यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।

शर्त (कथा-कहानी)

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Author: एन्तॉन चेखव

शरद की उस गहन अंधेरी रात में एक वृद्ध साहूकार महाजन अपने अध्ययनकक्ष में चहलकदमी कर रहा था। उसे याद आ रही थी 15 वर्ष पहले की शरद पूर्णिमा की वह रात जब उसने एक दावत दी थी। उस पार्टी में कई विद्वान व्यक्ति आए हुए थे और बड़ी रोचक बातचीत चल रही थी। अन्य विषयों के बीच बात मृत्यु-दंड पर आ गई। मेहमानों में कई विद्वान व्यक्ति तथा पत्रकार भी थे जो मृत्युदंड के विरोध में थे और मानते थे कि यह प्रथा समाप्त हो जानी चाहिये क्योंकि वह सभ्य समाज के लिये अशोभनीय तथा अनैतिक है। उनमें कुछ लोगों का कहना था कि मृत्युदंड के स्थान पर आजीवन कारावास की सजा पर्याप्त होनी चाहिये।

गृहस्वामी ने कहा ''मैं इस से असहमत हूं। वैसे न तो मुझे मृत्युदंड का ही अनुभव है और न ही मैं आजीवन कैद के बारे में ही कुछ जानता हूं। पर मेरे विचार में मृत्युदंड आजीवन कारावास से अधिक नैतिक तथा मानवीय है। फंसी से तो अभियुक्त की तत्काल मृत्यु हो जाती है पर आजन्म कारावास तो धीरे धीरे मृत्यु तक ले जाता है। अब बतलाइये किसको अधिक दयालू और मानवीय कहा जायेगा?जो कुछ ही पलों में ही जीवन समाप्त कर दे या धीरे धीरे तरसा तरसा कर मारे ?''

एक अतिथि बोला '' दोनो ही अनैतिक हैं क्योंकि ध्येय तो दोनो का एक ही है जीवन को समाप्त कर देना और सरकार परमेंश्वर तो है नहीं। उसको यह अधिकार नहीं होना चाहिये कि जिसे वह ले तो ले पर वापिस न कर सके।''

वहीं उन अतिथियों में एक पच्चीस वर्षीय युवा वकील भी था। उसकी राय पूछे जाने पर वह कहने लगा '' मृंत्यदंड या आजीवन कारावास दोनो ही अनैतिक हैं। किन्तु यदि मुझे दोनो में से एक को चुनने का अवसर मिले तो मैं तो आजन्म कारावास ही को चाहूंगा। न जीने से तो किसी तरह का जीवन हो उसे ही मैं बेहतर समझूंगा।''

इस पर काफी जोशीली बहस छिड ग़ई। वह साहूकार महाजन जो कि गृहस्वामी था और उस समय जवान था और अत्यंत अधीर प्रकृति का था एकदम क्रोधित हो गया। ऊसने अपने हाथ की मुठ्ठी को जोर से मेज़ पर पटका और चिल्ला कर कहने लगा '' तुम झूंठ बोल रहे हो। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं कि तुम इस प्रकार काराग्रह में पांच साल भी नहीं रह सकोगे।''

इस पर युवा वकील बोला '' यदि तुम शर्त लगते हो तो मैं भी शर्तिया कहता हूं कि पांच तो क्या मैं पन्दरह साल रह कर दिखला सकता हूं। बोलो क्या शर्त है?''

