कहावत है, 'पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला।' जो उजाड़ हो जाते हैं, जो खाली हो जाते हैं, जिनके पास दूसरे को देने के लिए कुछ नहीं बचता, जो भाव शून्य होते हैं, लोग उनसे धीरे..धीरे किनारा कर लेते हैं। जिनमें देश और संस्था प्रेम तो छोड़ो, किसी के लिए भी कोई प्रेम भाव शेष नहीं रहता, उन जैसों के लिए ही लिखा गया होगा--
जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रस-धार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
ऐसों के लिए देश गया तेल लेने, वे तो अपने इसके उसके लोगों को ही भाव नहीं देते, फिर समाज की कौन कहे!
सूखे ठूंठ पर भला कौन बसेरा बनाना चाहता है, पक्षी तक उसकी फुनगी पर बैठना पसंद नहीं करते, उड़ कर कहीं दूसरा ठिकाना खोज लेते हैं। सूखे पेड़ की दुर्दशा पर दुख तो प्रकट किया जा सकता है लेकिन उसके साथ बने रहना सबके बस का नहीं होता। पर यदि उस ठूंठ में जिजीविषा बाकी हो, कोई हरापन कहीं शेष रह गया हो तो फिर से सूखे तने पर छोटे छोटे पत्ते फूटने लगते हैं , सब हरा भरा हो जाता है। तो अपने अंदर कुछ सपने बचा कर रखिए जरूर कि जब सब छुट जाए तो ये बचा कुचा साहस बहुत काम आता है। जब तक शरीर में ताकत होती है, व्यक्ति अंधाधुंध दौड़ता है, सब अपने पेट में भरना चाहता है लेकिन ऐसा कर नहीं पाता, कर भी नहीं सकता। हर की अपनी सीमाएं होती हैं। जो बिना सोचे समझे, बिना लक्ष्य निर्धारण किए दौड़ते हैं उनके हाथ कुछ नहीं आता, और शक्ति भी समाप्त प्राय हो जाती है। वे बिल्कुल शून्य हो जाते हैं। जो हाथ हमेशा देने के लिए उठते थे, उन्हें आज पसारने की नौबत आ जाती है। इष्ट मित्र साथ छोड़ने लगते हैं और आप बिल्कुल खाली खाली से हो जाते हैं, दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं। खाली हाथ तो भला अपने भी नहीं पूछते ,फिर दूसरों के विषय में तो सोचना ही फिजूल है।
ये खालीपन केवल धन दौलत का ही नहीं हुआ करता, शक्ति हीन होने का भी होता है। खाली कुए को भला कौन पूछता है, पतझड़ हो चुके वृक्षों पर किसकी दृष्टि जाती है भला, खाली डब्बा खाली बोतल किसके होते हैं भला। हुनर हीनों को कोई क्यों पूछे भला। उनसे भला किसी का क्या फायदा। दुधारू पशु की तो लात भी सही जाती है पर जैसे ही वह दूध देने योग्य नहीं रहतीं, उसे किनारे कर दिया जाता है। बैल तभी तक उपयोगी रहते हैं जब तक वे गाड़ी में जुते रहते हैं, उनकी खातिर दारी भी तभी तक होती है, बाद में तो उनके लिए सूखे भूसे के भी लाले पड़ जाते हैं, अंकोर की कौन कहे! ...तो खुद आगे बढ़कर स्वयं को सहेजिए। अपनी शक्ति को बचा कर रखिए, अपने हुनर को जिन्दा रखिए, सबके लिए उपयोगी बने रहिए लेकिन दूसरों के हाथ का खिलौना बन कर मत रह जाइए। समझ लीजिए बकत आदमी के काम की होती है, उसके हुनर की होती है। काम ही सबको पसंद होता है, चाम नहीं, कोरी लंबी चौड़ी बातें नहीं। आपकी चिकनी चुपड़ी बातों का राज बहुत जल्दी खुल जाता है। तो बातों के भरोसे ही मत बैठे रहिए जनाब, काम कीजिए काम। जब कुछ भी शेष नहीं होगा तब काम ही आपके काम आयेगा। आपकी मेहनत ही रंग लायेगी। काम ही आपको इज्जत दिलाता है। काम ही से वाह वाही मिलती है, शाबासी मिलती है, पीठ ठोकी जाती है, सराहना मिलती है। लोग आपके काम को सराहते हैं, आपको सिर आंखों पर बिठाते हैं, आपको पूजने की हद तक मान देते हैं।
ये कमाई एक दिन में नहीं हुआ करती, वर्षो की मेहनत का परिणाम होती है। अपने को भरापूरा बनाए रखना बहुत बहुत ज़रूरी होता है। कुछ ऐसा हुनर, कोई ऐसी जिजीविषा जरूर बचाए रखिए जिससे आप सदाबहार बने रहें। जो पूरी तरह खाली हो जाते हैं, टूटे सामान हो जाते हैं, वे कबाड़ में फेंक दिए जाते हैं। जीते तो वे भी हैं पर हर क्षण मर मर कर। उनके मन में कोई उत्साह ही नहीं बचता। जिंदगी को इतना नीरस भी मत बनाइए साहब। जिंदगी बार बार नहीं मिला करती तो उसे भरपूर जीना ज़रूरी है, सब ख़त्म होने पर भी जो कुछ बचा रहता है, वह बड़े काम का होता है। तो उस महत्वपूर्ण को जरूर पकड़े रहिए, उसे हाथ से खिसकने मत दीजिए। सूखे ठूंठ मत बन जाइए, अपने हरेपन को जिन्दा बनाएं रखिए, मनोबल को ऊंचा रखिए, सब सध जाता है। आप ही साधते हैं, दूसरा कोई हथेली लगाने नहीं आता। याद होगा स्वर्ग अपने मरे ही दिखता है। तो बने रहते हैं हरे भरे, संवेदनाओं से भरे पूरे।
-प्रो. बीना शर्मा
[ सफर जारी है ]