रंजिश ही सही ग़म को भुलाने के लिए आज! करूणा और दुख के कवि ग़ालिब
इस में कोई दो राय नहीं है कि ग़ालिब का जादू सर चढ़ कर बोलता है और उनके शेरों पर आज लोग सर धुनते हैं। ‘‘बला-ए-जां है गालिब उसकी हर बात/इबारत क्या, इशारत क्या, अदा क्या।'' जिन लोगों ने मिर्ज़ा ग़ालिब को देखा था, उनका कहना था कि मिज़ा सुर्ख-ओ-सफेद तुर्किया रंगत के बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे। शख्सियत बडी ही रौबदार थी।
यूं तो मिर्जा ग़ालिब लगभग फ़क़ीर थे मगर मिज़ाज़ अवश्य नवाबी था, अतः पूर्ण जीवन फ़क़ीराना शहंशाही के साथ गुज़रा। उनका पहनावा, पोशाक, खान-पान, कपड़ा लत्ता, जूता आदि सभी ऐसे थे कि उनसे शहंशाही टपकती थी। बावजूद इस के कि वे दिग्गज़ मुग़ल शाह, बहादुरशाह जफ़र के उस्ताद थे, पैसे से उनका हाथ तंग रहा और साथ ही साथ उनकी नाक़दरी भी रही। शायद इसी लिए उन्होंने यह शेर कहाः‘‘न गुल-ए-नग़मा हूं, न पर्दासाज़/ मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़!'' वैसे ग़लिब ने स्वयं भविष्यवाणी की थी कि उनके काव्य का सही मूल्यांकन सौ साल बाद किया जायेगा।
ग़ालिब का बचपन: मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म आगरा में हुआ था। प्रसिद्ध उर्दू आलोचक मालिक राम लिखते है: ‘‘मिर्जा 8 रजब हिजरी 27 दिसम्बर 1797 ई0 को बुधवार के दिन सूरज निकलने से चार घड़ी पहले आगरे में पैदा हुए थे।'' लगभग ग़ालिब जब पांच वर्ष के थे तो उनके पिता अब्दुल्ला बेग का 1802 में स्वर्गवास हो गया। उनकी देख-रेख उनके चाचा नसरूल्ला बेग ने की मगर 1806 में वे भी अल्लाह को प्यार हो गए। बचपन में ग़ालिब ने अपने हाथ से पतंगें भी बनाईं और उडाईं और साथ ही साथ कबूतर बाजी में भी एक समय पीछे नहीं थे।
शायद यही कारण था कि ग़ालिब किसी मदरसे या विश्वविद्यालय में नियमित रूप से शिक्षा ग्रहण न कर पाए, हां घर पर अवश्य मौलवी मुअज़्ज़म उन्हें फ़ारसी, अरबी और उर्दू पढ़ा दिया करते थे। फ़ारसी से लगाव इतना था कि बचपन में ही शेर कहने शुरू कर दिए। यही कारण है कि उनके फ़ारसी दीवान में 6700 शेर और उर्दू दीवान में मात्र 1100 शेेर हैं। ग़ालिब के अरबी के उस्ताद मौलवी अब्दुस समद के अनुसार वे अत्यंत तीब्र बुद्धि के थे। यह बात ग़ालिब के पत्रों से प्रमाणित होती है जिनका संपादन रॉल्फ रसल ने किया है और जिनमें फ़ारसी के साथ-साथ अरबी का काफ़ी प्रयोग है।
शायरी का आरंभ ग़ालिब ने नौ वर्ष में ही शूरू कर दिया था। शेरों की शुरूआत उन्हों ने फारसी में ही की। वे अपने बचपन में फ़ारसी शायर शौकत बुखारी, असीर और बेदिल से बड़े ही प्रभावित थे और इसका असर उनकी फारसी शायरी में खूब दिखाई देता है। गा़लिब की फ़ारसी शायरी बड़ी कठिन है। जो प्रसिद्धि आज उन्हें प्राप्त है, वह उनको उर्दू शायरी के कारण है। यदि उनकी फ़ारसी शायरी भी उर्दू शायरी की भांति घर-घर पहुंचती तो उनके यश का न जाने कया आलम होता।
यह अलग बात है कि ग़ालिब बादशाह के बड़े क़रीब थे और सभी बड़े अफसर भी उनका सम्मान किया करते थे मगर उम्र तमाम फ़ाक़ामस्ती ही गुजरी जैसा कि इस शेर में कहा गया हैः ‘‘ क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि/ हां रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन!'' एक और शेर में ग़ालिब की निर्धनता का ज़िक्र है। ‘‘ है ख़बर गर्म उनके आने की/ आज ही घर में बोरिया न हुआ।'' मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली का कहना है कि यूं तो बादशाह ने उन्हें ‘‘नज्मुद्दौला, निज़ाम-ए-जंग, दबीरूलमुल्क'' की उपाधि दी थी मगर सारी उम्र मुफ़्लिसी से ही वास्ता पड़ा।
