वैदिक युग से आज तक चली आ रही भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है। छोटे बड़े के नाम पर अलगअलग सिद्धाँत बनाए गए जिनका कि अभी तक पालन किया जाता रहा है। और इन सिद्धाँतों के कारण सवर्ण और अवर्ण लोगों के बीच की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे कम कर पाना अत्यंत कठिन हो गया है। कठोर कानून बनाने के बावजूद आज भी निम्न जातियों के साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। इसके कारण न जाने कितने दंगे हुए, कितने लोगों को आज भी मन्दिर प्रवेश की अनुमति नहीं है।
भक्तिकालीन कवियों ने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ़ सबसे पहले आवाज़ बुलन्द की। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से निस्तेज मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाने का श्रेय निस्संदेह भक्तिकालीन संत कवियों और मुख्य रूप से उनकी लोकचेतना को जाता है । संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरूद्व बिगुल है। इनकी कविता ‘वसुधैव कुटुम्बकम' के सिद्वाँत पर आधारित है। वर्णाश्रम के विरोधी रामभक्त कवि रामानंद ने अपने शिष्यों के माध्यम से रामभक्ति का प्रचार-प्रसार किया। भले ही रामानंद रामभक्त थे किंतु उनके शिष्यों में सगुणनिर्गुण उपासक दोनों थे। कबीर और रैदास उनके बारह शिष्यों में प्रमुख माने जाते हैं। कबीर और रैदास उदात्त मानवतावादी प्राणधारा के उन कवियों में से थे जिन्होंने मध्यकालीन युग में गरीब और हताश लोगों को अपनी बानी से प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन किया। वर्णभेद, जातिभेद एवं सांप्रदायिकता का विरोध और निर्गुण की उपासना आदि कुछ ऐसी समानताएँ है जो हमें कबीर और रैदास दोनों में ही देखने को मिलती हैं। दोनों की पैदाइश काशी की थी और जाति से एक चमार तो दूसरा जुलाहा था। स्वयं जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के बावजूद दोनों ही कवियों ने छाती ठोंककर अपनी जाति का उल्लेख अपनी बानियों में किया।
कहे रैदास खलास चमारा।
रैदास स्वयं का उदाहरण देकर कहते हैं कि सच्चे भक्त की कोई जाति नहीं होती और सच्ची भक्ति के कारण नीच जात में उपजा मानव भी श्रद्धेय बन जाता है।
जाके कुटंब के ढेढ सब ढोर ढोवंत फिरहिं, अजहूँ बनारसी आसा पासा। आचार सहित बिप्र करहिं दंडौति तिन तनै रैदास दासानुदास।।
जहाँ शूद्रों को मन्दिर प्रवेश पर मनाही थी वहाँ कबीर और रैदास जैसे संतों ने मन्दिरों का ही विरोध किया, उसमें रखी उन मूर्तियों का विरोध किया जो सिर्फ़ सवर्णाें की संपत्ति समान थीं। दरअसल, इन संतो का मानना था कि जब सबका रचियता एक है चाहे वह सवर्णअवर्ण हो या हिन्दूमुस्लमान। तो उस रचियता पर सबका एकसमान अधिकार होना चाहिए। रैदास कहते हैं-
जब सभ करि दो हाथ पग,दोउ नैन दोउ कान। रविदास पृथक कैसे भये,हिन्दु मुसलमान।।
रैदास की मानवतावादी दृष्टि सब को धार्मिक व सामाजिक समानता का दर्जा देती है और उन्हें एकदूसरे के करीब लाने का कार्य करती है। ऐसा नहीं है कि कबीर पुरोहितों और मौलवियों पर कठोर शब्दवार करते हैं तो यह माना जाए कि उनकी दृष्टि सांप्रदायिक थी। बल्कि सच तो यह है कि कबीर ने हिन्दुमुस्लिम में कोई भेद नहीं किया। दोनों ही उनके लिए एकसमान थे। उन्हें कुछ नापसन्द था तो वह थोथा ज्ञान और पाखण्ड जो मावनधर्म के विरूद्ध था। सच तो यह है कि इन दोनों संतों ने साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल कायम की है। कबीर कहते हैं-
