भाषा और राष्ट्र में बड़ा घनिष्ट संबंध है। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

महाकाल लोक (विविध)

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Author: डॉ राम प्रसाद प्रजापति

महाकाल लोक: कालगणना के प्राचीन केंद्र का वैभव और गौरव की पुनर्स्थापना

प्राचीन काल से उज्जैनी नगरी समृद्ध ज्ञान परंपरा और कालगणना का केंद्र रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा महाकाल लोक के लोकार्पण ने पुनः महाकाल नगरी को काल के निर्धारण का केंद्र मानते हुए वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों को ग्रीनविच माध्य समय (जीएमटी) के स्थान महाकाल माध्य समय (एमएमटी) तय करने के लिए आगे आने का अप्रत्यक्ष रूप से आव्हान किया है। प्रधानमंत्री ने कहा--

"शिवम् ज्ञानम्' इसका अर्थ है शिव ही ज्ञान है और ज्ञान ही शिव है| शिव के दर्शन में ही ब्रह्मांण्ड का सर्वोच्च दर्शन है| आजादी के अमृतकाल में भारत ने गुलामी की मानसिकता से मुक्ति और अपनी विरासत पर गर्व जैसे पंच प्राण का आहृवान किया है| इसलिए आज अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण पूरी गति से हो रहा है| काशी में विश्वनाथ धाम भारत की संस्कृति का गौरव बढ़ा रहा है।"

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में उज्जैन में महाकाल लोक का लोकार्पण किया है। भौगोलिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से उज्जैन का महत्व प्राचीन काल से रहा है और इसे कालगणना का केंद्र माना गया है। प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र रही है। खगोलशास्त्रियों की मान्यता है कि यह उज्जैन नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है। कालगणना के शास्त्र के लिए इसकी यह स्थिति सदा उपयोगी रही है। इसलिए इसे पूर्व से ‘ग्रीनविच’ के रूप में भी जाना जाता है। प्राचीन भारत की ‘ग्रीनविच’ यह नगरी देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र तल से लगभग 1621 फीट ऊंचाई पर बसी है। इसी भौगोलिक स्थिति के कारण इसे कालगणना का केंद्र बिंदु कहा जाता है और यही कारण है कि जिसके प्रमाण में राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वेधशाला आज भी इस नगरी को कालगणना के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करती है। कालगणना का केंद्र होने के साथ-साथ ईश्वर आराधना का तीर्थस्थल होने से इसका महत्व और भी बढ़ गया। पद्मश्री डॅा. विष्णुश्रीधर वाकणकर ने महाकाल वन में उज्जैन की महिदपुर तहसील स्थित डोंगला में सूर्य के उत्तर दिशा का अंतिम समपाद बिंदु खोजा और बताया कि उज्जैन प्राचीन भारत में खगोलीय अध्ययन का स्थान रहा है और अधिकांश वैदिक गणना उज्जैन में कर्क रेखा के स्थान पर आधारित थी ।

यह सर्वविदित है की भारत में वैदिक काल में एक समृद्ध और विविध सांस्कृतिक और सुस्थापित पारंपरिक वैज्ञानिक ज्ञान प्रणाली थी। हमारे वेद इस ब्रह्मांड के विकास की उत्पत्ति की व्याख्या करने के लिए उपयोगी हैं। "नासदीय सूक्त" जो की ऋग्वेद के 10 वें मंडल (10:129) का 129 वां सूक्त है, यह ब्रह्मांड विज्ञान और ब्रह्मांड के विकास से संबंधित है। इसके अलावा, "पुरुष सूक्तम" ऋग्वेद का 10.90 सूक्त है, जो पुरुष को समर्पित है, "ब्रह्मांडीय प्राणी जो "पुरुष सूक्त संहिता" में ब्रह्मांड के विस्तार में सर्वोच्च सर्वशक्तिमान शक्ति की भूमिका की व्याख्या करता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने श्लोक और सूक्ति के माध्यम से कई वैज्ञानिक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीकों से समझाया हैं। महर्षि कणाद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "वैशेषिक सूत्र" में 600 ईसा पूर्व के आसपास सबसे पहले परमाणुवाद के सिद्धांत, गति के नियमों की अवधारणा, अंतरिक्ष और समय की अवधारणा, तरलता के नियम आदि प्रतिपादित किये। बाद में 450-800 ईस्वी के मध्य भारतीय खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने सौर मंडल, ग्रहों की गति, पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी को समझने के लिए मूलभूत गणितीय गणनाओं को आगे बढ़ाया। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी, अपनी धुरी के चारों ओर पृथ्वी का घूमना, पाई की गणना, शून्य की खोज, खगोल भौतिकी और गणित के कई और महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए जो आज की आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के साथ की गयी गणनाओं के सामानांतर पायी गयी है।