'' पंद्रह साल। मुझे मंजूर है। मैं दो करोड़ रूपये दांव पर लगाता हूं।''

'' बात पक्की हुई। तुम दो करोड़ रूपये लगा रहे हो और मैं पंदरह साल की अपनी स्वतंत्रता को दांव पर रख रहा हूं। अब तुम मुकर नहीं सकते।'' युवा वकील ने कहा।

इस प्रकार यह बेहूदी ऊट-पटांग शर्त लग गई। उस साहूकार के पास उस समय कितने करोड़ रूपये थे जिनके बल पर वह घमंड में फूला नहीं समाता था। वह काफी बिगड़ा हुआ और सनकी किस्म का आदमी था। खाना खाते समय वह उस युवा वकील से मजाक में कहने लगा '' अरे अभी भी समय है चेत जाओ। मेरे लिये तो दो करोड़ रूपये कुछ भी नहीं हैं। पर तुम्हारे लिये अपने जीवन के तीन या चार सबसे कीमती वर्ष खोना बहुत बड़ी चीज है। मै तीन या चार साल इस लिये कह रहा हूं कि मुझे पूरा विश्वास है कि इससे अधिक तुम रह ही नहीं पाओगे। यह भी मत भूलो कि स्वेच्छा तथा बंधन में बड़ा अंतर है। जब यह विचार तुम्हारे मन में आयेगा कि तुम जब चाहो मुक्ति पा सकते हो तो वह तुम्हारे जेल के जीवन को पूरी तरह जहन्नुम बना देगा। मुझे तो तुम पर बड़ा तरस आ रहा है।''

और आज वह साहूकार उन पिछले दिनों की बात सोच रहा था। उसने अपने आप से पूछा ''मैंने क्यों ऐसी शर्त लगाई थी? उससे किसका लाभ हुआ? उस वकील ने तो अपने जीवन के 15 महत्वपूर्ण वर्ष नष्ट कर दिये और मैंने अपने दो करोड़ रूपये फेंक दिये। क्या इससे लोग यह मान जायेंगे कि मृत्युदंड से आजीवन कारागार बेहतर है या नहीं? यह सब बकवास है। मेरे अन्दर तो यह एक अमीर आदमी की सनक थी और उस वकील के लिये वह अमीर होने की एक मदांध लालसा।

उसे यह भी याद आया कि उस पार्टी के बाद यह तय हुआ था कि वह वकील अपने कारावास के दिन सख्त निगरानी तथा सतर्कता के अंदर उस साहूकार के बगीचे वाले खंड में रखा जाएगा। यह भी तय हो गया था कि जब तक वह इस कारागार में है वह किसी से भी नहीं मिल सकेगा न किसी से बात ही कर पायेगा। उसे कोई अखबार भी नहीं मिलेंगे और न ही किसी के पत्र मिल सकेंगे। हां उसको एक वाद्य यंत्र दिया जा सकता है। पढ़ने के लिये उसे पुस्तकें मिल जाएंगी और वह पत्र भी लिख सकेगा। शराब पी सकता है और धूम्रपान भी कर सकता है। यह मान लिया गया कि बाहर की दुनिया से संपर्क के लिये वह केवल वहां बनी हुई खिड़की में से चुपचाप अपने लिखित नोट भेज सकेगा। हर आवश्यकता की चीज ज़ैसे पुस्तकें संगीत शराब इत्यादि वह जितनी चाहे उसी खिड़की में से ले सकता है। एग्रीमेंट में हर छोटी से छोटी बात को ध्यान में रखा गया था। इस कारण वह कारावास एकदम काल-कोठरी के समान हो गई थी और उसमें उस वकील को 14 नवंबर 1870 के 12 बजे रात से 14 नवंबर 1885 की रात को बारह बजे तक पूरे पंद्रह साल रहना था। उसमें किसी भी प्रकार की भी खामी होने से चाहे वह दो मिनट की भी हो साहूकार दो करोड़ रूपये देने के दायित्व से मुक्त कर दिया जायेगा।

इस कारावास के पहले साल में ज़हां तक उसके लिखे पर्चों से पता लगा उसने अकेलापन तथा ऊब महसूस की। रात दिन उसके कक्ष से पियानो की आवाजें आती थी। उसने शराब तथा तम्बाकू त्याग दिये और लिखा कि ये वस्तुएं उसकी वासनाओं को जागृत करती हैं और ये इच्छाएं तथा वासनाएं ही तो एक बन्दी की मुख्य शत्रु हैं। अकेले बढ़िया शराब पीने में भी कोई मजा नहीं। सिगरेट से कमरे में धुआं फैल जाता है और वहां का वातावरण दूषित हो जाता है। पहले वर्ष में उसने हलकी-फुलकी किताबें पढीं ज़िनमें अधिकतर सुखान्तक, क़ामोत्तेजक, अपराध - संबंधी या इसी तरह के उपन्यास थे।