भाई रे दुई जगदीश कहां ते आया,कहु कौन भरमाया।
दरअसल, सांप्रदायिक सद्भाव का यह प्रयास उस समय की सबसे बड़ी ज़रूरत थी क्योंकि इन दोनों धर्मों के मालिक बने बैठे लोग एकदूसरे के धर्म का न केवल दुष्प्रचार कर रहे थे बल्कि मन्दिर मस्जिद भी तुडवा रहे थे। हिन्दुओं में केवल सवर्णों के लिए ही ईश्वर पूजनीय था और शूद्रों के लिए सवर्ण पूजनीय थे। सदियों से चली आ रही जाति प्रथा की बुराईयों को पहचानकर इन्होंने कर्म को महत्व दिया। रैदास का मानना है -
जन्म जात कूँ छांडि करि, करनी जात परधान। इह्यौ बेद को धरम है, करै रविदास बखान।।
रविदास के मानवीयधर्म पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की यह टिप्पणी एकदम सही है कि ‘‘अन्य संतों की तुलना में महात्मा रविदास ने अधिक स्पष्ट और जोरदार भाषा में कहा है कि ‘कर्म ही धर्म' है। उनकी वाणियों से स्पष्ट होता है कि भगवद्भजन, सदाचारमय जीवन, निरहंकार वृति और सबकी भलाई के लिए किया जाने वाला कर्म, ये ही वास्तविक धर्म है।'' [*१] जब थोथे धर्म ज्ञान और पाखण्डी विचारधारा का इन्होंने विद्रोह किया तो ये विद्रोही कहलाए। देखा जाए तो यह धर्मविद्रोह नहीं बल्कि उसका शुद्धिकरण है। और संभवतः इसीलिए इन्होंने निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति की। और यह निर्गण निराकार ब्रह्म उन सभी निम्न जातियों और समाज से बेदख़ल लोगों का बहुत बड़ा धार्मिक विकल्प था जिन्हें मन्दिरों से दूर रहने की हिदायतें दी जाती थीं या धार्मिक रूप से बेदख़ल कर दिया गया था।। व्रत, तीर्थ, स्नान, मालाजाप, उपवास, रोजा आदि का विरोध कर कबीर और रैदास ने सच्चे मन से निराकार ब्रह्म की भक्ति करने का रास्ता प्रशस्त कर उन लोगों को नई राह दिखाई जो किनारे पर फेंक दिए गए थे। जीवनभर आर्थिक दरिद्रता का सामना करतेकरते, कपड़ा बुनतेबुनते, जूतियाँ गाँठतेगाँठते इन्होंने उस फटीचर रूढ़ियों कुरीतियों और आडंबरों से क्षीण समाज की भी बुनाई सिलाई करते रहे। उनकी जाति से बड़ा उनका जीवनयापन और जीवनदर्शन रहा जिसने न केवल ज्ञान और भक्ति की आँधी आई बल्कि श्रमिकों को सम्मानपूर्वक जीने की राह बताई और भारतीय समाज और संस्कृति के विकृत अंश का विरेचन भी किया।
ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने समाज को बाँटने और समाज में अपना वर्चस्व बनाने के लिए भक्ति जैसे सद्भाव के साथ छेड़छाड़ कर स्वयं को उसका उत्तराधिकारी बनाया था। और इसी कुटिल सोच के कारण जातिप्रथा और अस्पृशयता जैसी कुप्रथाओं का प्रारंभ हुआ। धर्म के नाम पर हो रहे तमाशे को इन संतों ने बखूबी पहचान लिया था। और इसीलिए इस गंदगी की सफ़ाई की शुरूआत भी इन्होंने वहीं से की जहाँ से यह महामारी फैली थी। इन्होंने भी भक्ति का सहारा लिया। किंतु इनकी भक्ति में धार्मिक सामाजिक संर्कीणताओं के लिए कोई जगह न थी। तभी तो इनके लिए सामान्य स्थानों और तीर्थ स्थानों में कोई भेद नहीं था। इनके लिए तो सच्चा तीर्थ स्थान तो वह दिल है जो प्रेम की बानी बोलता है और वहीं प्रभु का वास भी है।
का मथुरा, का द्वारका, का काशी, हरिद्वार? रविदास जो खोजा दिल आपना तो मिलिया दिलदार।