खगोल विज्ञान और गणित प्राचीन काल से वेदों के अंग रहे हैं और ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और अन्य पुस्तकों में चर्चा की गई है। प्राचीन साहित्य में सितारों, चंद्र और सौर महीनों, ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य, युग की इकाई (कल्प) आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। 525 ई. के आसपास आर्यभट्ट ने पाटलिपुत्र की वेधशाला में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में काम किया और कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। उन्होंने नादिवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र आदि का वर्णन किया है। प्राचीन खगोल विज्ञान में प्रकाश की गति की सटीक गणना योजना और निमेश इकाइयों में मापी जाती है। आर्यभट्ट ने गुरुत्वाकर्षण खींचने, पृथ्वी के घूमने, पृथ्वी के गोल आकार की अवधारणाओं पर सफलतापूर्वक चर्चा की। आर्यभटीय गोलापाद में सूर्योदय और सूर्यास्त की व्याख्या की गई है। आर्यभट्ट ने कहा कि ग्रहण पृथ्वी पर चंद्रमा की छाया के कारण होता है न कि राहु और केतु के कारण । आर्यभट्ट ने सूर्य और अन्य ग्रहों के बीच की सही दूरी भी मापी है। आर्यभट्ट का सबसे लोकप्रिय सिद्धांत सूर्य का हेलियोसेंट्रिक मॉडल है जिसमें उन्होंने पहली बार दिखाया कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। उन्होंने ग्रीक खगोलविदों टॉलेमी के भू-केंद्रीय मॉडल को खारिज कर दिया। आर्यभट के अनुसार सूर्य सौरमंडल के केंद्र में स्थित है और पृथ्वी सहित बाकी ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं। आर्यभट्ट ने त्रिभुजों और वृत्तों के क्षेत्रफलों की गणना के लिए भी सही सूत्र निकाले। उन्होंने साइन की तालिका के निर्माण और शून्य की खोज करने में भी बहुत प्रमुख भूमिका निभाई। आर्यभत्र ने तारों से सापेक्ष पृथ्वी के घूमने की गति को नापते हुए कहा था कि एक दिन की लंबाई 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सेकंड है, जो वास्तव में केवल 0.86 सेकंड कम है। आर्यभट्ट से पहले भी कई यूनानियों, यूनानी और भारतीय वैज्ञानिकों ने एक दिन की अवधि बता दी थी लेकिन वे आर्यभट्ट की गणना के अनुसार सटीक नहीं थे।

बाद में उज्जैन के कायथा में जन्मे खगोलविद वराहमिहिर ने उज्जैन में खगोल वेधशाला का निर्माण करवाया था जिसमें उन्होंने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट के ज्ञान का उपयोग करते हुए कई महत्वपूर्ण गणितीय सूत्र तैयार किए। वराहमिहिर ने प्रस्तावित किया कि चंद्रमा और ग्रह अपने स्वयं के प्रकाश के कारण नहीं बल्कि सूर्य के प्रकाश के कारण चमकदार हैं। वराहमिहिर का पंच सिद्धांत-टिका आर्यभट्ट के समय से पहले हिंदू खगोल विज्ञान के इतिहास के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक है। विद्वानों का मत है कि वराहमिहिर ने "मेरु स्तम्भ" का निर्माण किया था, जो वर्तमान में कुतुब मीनार के रूप में प्रसिद्ध है | समाज के बीच हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों के योगदान को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ और सही दिशा में शोध करना बहुत महत्वपूर्ण है। लगभग 600 ईस्वी तक भारत में गणितीय खोजों के लिए सभी सामग्री मौजूद थी। भारतीय खगोल विज्ञान और गणित की नींव मजबूत और बुनियादी रूप से समृद्ध है। अगर हम शून्य की खोज की बात करें तो इसका इतिहास काफी लंबा है जिसे बख्शाली पांडुलिपि के रूप में जाना जाता है।

भारत अपने बौद्धिक ज्ञान, समृद्ध और विविध विरासत, संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों के कारण विश्व-गुरु के रूप में जाना जाता था। हम अपने प्राचीन भारतीय गणितज्ञों और खगोलविदों द्वारा विज्ञान और गणित के मूलभूत नियमों को विकसित करने में दिए गए महत्वपूर्ण योगदान को याद करते हैं। वैदिक काल से ही हमारे प्राचीन ऋषियों ने विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र, पर्यावरण आदि के क्षेत्र में कई मौलिक खोजें की हैं। इन खोजों ने आधुनिक दुनिया की नींव रखी है और दुनिया के वैज्ञानिकों को आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए सभी वैज्ञानिक सिद्धांतों के पीछे भारतीय विचार, दर्शन और वैज्ञानिक ज्ञान हैं। दुर्भाग्य से इन खोजों के लिए हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों के योगदान को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया है। हमारे ऋषियों द्वारा किए गए इस छिपे हुए ज्ञान को समाज के सामने लाना हमारा मुख्य कर्तव्य है।

भारत के प्रधानमंत्री के द्वारा महाकाल लोक के लोकार्पण ने पुनः हमें भारत की महानतम प्राचीन ज्ञान परंपरा के द्वारा विश्व गुरु बनने का शंखनाद किया है। महाकाल नगरी को पुनः काल के निर्धारण का केंद्र मानते हुए वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों को ग्रीनविच माध्य समय (जीएमटी) के स्थान पर महाकाल माध्य समय (एमएमटी) निर्धारित करने के लिए विश्वभर में इस पर चर्चा कर इसके निर्धारण के लिए प्रयत्ननशील होने की आवश्यकता है।

- डॉ राम प्रसाद प्रजापति (प्रोफेसर)
  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

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