दूसरे वर्ष में पियानो बजना बंद हो गया और बंदी ने अधिकतर उत्कृष्ट तथा शास्त्रीय साहित्य में रूचि ली। पांचवे वर्ष में फिर संगीत सुना जाने लगा तथा शराब की भी मांग आई। खिड़की से झांक कर देखा गया कि वह अधिकतर खाने पीने तथा सोने में ही अपना समय बिताता रहा। अक्सर वह जंभाइयें लेते हुए देखा गया और कभी कभी अपने आप से गुस्से में बोलता रहता। पढ़ना भी उसका बहुत कम हो गया था। कभी कभी रात्रि में लिखने बैठ जाता और बहुत देर तक लिखता रहता और सुबह को वह सब लिखा हुआ फाड़ क़र फेंक देता। कई बार उसको रोते हुए भी देखा गया था।

औेर छटे साल के अंत में उसने भाषा साहित्य दर्शर्नशास्त्र तथा इतिहास में रूचि लेना आरंभ कर दिया। वह बड़ी तेजी से पढता रहा और यहां तक कि साहूकार को उसकी पुस्तकों की मांग को पूरा करना कठिन हो गया। चार वषों में उसकी मांग पर कम से कम छ सौ पुस्तकें पहुंचाई गईं। इसी मांग के दौरान उसने साहूकार को लिखा '' मेरे प्रिय जेलर, मैं यह पत्र छ: भाषाओं में लिख रहा हूं। इसको विविध विशेषज्ञों को दिखला कर उनकी राय लीजिये और यदि इसमें एक भी गलती न हो तो अपने उद्यान में बन्दूक चला दीजियेगा जिससे मुझे यह ज्ञात हो जाये कि मेरी मेहनत बेकार नहीं गई है। विभिन्न देशों और कालों के प्रतिभाशाली जिज्ञासु अपनी अपनी भावनाओं को विभिन्न भाषाओं में लिख गये हैं। पर उन सब में वही ज्योति जगमगाती है। काश! आप मेरे इस दिव्य आनन्द को जैसा कि मुझे इस समय मिल रहा है समझ सकें। कैदी की इच्छा पूरी की गई और साहूकार के आदेश पर उसके उद्यान में दो गोलियां दागी गईं।

दस साल के बाद वह बंदी अपनी मेज़ क़े सामने जड अवस्था में बैठा-बैठा केवल बाइबिल का न्यू टेस्टामेंट पढता रहता। साहूकार को यह बड़ा अजीब लगा कि जब उसने चार सालों में 600 पांडित्यपूर्ण पुस्तकों को पढ क़र उन पर पूरी तरह कुशलता प्राप्त कर ली थी तो कैसे वह पूरे एक साल तक न्यू टेस्टामेंट ही पढता रहा है जोकि छोटी सी पुस्तक है। उसमें उसने क्या देखा? न्यू टेस्टामेंट के बाद उसने धर्मो का इतिहास तथा ब्रह्म-विद्या पढ़ना शुरू किया।

अपने कारावास के अंतिम दो सालों में उसने असाधारण रूप से जो कुछ भी उसकी समझ में आया अंधाधुंध पढा। पहले तो उसने प्राकृतिक विज्ञान में ध्यान लगाया। उसके बाद बायरन तथा शेक्सपीयर को पढा। फिर उसके पास से रसायन शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र की मांग आई। एक उपन्यास और फिलोसोफी तथा थियोलोजी पर विवेचना भी उसकी मांगों में थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी सागर में बहता जा रहा है और उसके चारों ओर किसी भग्नावशेष के टुकडे बिखरे पड़े हैं और उनको वह अपने जीवन की रक्षा के लिये एक के बाद एक चुनता जा रहा है।

