देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

व्यंग्य चोट करता है, गुदगुदाता है | व्यंग्य  (विविध)

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Author: प्रभात गोस्वामी

साहित्य ने मुझे हमेशा आकर्षित किया है। मैं फक्कड़ भी हूँ, घुमक्कड़ भी हूँ। चिपकू भी हूँ और लपकू भी हूँ इसलिए साहित्य के लिए पूरी तरह फिट हूँ। प्यार में चोट खाकर कवि बना, फिर अपनी कहानी लिखने के लिए कहानीकार बन गया। बचपन से रुड़पट भी रहा सो यात्रा वृत्तान्त भी लिखे। मैं उस दौर का साहित्यकार हूँ जब संपादक बड़ी बेदर्दी से सर (रचना का) काटते थे और मैं कहता था – हुज़ूर अहिस्ता-अहिस्ता। कितनी ही रचनाएँ मेरी आलमारी में अस्वीकृति की पीड़ा से कराहती हुई उम्र क़ैद-सी त्रासदी का शिकार हुईं। कुछ ओझिया महाराज की कचौड़ियों के कागज़ को उपकृत करतीं रहीं। जहाँ लोग कचौड़ी और चाट के साथ मेरी रचनाओं को बड़े मन से चाटते रहे। क्या करें उन दिनों बड़े साहित्यकार घास नहीं डालते थे और सम्पादक दोस्ती नहीं करते थे। रचना छपे तो कैसे छपे?

फिर भी धक्के खा-खा कर साहित्यकार बन ही गए। आज का दौर बिलकुल ही उल्टा है। लोगों के पास पढ़ने-बांचने का समय ही नहीं। हाँ, सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पर बिना पढ़े लाइक की झड़ी लगती है। फिर उस लाइक पर लाइक पर लाइक करते हुए पूरे दिन लाइक का चीरहरण होता रहता है। ...और, हम अपनी ही रचनाओं के स्वयं ही पाठक बने हुए हैं।
हार कर हमने व्यंग्य पर बाज़ सरीखा झपट्टा मारा। पर, हमारे देखते ही देखते व्यंग्यकारों की लाइन केरोसीन और राशन लेने के लिए लगने वाली लाइन से भी बड़ी हो गई। सरकार व्यंग्य लेखन पर टैक्स लगा दे तो अच्छा राजस्व मिल सकता है! यहाँ मेरा नंबर कब आएगा? कुछ पता नहीं। हमारे यहाँ भेड़चाल सबको पसंद है। गुरुदेव की सलाह कि मंजिल तक पहुंचना है तो एक साथ झुण्ड में चलो। एक साथ झुण्ड में नहीं चल रहे होते तो इतने बड़े देश में हमें पता ही नहीं चलता कि हम कहाँ और किस दिशा में जा रहे हैं? हमने जब देखा कि देश के कोने-कोने में व्यंग्य के कोने बने हुए हैं। तब हमने किसी अनचाहे या गोद लिए बच्चे के सामान कहानी, कविता,मु क्तक को गोदी से पटक कर व्यंग्य को एक झटके में गोदी में बिठा लिया।

बाबूजी से पूछा तो उन्होंने व्यंग्य का एक पुराने ज़माने का नुस्खा पकड़ा दिया। कहा कि कोई भी पूछे कि व्यंग्य क्या है? बड़े कॉन्फिडेंस से ज़वाब देना कि-- व्यंग्य चोट करता है, गुदगुदाता है। अब हम जुट गए व्यंग्य लेखन के लिए। हम भी वही करेंगे जो देश कर रहा है। हम भी दीना के लाल की मानिंद वही खिलौना लेने के लिए मचल गए जिससे व्यंग्य के महल में सैकड़ों राजकुमार उछाल-उछल कर खेल रहे हैं!

