आक्रोश घेर रहा था दीवारों में...परन्तु दीवारे इतनी मज़बूत थी...कभी निकल ना पाओ...कभी रह ना पाओ!! दर्द भी जेब में खनक रहा था, सर और शरीर दोनों टूटने को तैयार थे ...!
बहुत मज़ा आ रहा था अहंकार को....द्वेष को...क्लेश को। इंसान टूट चुका था..आँखे नम थी.. फिर वापस याद आयी बेटी...! ..और वो कमाने निकल पड़ा..
- केतन कोकिल ई-मेल: ketan.kokil@gmail.com
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