"झीनी झीनी बीनी चदरिया में जो ध्वनि और मनुष्यवादी ऊर्ध्व दृष्टि मौजूद है, उसमें कबीर ने सुर ,नर, मुनि को अपनी चदरिया उढ़ाई नहीं है। जिस तार से उन्होंने उदरिया बीनी है उसी से उन्होंने ब्राह्मणवादी पुरोहितवाद को नंगा किया है...'सो चादर सुर,नर, मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया, दास कबीर जतन से ओढ़ी, जस की तस कर दीन्हीं चदरिया'। यही है सामान्य आदमी का सत्य जो कबीर जैसे जुलाहे की तरह ही अपने जीव को मैला नहीं होने देता।'' [*२]
रैदास ने जिस ब्रह्म का पूजन किया वह निर्गुण निराकार न होकर सगुण निराकार है। और उसकी शरण के बिना जीव का उद्धार नहीं हो सकता।
बिनु रघुनाथ शरनि काकि लीजै।
रैदास ने माधव, राम, हरि नामों से ईश्वर को पुकारा अवश्य है किंतु उनके ब्रह्म का स्वरूप भी वही है जो कबीर के यहाँ हैं।
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखना राम नाम का मरम है आना।
रैदास कहते हैं -
राम कहत सब जग भुलाना सो यह राम न होई। जा रामहि सब जग जानत भरम भूलै रे भाई।
कबीर की भाँति रैदास की बानी में निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति और जिज्ञासा दिखाई देती है। मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, ढोंगढकोसलें आदि बाह्य विधानों का विरोध कर तनमन अर्पित कर परमात्मा को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।
तन मन अरपउ पूज चढाउ। गुरू प्रसादि निरजंन पावउ।।
कबीर की सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति की घिसीपिटी धारणा का तिरस्कार करती है। कबीर विद्रोही थे मगर भारतीय समाज के उन जड़ पहलुओं के जो मानव को मानवीय अधिकारों से दूर करते थे। उस हिस्से के जो सड़ गल चुके थे। और जिनसे अँधविश्वास की बू आती थी। कबीर तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ता को दुत्कारते हुए एक मानव धर्म के लिए आवाज़ बुलन्द कर रहे थे। समाज और धर्म के ठेकेदारों द्वारा निम्न जाति जनसमूह के लिए बंद किए गए द्वारों को पीटकर उनसे प्रश्न करने का साहस करती है कबीर की कविता। उन लोगों द्वारा फैलाई गई भेदगत गन्दगी को साफ़ करने का प्रयत्न करती है उनकी कविता। उस युग में काव्यरचना इस लालच से की जाती थी कि किसी शासक का संरक्षण प्राप्त हो सके। मगर कबीर जैसे क्रांतिकारी, विद्रोही और असमझौतावादी संत ने मानव जीवन की बेहतरी के अलावा न कोई सपना देखा न कोई समझौता किया।
‘‘कबीर ने जीवनभर जो कुछ प्रचारा और कहा उसे, पचाना और हजम करना तो दूर, उसे गले के नीचे उतार पाने तक का बूता समाज, शासन तथा धर्म के मसीहाओं के पास न तब था और न आज है।'' [ *३ ]कबीर जाति, धर्म, वर्ण, वर्ग, संप्रदायादि को नकारने वाले केवल इंसानियत के पुजारी थे और उस इंसानियत के लिए वह अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर एक अद्भूत अस्वीकार का साहस लेकर कर्मक्षेत्र में उतरे थे। मगर उनका साथ देनेवाला उन जैसा साहसी पुरूष न उस समय हुआ और न ही आज भी है। बड़े दुख की बात है कि कड़वे लगने वाले इनके बोल के पीछे छिपी मिठास को कोई भी न भाँप सका।
कबिरा खड़ा बजार में लिये लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।।
बिना थके बिना हारे जीवनभर कबीर एक सच्चे मानव धर्म की खोज के लिए चलते रहे, बोलते रहे। उन्होंने हिन्दु मुस्लिम दोनों को नकारा और उन भटके ठेकेदारों को प्रेम की राह दिखाने का अथक प्रयास करते रहे।
अरे इन दोउ राह न पाई हिन्दुवन की हिन्दुवाई देखी, तुरकन की तुरकाई।।
