(1)
प्रातःकाल महाराज उठे उन्होंने आज्ञा दी, कि शाही दरवाज़े के भिक्षुकों को सम्मान से हमारे सामने पेश किया जाये।
उस रात उसने एक अनुपम सपना देखा था, और उसकी याद अभी तक उसकी आँखों में चमक रही थी। इसलिए उसने उन भिक्षुकों को कृरादृष्टि से देखा, और उनमें से हर एक को सोने की एक-एक सौ मोहर दान दी। सारे शहर में जय-जयकार होने लगा।
( 2 )
उसी शहर में एक गरीब किसान रहता था, जिसे दिन-रात के परिश्रम के बाद केवल खाने-पीने को ही प्राप्त होता था।
दोपहर के समय किसान ने अपनी स्त्री से कहा- "मेरा भाई मर गया है। अब उसके अनाथ बच्चे को भी हमें पालना होगा।"
"मगर" किसान को स्त्री ने कहा -"हम गरीब हैं। हमें तो दोनों समय खाना भी मुश्किल से मिलता है।"
किसान ने उत्तर दिया – “कोई चिन्ता नहीं। हम थोड़ा-थोड़ा करके तीनों खा लेंगे ।"
( 3 )
रात को जब आकाश पर देवताओं की सभा हुई, और दिन का हिसाब-किताब हुआ, तो उन्होंने निर्णय किया कि “किसान के दान के सामने महाराजा के दान का कुछ भी महत्त्व नहीं है।
[यह कहानी मूल रूप से रूस के एक कथाकार ने लिखी थी। हिंदी कथाकार सुदर्शन की एक पुस्तक में भी इसका उल्लेख किया गया है। ]