साहूकार यह सब याद करता जा रहा था और सोच रहा था कि ''कल वह दिन भी आ रहा है जब इकरारनामे के मुताबिक कैदी को उसकी मुक्ति मिल जायेगी और मुझे दो करोड़ रूपये देने पड़ ज़ाएंगे। और अगर मुझको यह सब देना पड़ेगा तब मैं तो कंगाल हो जाऊंगा।''

पंद्रह वर्ष पहले जब यह शर्त लगाई गई थी तब तो इस साहूकार के पास बेहिसाब दौलत थी। पर वह सब धन तो उसने सट्टे और जुए में गंवा दिया। जिस लत को वह छोड़ ही नहीं सका और उसका सारा कारोबार नष्ट हो गया है। अपने धन के मद में चूर वह घमंडी साहूकार अब साधारण श्रेणी में आ गया है जो कि छोटे से छोटे घाटे को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता और घबरा जाता है।

अपने सिर को पकड़ क़र वह सोचने लगा '' मैंने क्या बेवकूफी की थी उस समय? और वह बेवेकूफ वकील जेल में मरा भी तो नहीं। वह तो केवल चालीस वर्ष का ही है और अब वह मुझसे पाई-पाई निकलवा लेगा और मेरे उस धन पर ऐश करेगा शादी करके मजे लूटेगा सट्टा खेलेगा और मैं उसके सामने भिखारी बन कर उसके ताने सुनता रहूंगा कि 'मुझे यह सुख तुमने ही दिया है और उसके लिये मैं तुम्हारा आभारी हूं। मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?' नहीं! इसको मैं कैसे सह सकूंगा? इस जिल्लत से छुटकारा पाने के लिये कैदी को मरना ही होगा।''

घड़ी में तीन बजाये थे। साहूकार जागा हुआ सुन रहा था। बाकी घर के सब लोग सो रहे थे। सारा वातावरण सूनसान था सिवाय पेडों की सांय-सांय की आवाज क़े। बिना कोई आवाज किये उसने अपनी तिजोरी में से वह चाभी निकाली जिससे उस कैदी का कमरा पंद्रह साल पहले बन्द किया गया था। उसके बाद वह अपना ओवरकोट पहन कर अपने घर से बाहर निकला। बगीचे में बड़ी ठंड थी और बाहर घटाटोप अंधकार था। बारिश भी हो रही थी। तेजी से हवा में पेड़ झूम रहे थे। कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था और वह टटोलते टतोलते बंदीग्रह तक पहुंचा। वहां उसने चौकीदार को दो आवाज लगाईं पर कोई उत्तर नहीं मिला। ऐसा लगता है कि चौकीदार खराब मौसम के कारण कहीं छिपा बैठा होगा।

साहूकार ने सोचा कि ''यदि मुझ में अपने इरादे को पूरा करना है तो हिम्मत से काम लेना होगा। इस सारे मामले में सुबह तो चौकीदार पर ही जायेगा।''

अंधेरे में उसने सीढ़ियों को ढूंढा और फिर बगीचे के हाल में घुस गया। उसके बाद वह एक गलियारे में से होकर बंदी के द्वार तक पहुंचा और वहां जाकर अपनी माचिस जलाई। उसने देखा कि ताले पर लगी हुई सील ठीक तरह सुरक्षित है। माचिस बुझ जाने के बाद उसने कांपते और घबराते हुए खिड़की में झांका और देखा कि बंदी के कक्ष में एक मोमबत्ती जल रही है जिससे हलकी रोशनी है। बंदी अपनी मेज़ क़े सामने बैठा था और उसकी पीठ उसके हाथ तथा बाल दिखलाई पड़ रहे थे। वहां उसके पास की कुरसी तथा चारपाई पर पुस्तकें बिखरी पड़ी थीं।