कभी कबीर इनका मखौल उड़ाते हैं तो कभी इनके ढ़ोंग ढँ़कोसलों की धज्जियाँ उड़ाते हैं। इंसानियत को भूल कर खोखले रीतिरिवाजों की वक़ालत करने वाले पाखंडी मुल्लापंडितों पर अन्दर तक तिलमिला देनेवाली फब्तियाँ कसते हैं।
साधे पांडे निपुण कसाई बकरि मारि भेड़ि को धाए, दि लमंे दरद न आई करि अस्नान तिलक दे बैठे, विधिसों देव पुजाई, आत्म मार पलक में बिनसे, रूधिर की नदी बहाई, अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई इनसे दिच्छा सब कोई मांगे, हांसि आवै मोंहि भाई।।
और
काजी कौन कतेब बखाने। पढ़त पढ़त केते दिन बीते, एकै नहिं जाने।।
कबीर की वाणी कटु अवश्य थी किंतु वे अंहकारी नहीं थे। वैसे भी जो इंसान प्रेम की राह पर चलने से पहले अपना अहंकार रूपी सिर काटकर रख दे उसमें अहंकार कैसे हो सकता है।
कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं। सीस उतारे मुँह धरे तो घर पैठे आहि।।
कबीर का अंदाज़एबयान बेहद ही बेबाक और फक्क्ड़ाना है । इनकी हृदय की मिठास और कोमलता के दर्शन इनके भक्ति विषयक पदों में होते हैं। कबीर भी नारियल की तरह बाहर से कठोर और अन्दर से कोमल थे। उन्होंने तत्कालीन समाज को कोई क्षति नहीं पहुँचाई बल्कि उन्होंने क्षतिग्रस्त समाज को एक ऐसी नई राह दिखाई जिसकी छाप आज तक विद्यमान है। इन्होंने इन्सान और इन्सानियत के टूटे हुए पुल को बाँधने का कार्य किया। उनकी बाहरी कठोरता का कारण भी वही सुविधाभोगी और स्वार्थी समाज था जिन्होंने कबीर की चिंता और रुदन को अनसुना कर दिया था। विवशतः इन्हे विद्रोही स्वर अपनाना पड़ाः
सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे।।
कबीर और रैदास ने जीवन को क्षणिक माना है। कबीर इसकी तुलना पानी के बलबुले से करते हैं तों रैदास इसे कुशुम्भ फूल के रंग के समान क्षणिक है-
जैसा रंगु कुसुभु का तैसा इहु संसारू।
रैदास ने जीव को परमात्मा का अंश स्वीकारा है। सोई मुकुंद हमार पित माता कहकर ब्रह्म के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं और भक्ति भावना से हीन जीव माटी का पुतरा है।
ऊँचे मन्दिर सुंदर नारी।
राम ना बिनु बाकी हारी।।
दोनों ही संतों ने सत्गुरु, सत्संग और सत् आचरण वे तीन सौपान बताए हैं जिनके बिना परमेश्वर की प्राप्ति असंभव थीं। रैदास का मानना है कि साधु संगति के बिना भगवान के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न नहीं हो सकता और बिना भाव के भक्ति नहीं हो सकती।
साधु संगति बिनु भाव नहीं उपजै। भाव बिनु भगति होई न तेरि।। जीव का साध्य यही है कि वह संत आचरण का अनुकरण करते हुए भक्ति में तल्लीन होकर अपने अह्म को उस अव्यक्त शक्ति में इस प्रकार विलीन कर दे जिससे सभी प्रकार के भेद समाप्त हो जाए और जीव और आत्मा में कोई भेद न रह जाए।
संत अनंतंहि अंतरु नाहि।
सद्गुरु के प्रति न केवल कबीर और रैदास बल्कि सभी भक्त कवियों में श्रद्धाभाव देखने को मिलता है क्योंकि सद्गुरू के संबंध में सबका यह मानना है कि इनके बिना परमेश्वर से मिलन असंभव है। सद्गुरु की सहायता से ही वह अव्यक्त शक्ति से अपना रागात्मक संबंध जोड़ साकता है। कबीर ने तो गुरु को गोविन्द से भी ऊपर का दर्जा दिया है।
गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागू पाय। बलिहारी गुरू के जाक गोविन्द दिया मिलाय।।
बेशक ये संत अनपढ़ थे किंतु सत्संग एवं अनुभव द्वारा अर्जित इनका ज्ञान और भक्ति उन पंडितों से कहीं अधिक सच्ची और पवित्र था जो दिनरात गंगा में डूबकियाँ लगाते और मन्दिर की घण्टियाँ बजाते रहते थे।ये दोनों ही संत आंतरिक साधना पर बल देते हैं। कभी कबीर कहते हैं-