ग़लिब के घर का दर्दनाक फ़साना: ग़ालिब सदा से ही किराए के मकान में रहे क्योंकि कभी इतनी रक़म ही न जुटा पाए कि अपना घर ले लें। आगरा में पैदा हुए और फिर बारह वर्ष की आयु में दिल्ली आ गए जहां नवाब लोहारू नवाब इलाही बख़्श मारूफ़ की पुत्री से ब्याह हुआ। अपने जीवन के अधिकतर समय में ग़ालिब गली कासिमजान, बल्लीमारान वाली हवेली में रहे जिसको ‘‘हकीमों की हवेली'' कहा जाता था क्योंकि इसके मालिक शरीफ़ख़ानी हकीमों के परिवार से थे। ग़ालिब का स्वर्गवास इसी हवेली में हुआ था। ‘‘न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा हो/ डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।''
करूणा और दुख के कवि: निराला ने कहा है कि उर्दू के सबसे बड़े कवि ग़ालिब हैं। उन पर सामंती संस्कृति का असर है, साथ ही उसका तीव्र अंतर्विरोध है। वह बहादुर शाह जफर से वह तन्ख्वाह मांगते हैं, साथ ही शायरी को इज्जत का जरयिा नहीं मानते। वे मुफ्लिसी और फाके मस्ती के गीत भी गाते हैं। उनमें रोमांटिक कवियों की आत्मविभोर गेयता है और अपनी व्यक्तिगत भावनाओं की रूढ़ि-विरोधी व्यंजना भी है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भवभूति, दान्ते और शेक्सपियर की तरह वह करूणा और दुख के अन्तयम कवि है हैमलेट और मैकबेथ की तरह वे रात को सो न सकने की व्यथा पहचानते हैं। गालिब ने मनुष्य की वेदना को बहुत गहराई से अनुभव किया है और बहुत ही मुहावरेदार लाक्षणिक शैली में चित्रित किया है उनमें सूफी परम्परा के अवशेष मौजूद हैंे ग़ालिब ने अपनी व्यथा को बयान करने के लिये जहां-जहां सरल भाषा का प्रयोग किया है वहां इतने लोग प्रिय हुए हैं कि उनकी पंक्तियों ने लोकोक्तियों का रूप ले लिया है, जैसेः मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं'', या ‘‘खाक हो जाएंगे हम उनको खबर होने तक।''
शायरी का आरंभ ग़ालिब ने नौ वर्ष में ही शूरू कर दिया था। शेरों की शुरूआत उन्हों ने फारसी में ही की। वे अपने बचपन में फ़ारसी शायर शौकत बुखारी, असीर और बेदिल से बड़े ही प्रभावित थे और इसका असर उनकी फारसी शायरी में खूब दिखाई देता है। गा़लिब की फ़ारसी शायरी बड़ी कठिन है। जो प्रसिद्धि आज उन्हें प्राप्त है, वह उनको उर्दू शायरी के कारण है। यदि उनकी फ़ारसी शायरी भी उर्दू शायरी की भांति घर-घर पहुंचती तो उनके यश का न जाने कया आलम होता।
यह अलग बात है कि ग़ालिब बादशाह के बड़े क़रीब थे और सभी बड़े अफसर भी उनका सम्मान किया करते थे मगर उम्र तमाम फ़ाक़ामस्ती ही गुजरी जैसा कि इस शेर में कहा गया हैः ‘‘ क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि/ हां रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन!'' एक और शेर में ग़ालिब की निर्धनता का ज़िक्र है। ‘‘ है ख़बर गर्म उनके आने की/ आज ही घर में बोरिया न हुआ।'' मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली का कहना है कि यूं तो बादशाह ने उन्हें ‘‘नज्मुद्दौला, निज़ाम-ए-जंग, दबीरूलमुल्क'' की उपाधि दी थी मगर सारी उम्र मुफ़्लिसी से ही वास्ता पड़ा।
ग़लिब के घर का दर्दनाक फ़साना: ग़ालिब सदा से ही किराए के मकान में रहे क्योंकि कभी इतनी रक़म ही न जुटा पाए कि अपना घर ले लें। आगरा में पैदा हुए और फिर बारह वर्ष की आयु में दिल्ली आ गए जहां नवाब लोहारू नवाब इलाही बख़्श मारूफ़ की पुत्री से ब्याह हुआ। अपने जीवन के अधिकतर समय में ग़ालिब गली कासिमजान, बल्लीमारान वाली हवेली में रहे जिसको ‘‘हकीमों की हवेली'' कहा जाता था क्योंकि इसके मालिक शरीफ़ख़ानी हकीमों के परिवार से थे। ग़ालिब का स्वर्गवास इसी हवेली में हुआ था। ‘‘न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा हो/ डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।''