पांच मिनट बीत गये और इस बीच में बंदी एक बार भी नहीं हिला डुला। 15 वर्ष के कारावास ने उसे बिना हिले डुले बैठा रहना सिखा दिया था। साहूकार ने खिड़की पर खट-खट आवाज क़ी पर फिर भी कैदी ने कोई हरकत नहीं की। तब उस साहूकार ने बड़ी सतर्कता से उसके दरवाजे क़ी सील तोडी और ताले में अपनी चाभी डाली। ताले में जंग़ लगा हुआ था पर कुछ जोर लगाने पर वह खुल गया। साहूकार सोच रहा था कि इस के बाद तो वह बंदी चौंक कर उठेगा। पर सब कुछ वैसे ही शांत रहा। तब कुछ देर रूक कर वह कमरे में घुसा।

उसने देखा कि कुरसी पर मेज़ क़े सामने जो मानवाकृति बैठी है वह केवल एक ढांचा मात्र ही है जो खाल से ढकी हुई है। उसके बाल औरतों जैसे लंबे हैं और मुख पर लंबी दाढ़ी है। उसके हाथ जिन से वह अपने सिर को सहारा दिये बैठा है कंकाल की तरह है जिसे देख कर भी डर लगता है। सारे बाल चांदी की तरह सफेद हो चुके हैं। उसे देख कर किसी को विश्वास ही नहीं हो सकता था कि वह केवल चालीस वर्ष का है। उसके सामने मेज़ पर एक कागज पडा हुआ था जिस पर कुछ लिखा भी था।

साहूकार सोचने लगा ''बेचारा सो रहा है। शायद वह अपने सपनों में उन करोड़ों रूपयों को देख रहा है जो कि उसे मुझ से मिलेंगे। पर मैं समझता हूं कि इसको मैं बिस्तर पर फेंक कर तकिये से दबा दूंगा तो उसकी सांस रूक जायेगी। फिर कोई भी यह पता नहीं लगा सकेगा कि उसकी मौत कैसे हुई। सब इसे प्राकृतिक मृत्यु ही समझेंगे। लेकिन इससे पहले मैं यह तो देख लूं कि इस कागज में उसने क्या लिखा है?''

यह सोच कर साहूकार ने मेज़ पर से वह कागज उठाया और पढ़ने लगा। '' कल रात को 12 बजे मुझे मेरी मुक्ति मिल जायेगी तथा सब लोगों से मिल पाने का अधिकार भी मिल जायेगा। लेकिन यह कमरा छोड़ने और सूर्य देवता के दर्शन करने से पहले मैं समझता हूं कि आप सबके लिये अपने विचार लिपिबद्ध कर दूं। परमेश्वर जो मुझे देख रहा है उसको साक्षी करके और अपने अंतकरण से मैं यह कह रहा हूं कि अपनी यह मुक्ति अपना यह जीवन, स्वास्थ्य तथा अन्य सब कुछ जिसे संसार में वरदान कहा जाता है इन सब से मुझे विरक्ति हो गई है।
इन 15 वर्षों में मैंने इस सांसारिक जीवन का गहन अध्ययन किया है। यह तो सत्य है कि न तो मैंने पृथ्वी या उस पर रहने वालो को देखा है पर उनकी लिखी पुस्तकों से मैंने सुगन्धित सुरा का पान किया है मधुर संगीत का स्वाद लिया है और जंगलो में हिरनों तथा जंगली जानवरों का शिकार किया है। रमणियों से प्यार किया है। और ऐसी रमणियां जो कि अलौकिक बादलों में कवियों की कल्पना में रहती हैं। रात में प्रतिभाशाली व्यक्ति मेरे पास आकर तरह तरह की कहानियां सुनाते थे जिनको सुन कर मैं मदमस्त हो जाता था। वे पुस्तकें मुझे पहाड़ों की उँचाइये तक ले जाती थीं और मैं माउन्ट ब्लैंक तथा माउन्ट एवेरेस्ट तक की सैर कर आता था। वहां से सूर्योदय तथा सूर्यास्त के दर्शन कर लेता था। महासागर तथा पहाड़ों की चोटियों में मैं विचर सकता था। मैं देख पाता था कि किस प्रकार आकाश में बिजली चमक कर बादलों को फाड़ देती है। मैंने हरे भरे जंगल तथा खेतों को नदियों झीलों तथा शहरो को देखा। जलपरियों को गाते हुए सुना। एक सुन्दर दानव को अपने पास आते हुए देखा। यह पुस्तकें मुझे अथाह अगाध सीमा तक ले जातीं और अनेक चमत्कार दिखलातीं। शहर जलते और भस्म होते देखे। नये-नये धर्मों के प्रचारकों को सुना और कितने देशों पर विजय प्राप्त की।