देश में जब सब अपनी-अपनी तरह से चोट कर रहे हैं , गुदगुदा रहे हैं तो हम भी व्यंग्य के ज़रिये चोट करेंगे, गुदगुदाएँगे। पर, दुःख कि हमारे व्यंग्य से न किसी को चोट पहुंची न ही गुदगुदी हुई! अब खीजकर हमने दो-चार को मंच से नीचे पटक कर तगड़ी चोट पहुँचाईं और कुछ के गुलगुलिया चलाकर गुदगुदाया भी। हमारे व्यंग्य लिखने से कुछ विरोधी भी बन गए। हमारी रचनाओं पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते। जब हमने घर बुलाकर व्यंग्य गोष्ठी के बहाने कुछ दिग्गजों को शाल ओढाया, ग्यारह-ग्यारह सौ रूपए का टीका किया, तब जाकर उन्होंने हमारे व्यंग्य पर टिप्पणी करना शुरू किया।

कुछ राजनीति भी हमने सीखी। घर पर हर रविवार गोष्ठी के चलते हमारा अपना गुट बन गया। व्यंग्य चल पड़े चाहे वैशाखियों के सहारे से ही सही। फिर किसी दोस्त सरीखे दुश्मन ने सलाह दी कि अब एक व्यंग्य संग्रह निकालें। व्यंग्यकार के रूप में आपका मूल्यांकन तभी हो पायेगा। पहले हमको कुछ शक हुआ पर फिर लगा संग्रह आना ही चाहिए। जबरी प्रसाद भड़भूंजा ने संग्रह की भूमिका लिखने की हामी भी भर ली। शैतान नगर का एक चालू टाइप का प्रकाशक भी बता दिया। बोले सबसे सस्ता यही है। जो सस्ता है वही बिकता है।

एक दिन हमारे व्यंग्य संग्रह का पहला बण्डल छपकर घर आ गया। दादी ने पहला पंच मारते हुए बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-– पोता तो तुम मुझे दे नहीं पाए। इस संग्रह की ख़ुशी में ही आज छत पर चढ़कर थाली बजा ले। हमने कहा कि-- विमोचन के दिन ही इसकी सूरत देखेंगे। फिर क्या, विमोचन की बिसात बिछ गई। जबरी प्रसाद ने कहा कि-- हमारे कुछ धुर विरोधियों को मंच पर बैठाने का सम्मान देकर थोड़ी राजनीति करो। मंच पर उन्हें तारीफ़ करनी ही पड़ेगी। हमने विरोधी और कटु आलोचक त्रिनेत्र देव पाण्डेय, गुदगुदी शरण चौबे और खूंखार सिंह खंगारोत को क्रमशः मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि और अध्यक्ष के पद पर सुशोभित करने का निर्णय न चाहते हुए भी कर लिया।

विमोचन के लिए टाउन हॉल में सारी व्यवस्थाएँ कर लीं गईं। सौ-पचास लोगों को लंच का लालच देकर दर्शक बनाया। बढ़िया लाल पन्ने में दुल्हन सरीखी सजी हुईं किताबें थाली में लाई गईं। त्रिनेत्र देव ने कागज पर लगे रिबन को खोलकर किताब दर्शकों के सामने दिखाई। हँसी के मारे दर्शक और पत्रकार लोट-पोट हो गए। मंच पर विराजमान गुदगुदी शरण चौबे और खूंखार सिंह खंगारोत भी मन ही मन गुदगुदा रहे थे। हम ये माज़रा समझते इससे पहले ही पत्रकार झटका राम ने किसी हूटर की तरह ज़ोर से कहा-- श्रीमान किताब के पन्ने तो एकदम खाली पड़े हैं। आपके दिमाग की तरह। कुछ छपा ही नहीं। अब हमको काटो तो खून नहीं।

फिर, प्रकाशक की ओर से भेजी गई निर्मम चिट्ठी पढ़ी। लिखा था-– आदरणीय आपकी रचनाओं में व्यंग्य था ही नहीं तो कैसे छापते? हम इतने नुगरे भी नहीं। सो, आपकी दी हुई धनराशि वापस कर रहे हैं शायद आज के जलसे में काम आए! आज हमें पहलीबार पता चला कि व्यंग्य चोट करते हैं, गुदगुदाते हैं और ठहाके भी लगवाते हैं .

-प्रभात गोस्वामी, व्यंग्यकार
15/27, मालवीय नगर, जयपुर (राजस्थान)

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