्य के दायरे में जीवन के समस्त विषय आते हैं।
व्यंग्य कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से प्रहार करने वाली रचना है. सामाजिक विद्रूपता को यह अधिक जिम्मेवारी से रखता है.ग़ज़ल के कई शायरों ने भी इसे बखूबी अंजाम दिया है. चंद और शेर द्रष्टव्य हैं -
हमको जितने यार मिले
सारे दुनिया दार मिले
- हस्तीमल हस्ती
यहीं पर छोड़ कर इन रहबरों को
चलो वापस चले अपने घरों को
- हरेराम समीप
हमने मांगा फूल लेकिन आपने पत्थर दिया
एक सीधे प्रश्न का कितना कठिन उत्तर दिया
- उर्मिलेश
कभी इसकी तरफदारी कभी उसकी नमकख्वारी
इसी को आज कहते हैं जमाने की समझदारी
- कमलेश भट्ट कमल
मर्द हो तुम या कि मादा क्या कहें
और अब इससे ज्यादा क्या कहें
- चंद्रसेन विराट
हिंदी के कई गजल ऐसे भी हैं जो मुकम्मल तौर पर व्यंग्य प्रधान ग़ज़लें हैं। फजलुर रहमान हाशमी की एक ऐसी ही ग़ज़ल के चंद शेर देखे जा सकते हैं, जिसके हर शेर में शायर इंतजामिया पर सवाल खड़ा करता है--
यह धर तो देखता हूं सर कहां है
किसी के हाथ में खंजर कहां है
सड़क पर लाश अनजानी पड़ी है
यही सब पूछते हैं धर कहां है
मनु था आदमी इतिहास देखो
बताओ डार्विन बंदर कहां है
यह तो दरखास्त की शोभा है केवल
कहीं व्यवहार में सादर कहां है
- फजलुर रहमान हाशमी
दुष्यंत हिंदी गजल के नुमाइंदा शायर हैं ‘साए में धूप’ उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह शीर्षक ही अपने नाम वक्रोक्ति लिए हुए हैं। जहां धूप भी है और साया भी। एक तरफ गर्म धूप लग रही है तो दूसरे तरफ सायेदार वृक्ष भी मौजूद हैं। सरदार मुजावर दुष्यंत की शायरी का अध्ययन करते हुए कहते हैं कि- “दुष्यंत कुमार की गजलों का मूल स्वर है व्यंग्य .... समाज और सरकार की गलत व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए दुष्यंत कुमार ने कई शेर प्रस्तुत किए हैं।” वो आगे लिखते हैं कि “व्यंग्य का सहारा लेकर दुष्यंत कुमार ने समकालीन समाज एवं देश की असंगतियों पर प्रहार किए हैं... दुष्यंत कुमार के शेरों में व्यंग्य की अभिव्यक्ति बड़ी सहजता से हुई है।” वास्तव में दुष्यंत के शेर हमें भीतर तक झकझोरते हैं। दुष्यंत ने जो देखा या समझा था उसे व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया है उनके एक- दो शेर इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं--
यह सोच कर के दरख्तों में छांव होती है
यहां बबूल के साए में आ के बैठ गए
- दुष्यंत कुमार
अब नई तहज़ीब के पेशे नजर हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं
- दुष्यंत कुमार
उनकी शायरी का यही व्यंगात्मक लहजा डॉ. उदय नारायण सिंह को पसंद आ जाता है, और वो जोर देकर कहते हैं- “मात्र दो मिसरों में एक साथ कई चुटीली बातें कहने में शेर का कोई सानी नहीं है। इसी बात को दूसरे शब्दों में हिंदी गजल के प्रतिनिधि आलोचक और शायर हरेराम समीप कहते हैं- “उनकी ग़ज़लें वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के नकलीपन का पर्दाफाश करती हैं।” 13
कहना न होगा कि ग़ज़ल ने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, और ऊंच- नीच की व्यवस्था पर सलीके से चोट किया है। अपने को व्यक्त करने के लिए इसे व्यंग्य वाली शैली सबसे उपयुक्त लगी है। व्यंग्य की तरह ग़ज़ल की भी विशेषता है कि इसमें शब्दों को चुनकर इस्तेमाल किया जाता है, जैसा कि दीक्षित दनकौरी ने भी लिखा है- “ग़ज़ल में शब्दों का किफायत के साथ प्रयोग होता है। हिंदी गजल के कई शेर इस तकाज़े पर खरे उतरते हैं--
एक ही था उस बेचारे में कमी
योग्य था सबसे अधिक वो आदमी
- लक्ष्मण
अब वह विज्ञापनों में आते हैं
अपनी उपलब्धियां गिनाते हैं
- शिवकुमार पराग
बूढ़ी मां है नकाब ओढ़े हुए
चांद सी बेटी जींस टॉप में है
- जियाउर रहमान जाफरी
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ग़ज़ल ने व्यंग्य के माध्यम से तत्कालीन व्यवस्था पर प्रश्न खड़े किए हैं। गजल ने सामाजिक बदलाव के लिए लोगों को आमादा किया है, और अपनी एक ऐसी भाषा शैली अपनाई है। इसमें मारक क्षमता तो है ही, वो अपने आप में अलग लहजा भी लिए हुए है।
-डॉ.जियाउर रहमान जाफरी
सहायक प्रोफेसर
स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
मिर्जा गालिब कॉलेज गया, बिहार-823001
मोबाइल नम्बर- 9934847941,6205254255
ई-मेल zeaurrahmanjafri786@gmail.com
संदर्भ ग्रन्थ
आलोचना की यात्रा में हिंदी ग़ज़ल, जीवन सिंह, पृष्ठ- 15
तुम भी नहीं, अनिरुद्ध सिन्हा, भारतीय ज्ञानपीठ, वर्ष- 2021, पृष्ठ- 66
शब्दों की कीमत, डॉ भावना, अंकिता प्रकाशन गाजियाबाद, वर्ष- 2019, पृष्ठ- 61
वीथियों के बीच, अभिषेक कुमार सिंह, लिटिल वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली, वर्ष- 2022, पृष्ठ- 112
लोग जिंदा हैं, विनय मिश्र, लिटिल बर्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली, वर्ष- 2021 की, पृष्ठ- 17
ख्वाहिशों का मेला, कृष्ण कुमार प्रजापति, अनय बुक, वर्ष- 2022, पृष्ठ- 16
चलो फिर कभी सही, बालस्वरूप राही, डायमंड बुक्स नई दिल्ली, वर्ष- 2021, पृष्ठ- 59
हिंदी ग़ज़ल के इमकान, ए. एफ. नज़र, पृष्ठ- 106
मेरी नींद तुम्हारे सपने, फजलुर रहमान हाशमी, दूसरा मत प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष- 2012, पृष्ठ- 52
दुष्यंत कुमार की गजलों का समीक्षात्मक अध्ययन, सरदार मुजावर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष- 2003, पृष्ठ- 43
वही, पृष्ठ- 44
हिंदी गजल शिल्प एवं कला, डॉ नारायण सिंह, पृष्ठ- 14
समकालीन हिंदी गजल, हरे राम समीप, पृष्ठ- 159
ग़ज़ल दुष्यंत के बाद, दीक्षित दनकौरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ- 4