एक समय था जब दुनिया के लोग बहुत सीधे-सादे और सत्यवादी होते थे। वे जो कुछ देखते थे, वही कहते थे और जो कुछ कहते थे वही करते थे।
एक बार एक आदमी ने एक आदमी से एक गाँव के एक आदमी के बारे में एक बात कही। यह बात कानों-कान कई आदमियों तक पहुँच गई। इस समाचारके कुछ और आगे बढ़ने पर लोगोंको पता लगा कि उस नामका वहाँ न कोई गाँव था, न उस नामका कोई आदमी था और न किसी आदमीने वैसा काम ही किया था, जैसा कि उस समाचारमें बताया गया था।
जिस आदमीने यह झूठा समाचार सबसे पहले फैलाया था, उसे खोज निकालने में कोई कठिनाई न हुई । लोग उसे पकड़कर उस देशके राजाके पास ले गये।
"इस आदमीने एक गाँव के एक आदमी के बारेमें एक बात कही है; लेकिन न तो उस नाम का कोई गाँव ही है, न आदमी और न किसी ने वैसा काम ही किया है, जैसा कि इसने अपनी खबर में बताया है। अनहोनी बात कहकर इसने लोगों को भुलावे में डाला है। इसे उचित दण्ड मिलना चाहिए " — लोगों ने राजा के सामने उस पर यह आरोप लगाया।
"क्या तुम जानते थे कि इस नामका कोई गाँव मौजूद है ?" महाराजने अपने न्यायासन से अपराधी से प्रश्न किया।
"नहीं महाराज!"
"क्या तुम जानते थे कि इस नाम का कोई आदमी मौजूद है ?" दूसरा प्रश्न हुआ।
"नहीं महाराज!"
"क्या तुमने किसी आदमी को वैसा काम करते देखा था, जैसा कि तुमने अपने समाचार में बताया था ?" तीसरा प्रश्न हुआ।
"नहीं महाराज!"
"तो फिर तुमने ऐसी अनहोनी खबर क्यों फैलाई?"
"महाराज !" अपराधी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की, "मैंने किसी बुरे काम की नहीं, बल्कि एक अच्छे काम की ही खबर फैलाई है--ऐसे काम की जिसे अगर कोई करे तो उससे दूसरों का बहुत भला हो और स्वयं उसका बहुत यश हो। उस काम को करने के लिए कोई न कोई आदमी चाहिए था, और उस आदमी के होने के लिए कोई न कोई गाँव भी आवश्यक था। इसलिए मैंने उस ख़बर के साथ आदमी और गाँव के नाम भी मन सोचकर जोड़ दिये थे।"
राजा असमंजस में पड़ गया। उस दिन तक किसी भी आदमी ने किसी से कोई अनहोनी या अन हुई बात नहीं कही थी और इस प्रकार के अपराध के लिए राजकीय दण्ड के नियमों में कोई व्यवस्था भी नहीं थी। यह एक सर्वथा नये ढंग का अपराध था।
उचित न्यायका आश्वासन देकर राजा ने लोगों को विदा किया और अपराधी को राजकीय बन्दीगृह में आदर और आराम के साथ रखवा दिया।
राजा ने इस नये अभियोग के सम्बन्ध में राजगुरुके साथ परामर्श किया। राजगुरु के लिए भी यह एक नये ढंग का अपराध था। उन्होंने देवराज इन्द्र के सामने यह अभियोग उपस्थित किया।
देवराज इन्द्रकी आज्ञासे देवदूतों ने भूमण्डल में पूरी छानबीन करके अपना वक्तव्य दिया, "पृथ्वी के वर्तमान कुल ८,३२,४८० ग्रामों-नगरोंमें ८०,१६,८०, ४२१ मनुष्य इस समय रह रहे हैं और उन सबने मिलकर लेखराज महाचौहान के रजिस्टरों के अनुसार, अबतक ३७, १४,५५,८०, ३५, १७,८२७ कर्म किये हैं। जिस गाँव, मनुष्य और कर्मकी खोज करनेकी हमें आज्ञा दी गई थी उन तीनोंका अस्तित्व उन गाँवों, मनुष्यों और उनके अब तक के कर्मों में कहीं भी नहीं है ।"
अभियुक्त मनुष्यका अपराध प्रमाणित हो गया। उसने सचमुच एक अस्तित्वहीन बात कही थी। मनुष्य जाति की ओर से यह पहला ही इतना विचित्र और भयंकर अपराध था। स्वयं देवराज इन्द्र भी नहीं जानते थे कि ऐसा भी अपराध कोई मनुष्य कर सकता है। इस अपराधका प्रभाव कितना व्यापक हो सकता है और इसका दण्ड क्या होना चाहिए, इसी सोच में वे पड़ गये।
अपनी सहायता के लिए इन्द्र ने धर्मराज यम की ओर दृष्टि फेरी और कुछ देर तक टकटकी लगाये उनकी ओर देखते रहे; किन्तु यमराज स्वयं इस नई पहेली की गुत्थियोंमें उलझ गये थे और उनकी दण्ड-व्यवस्था की कोई भी धारा इस अपराधी पर लागू नहीं हो रही थी। लाचार वह भी गर्दन घुमाये दूसरी ओर को इस प्रकार देखने लगे जैसे उन्हें इन्द्र के देखनेकी खबर ही न हुई हो!
