मेरे घर लौटने पर,
जब तुम दौड़कर मेरे गले लग जाती हो,
छलक उठता है मेरे नेह का दिया,
याद आती हैं वे सारी लड़कियाँ
जो इसी उम्मीद में निहारती थी,
अपने पिता को,
और कठकरेज़ पिता मुँह फेर लेते थे,
तुम्हें अंकवार लगाते,
लगता है मैं उन सब पर नेह लुटा रहा हूँ।
तुम्हें अपने हाथों से दुलराते,
मामा, बुआ , मौसी का कौर खिलाते,
याद आती हैं वे सारी लड़कियाँ
जो भाई को पूरा आम मिलते देखती,
खुद को आम का एक टुकड़ा मिलने पर,
सारा रोष भीतर पी जाती थी,
तुम्हें पेट भर खिलाते,
लगता है उन सबको मैं उनका हिस्सा खिला रहा हूँ।
तुम्हारे नख़रे, जबरदस्तियाँ सहते,
मैं जानता हूँ कि मैं पक्षपात कर रहा हूँ,
पर मुझे याद आती हैं वे सारी,
बेटियाँ, बहनें, बहुएँ ,
जिन्होंने बिना कोई नख़रा दिखाए,
चुपचाप सहकर जीवन गुज़ार लिया था।
तुम्हारे साथ पक्षपात करके,
तुम्हारे सारे बेतुके नख़रे सहके,
मैं क़तरा क़तरा ही उऋण होता हूँ,
उस क़र्ज़ से जो सदियों से स्त्रियों ने,
चुपचाप सबकुछ सहकर,
हम पुरुषों पर लादे हैं...
-विनोद कुमार दूबे
सिंगापुर