अकड़ के बोली गोल जलेबी, मुझसा कौन रसीला ? मुझको चाहे सारी दुनिया, गाँव, शहर, क़बीला !
रबड़ी बोली , चुप कर झूठी! मुझको क्या बतलाती, मुझको पाकर सारी दुनिया, बर्तन चट कर जाती !
काला जाम हँसा हो-हो कर, नहीं मिसाल हमारी, जिसका काला रंग हो उसपर, मरती दुनिया सारी !
सावन के बादल हैं काले, काले कृष्ण हैं, काले राम, जितना काला उतना मीठा, सबसे बढ़िया काला जाम !
रसगुल्ले ने देखा सबको, हलकी सी मुस्कान भरी, मुझे चाहते राजा-रानी, बच्चे, बूढ़े और परी !
दूध बीच में आकर बोला, मत अब करो बड़ाई, मेरे ही कारण तुम सबने, अपनी शान बढ़ाई !
मेरे घी में तली जलेबी, मुझसे बनती रबड़ी, काला जाम बने खोये से, क्यों डींग हांकता तगड़ी !
मुझसे ही छेना बनता है, छेने से रसगुल्ला, क्यों बघारते हो तुम शेखी, यूं ही खुल्लमखुल्ला !
मैं हूँ पिता तुम्हारा तुम सब मुझको करो प्रणाम, मिलकर रहना भाई, बहनों, जाओ करो आराम !
-प्रणेन्द्र नाथ मिश्रा pnmmnp@gmail.com
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