इन पुस्तकों से मुझे बहुत ज्ञान मिला। मानव की अटल विचारधारा जो कि सदियों में संचित हुई है मेरे मस्तिष्क में एक ग्रंथी बन गई है और अब मैं जानता हूं कि आप सब लोगों से मैं अधिक चतुर हूं। फिर भी इन पुस्तकों को तुच्छ समझता हूं और यह जान कर कि संसार का सारा ज्ञान तथा वरदान व्यर्थ है मैं उनकी उपेक्षा करता हूं। यहां हर चीज मृग-मरीचिका के समान क्षण भंगुर है काल्पनिक है। आप लोग इस सौन्दर्य तथा अथाह भंडार पर गर्व कर सकते हैं पर मृत्यु के गाल में पड़ क़र इस संसार से सब उसी तरह चले जाएंगे जैसे कि अपने बिलों में रहते हुए चूहे चले जाते हैं। तुम्हारा सारा इतिहास और मानव का सारा ज्ञान पृथ्वी के गर्त में समा जायेगा। मेरे विचार से तुम सब मदांध हो रहे हो और सच को झूठ और बदसूरती को सौन्दर्य समझ रहे हो। तुमने पृथ्वी के सुखों के लिये स्वर्ग को गिरवी रख दिया है या उसे बेच दिया है। इस लिये उन सब सुखों के त्याग के लिये मैंने तय कर लिया है कि अपने कारावास की समाप्ति से पांच मिनट पहले ही निकल जाऊंगा और आजीवन सन्यास ले लूंगा जिससे कि साहूकार अपना धन अपने पास रख सके।

साहूकार ने उस पत्र को पढ़ने के बाद वहीं मेज़ पर रख दिया और उस अद्भुत व्यक्ति के सर को चूम कर रोने लगा। फिर वहां से चला गया। उसे अपने ऊपर इतनी ग्लानि हो रही थी जैसी पहले कभी भी नहीं हुई। अपने कमरे में आकर वह बिस्तर पर लेट गया पर उसे अपने हृदय में मलाल के कारण न तो बहुत देर तक नींद ही आई और न ही उसके आंसू रुके।

अगले दिन प्रातः बेचारा चौकीदार भागता हुआ आया और उसने बतलाया कि वह बंदी खिड़की में से कूद कर फाटक के बाहर चला गया। अफवाहों से बचने के लिये साहूकार ने बंदी के कक्ष में जाकर मेज़ पर पड़े उस सन्यास वाले कागज क़ो उठा लिया और अपनी तिजोरी में सदा के लिये बंद कर दिया।

- एन्तॉन चेखव
[‘द बेट' (The Bet) कहानी का अनुवाद। ]

एन्तॉन पेवलोविच चेखोव ( 1860 - 1904 ) ने मास्को विश्वविद्यालय से चिकित्सा शास्त्र में डिग्री प्राप्त की। आरंभ में चेखोव ने हास्य-लेख लेखन किया व शीघ्र ही वह संसार का एक अत्यंत सफल लघु कथा लेखक बन गया।

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