चर्चों पर चर्चे भी बहुत हो गये
पर्चों पर पर्चे भी बहुत हो गये
और अब तो मेरे दोस्तो
खचों पर खर्चे भी बहुत हो गये ।
काम नहीं चलेगा अब
अध्याय में विराम से
यात्रा में विश्राम से ।
हमने जो लिखा,
जो पढ़ा,
जो सुना है
इस दौर की
जिस दौड़ को
चुना है,
वह जाती है
उस सीढ़ी की ओर
जो सीढ़ी जाती है
नयी पीढ़ी की ओर ।
गति नहीं दी
हमने यदि
स्वयं को इस दौड़ पर
यह खर्चे, यह पर्चे, यह चर्चे
सब सो जायेंगे
यहीं कफ़न को ओढ़ कर ।
एक बार फिर
किनारे पर ही
डूब जायेगी नाव
हँसेगा हम पर
एक और
नया पारित प्रस्ताव ।
-पद्मेश गुप्त
[सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, सूरीनाम के अवसर पर सुनाई गयी कविता]
*पद्मेश गुप्त ब्रिटेन के जानेमाने हिन्दी साहित्यकार हैं।