ग़ालिब की जीर्ण-क्षीर्ण हवेली: उनके बाद इस हवेली के मालिक व किराऐदार बदलते रहे मगर किसी को यह विचार न आया इसको संरक्षित किया जाए। यह दिन-प्रतिदिन जीर्ण क्षीण होती चली गई। शयद इसीलिए ग़लिब ने कहा थाः ‘‘उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्ज़ा ग़ालिब/ हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।'' ग़लिब की मृत्यु क127 वर्ष बाद उनकी हवेली को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया पुरानी दिल्ली स्थित समाजसेवी संस्था ‘‘फ्रैण्ड्ज़ फ़ार एजुकेशन'' ने जिसके द्वारा सितंबर 1996 में एक जनहित याचिका न्यायमुर्ति सी0 एम0 नैयर की अदालत में दायर की गई औरं जिसका फैसला तुरंत हुआ जिसमें आदेश था कि सरकार छः मास के अन्दर एक भव्य स्मारक की स्थापना करे। छः मास तो नहीं, हां तीन वर्ष में अवश्य ग़ालिब स्मारक स्थापित हुआ जो ग़ालिब के शायान-ए-शान था। ग़ालिब की हवेलह कह बदहाली के ज़िम्मेदार अफ़सरों के बारे में शायद उनकी आत्मा यह शेर गुनगुनाती होगी।: ‘‘रगों में दौड़ते फिरने के नहीं कायल / जो आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।''
‘‘फ्रेण्डज़ फार एजुकेशन'' की आज भी शिकायत है कि ग़ालिब को उनका हक़ सही रूप से नहीं मिला है और मात्र औपचारिकता भर कर लकड़ी के कुछ फट्टों पर ग़ालिब के कुछ शेर लिख दिए गए हैं या दो-चार किताबें सजा दी गई हैं जबकि विश्व के कोने-कोने से लोग ग़ालिब का घर देखने को आते हैं। आज भी ग़ालिब का स्मारक वीरान सा है। उनकी हवेली में कपड़े सुखाए जाते हैं, बजाज पल्सर मोटर साइकिल खड़ी रहती है, बकरे बांधे जाते हैं, दीवार के साथ झाड़ू, बाल्टी और डोंगा पड़े रहते हैं। जापान में ओसाका विश्विद्यालय के उर्दू विशेषज्ञ प्रो0 सो यामाने उनकी रेहाइश पर जाकर गद्-गद् तो अवश्य हुए मगर यह देखकर खेद भी हुआ कि अब भी इस विशलतम उर्दू शायर को उसका हक़ नहीं मिला है। शायद यही बात हमें उनके इस शेर में मिलती है:‘‘कोई वीरानी सी वीरानी है,/ दश्त को देख कर घर याद आया।''
ग़ालिब स्मारक का रख-रखाव भी अब ढंग से नहीं किया जा रहा, बताते हैं उर्दू के जाने-माने आलोचक व लेखक और साहित्य अकादमी के सचिव गोपी चंद नारंग। यह अलग बात है कि ग़ालिब जैसे महान शायर के स्मारक को 12×14 के दो छोट-छोटे अंधेरे कमरों में क़ैद कर दिया गया है जबकि इस के लिए बहुत बड़ा स्थान दरकार था। हो सकता है कि यदि ग़ालिब भी कोई नेता या प्रधानमंत्री होते तो उन्हें भी बहुत बड़ा स्थान मिला गया होता!
ग़ालिब प्रसिद्ध क्यों हुए: ग़ालिब की प्रसिद्ध का कारण यह है कि ग़ालिब की शायरी हर समय के लिए यथार्थ से जुड़ी पाई गई और सामान्य व्यक्ति के दिल के तारों को सुंझकृत कर गई। आज भी उनके शेरों पर लोग जान देते हैं। फिर एक कारण यह भी रहा कि इश्क़िया शायरी में उनका कोई सानी न था: ‘‘इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया/ वर्ना आदमी हम भी थे काम के!'' ग़ालिब के समय में मसनवी और क़सीदागोई का चलन था।
ग़ालिब से पूर्व जाने-माने मसनवी और कसीदागोई करने वालों में बहादुरशाह जफर के उस्ताद शेख मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक भी थे। मगर ग़ालिब से उभरकर आने से ज़ौक़ फीके पड़ने लगे और यह बात उनकों इतनी चुभी कि बादशाह की उस्तादी छोड़कर वे उर्दू के एक अन्य तीर्थ हैदराबाद चले गए। उनके हैदराबाद जाने पर यह शेर बड़ा प्रसिद्ध हुआ: ‘‘आजकल अगर वे दक्किन में है बड़ी कदर-ए-सुख,/कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर !'' उधर ग़ालिब भी इस ताक में थे कि कब ज़ौक़ मोर्चा छोड़ और वे बादशाह के शीशे में उतारें। उन्हें तैमूर परिवार के विषय में इतिहास लिखने को कहा। बस फिर क्या था, ग़ालिब के लिए यह तो सुनहरी अवसर था। अतः बड़े ही दक्ष रूप से उन्होंने इसे लिख डाला। उनकी दक्षता देख बादश्ेााह ने उन्हें अपना उस्ताद चुन लिया।
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार, शिक्षाविद् और मौलाना आज़ाद के पौत्र हैं)
- फ़िरोज़ बख़्त अहमद ए-202, अदीबा मार्किट व अपार्टमेन्ट्स, मेन रोड, ज़ाकिर नगर, नई दिल्ली 110 025
दूरभाष: 26984517, मोबाइल: 98109-33050, E-mail : firozbakhtahmed08@gmail.com |