"अपराधीका अपराध गम्भीर है," देवराज इन्द्रने कहा।" उस पर कोई निर्णय देने के पहले हमें देवगुरु का परामर्श लेना होगा।"
देवगुरु बृहस्पति को उसी समय देव सभा में आमंत्रित किया गया।
"आपने भूलोककी छान-बीन करा ली है," बृहस्पति देव ने अभियोग की सारी कथा सुन चुकने के पश्चात् कहा, "लेकिन क्या भुवर्लोक और स्वर्ग-लोक की भी छान-बीन कराकर आपने निश्चय कर लिया है कि इन लोकों में भी उस नाम का कोई गाँव, उस नाम का कोई व्यक्ति और उस प्रकार का कोई किया हुआ कर्म नहीं है ?"
देवगुरुके इस प्रश्न से सारी देव-सभा सोच-विचार में पड़ गई। साधारणतया मनुष्यों के कार्यों से स्वर्ग और भुवर्लोक कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए था।
'अपराध में कहे हुए नामों का कोई गाँव, कोई व्यक्ति और कोई कर्म स्वर्ग और भुवर्लोक में निर्मित नहीं हुआ।" स्वर्ग और भुवर्लोक के तत्सम्बन्धी विभागों के अधिकारियों ने उत्तर दिया।
"अधिक अच्छा हो कि आप लोग इन बातों की खोज एक बार और अपने लोक में कर लें।” देवगुरु ने मुसकराते हुए कहा।
देवगुरुके आदेश का पालन हुआ। अनेक कामदूत और देवदूत इस खोज के लिए छोड़ दिये गये।
अगले दिन देव सभा में उन्होंने आकर सूचना दी कि स्वर्ग और भुवर्लोक दोनों में उस नाम का गाँव, और उस नाम का व्यक्ति विद्यमान है और उसने सचमुच उस प्रकार का कर्म किया है।
सारी देव सभा इस समाचार से स्तब्ध रह गई। देवगुरु ने कनखियों से देखते हुए एक व्यंग्यपूर्ण मुसकान उन अधिकारियों की ओर डाली जिन्होंने पिछले दिन विपरीत उत्तर दिया था।
"किन्तु गुरुदेव!" उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमने तो अपने लोकों में वैसे किसी गाँव, व्यक्ति या कर्म का निर्माण नहीं किया।" बृहस्पतिदेव का स्वभावसिद्ध सुकोमल अट्टहास देव सभा में गूंज उठा।
"आप अकेले ही ब्रह्मा के सहकारी, सृष्टि के निर्माता नहीं हैं, मनुष्य भी उनका सहकारी और आपका सहयोगी है। जिस प्रकार ब्रह्माजी अपने संकल्प-बल से और आप लोग अपने ध्यान-बल से रचना के विविध रूपों का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का भी काम है कि वह अपने कल्पना-बल से वस्तुओं का निर्माण करे। वह आपका समकक्ष है और आपके लोकों के निर्माण में भी उसका प्रायः उतना ही हाथ है, जितना उसके लोक के निर्माण में आपका। जिस मनुष्य को आप अपराधी के रूप में अपने सामने रखे हुए हैं, वह मनुष्य जाति में ब्रह्मा का विशेष पुत्र और मनुष्य जाति का प्रधान शिक्षक है। कल्पना उसका कार्योपकरण है और कहानीकार उसका जातिवाचक नाम है। आपका अभियुक्त मनुष्य जाति में पहला पूजनीय कहानीकार और ब्रह्मा का सर्वप्रथम सह-निर्माता है !"
कहते हैं कि देवताओं और मनुष्यों के भी आगामी बृहत्तम शब्द-कोश में 'झूठ' के अर्थ का कोई शब्द नहीं है और जो कुछ भी मनुष्य के मुख से निकल सकता है, उसका मूर्त अस्तित्व कहीं न कहीं अवश्य होता है।
-रावी