कर का मनका डारिके मन का मनका फेर।
तो कभी कहते हैं -
मन न रंगााए, रंगाए जोगी कपड़ा।
मगर रैदास का तरीका थोड़ा अलग है। वे कबीर की तरह धार्मिक क्षेत्र के दोषों पर कठोर प्रहार नहीं करते। वह तो बड़ी विनम्रता से पूजन सामग्री को जूठा बता मन की पवित्रता को पूजन सामग्री बनाने का आग्रह करते हैं।
दूधु त बछरै थनहु बिटारियो। फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ। माई गोविन्द पूजा कहा लै चरावउ।अवरु न फूलु अनूपु न पावउ।।
यहाँ विचारणीय बात यह है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोगों ने धार्मिक कर्मकाण्ड़ों में शुचिता पर अत्याधिक बल दिया और इसी बल का सहारा लेकर अस्पृश्यता जैसा रोग फैलाया। मगर रैदास ने इस शुचिता पर विनम्र शब्दों में ऐसा कठोर प्रहार किया कि मनुस्मृति जैसे ग्रन्थों के सिद्धांतों की भी धज्जियाँ उड़ गई। उनका तर्क बहुत ही सराहनीय है क्योंकि जब फूल, पानी जैसी वस्तुएँ भी पवित्र नहीं है तो सवर्णअवर्ण का भेद कैसा? अगर निर्मल कुछ हो सकता है तो केवल मन के भाव, बाकी सब तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जूठे हैं। सचमुच इन दोनों ही संतों ने उन औपचारिकताओं को धर्म से दूर करना चाहा था जो पूजाअर्चना को कठिन और अर्थहीन बनाती हैं। रैदास कर्मकांड को विशेष महत्व नहीं देते हैं। उनकी आस्था उस धर्म एवं साधना पर नहीं है, जो केवल दिखावा है। इसीलिए वे मूर्ति पूजा, यज्ञ, पुराण कथा आदि की भी उपेक्षा करते हैं। उसकी दृष्टि में ईश्वर कर्मा है, सर्वव्यापक है, अर्न्तयामी है तथा भक्ति से प्रसन्न होकर दीनदलितों का उद्धार करने वाला है। यह सच है कि इन दोनों संतों की भक्ति में नवधा भक्ति के गुण नहीं मिलते। मिलते भी कैसे ? इनका परमेश्वर तो निर्गुण निराकार जो ठहरा, लेकिन फिर भी इनकी भक्ति में जो भक्तिभावना और मधुरता है वह सूर या तुलसी जैसे भक्तों से किसी मायने में कम नहीं।
प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी प्रभुजी! तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा प्रभुजी! तुम दीपक हम बाती, जाकी जोकि बरै दिन राती प्रभुजी! तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहि मिलत सुहागा प्रभुजी! तुम वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।
कबीर ने मोहमाया का बड़े कटु शब्दों में विरोध किया है । उनका तो यहाँ तक मानना है कि इसके जाल में त्रिदेव तक फसे हुए हैं।
माया महाठगिनी हम जानी। तिरगुन फांसि लिए कर डौलै बोलै मधुर बानी।।
इस विषय पर रैदास की दृष्टि कबीर से थोड़ी अलग तरीके से देखती है। क्योंकि रैदास भक्त होने के साथसाथ गृहस्थ जीवन भी जी रहे थे। इसलिए उन्होंने कंचनकामिनी का विरोध न करके उसकी अति अर्थात् उसके नशे में डूबे रहने को बुरा बताया। घरपरिवार छोड़कर वन भागने वाले वैरागियों को नसीहत दी।
वन खोजो पी ना मिला बन में प्रीतम नाहिं, रविदास पी हम बसे, रहियो मानव प्रेमी माहि।
वस्तुतः रैदास और कबीर के व्यक्तित्व की तुलना उस कमल से की जा सकती है जो संसार रूपी कीचड़ में पैदा होकर भी उस सांसारिक गंदगी से अनछुआ रहता है। न केवल अनछुआ बल्कि अपनी सुन्दरता से तालाब को भी सुन्दर बनाता है। दरअसल, रैदास और कबीर उस थोथे पुस्तकीय ज्ञान की निंदा करते हैं जिसका प्रयोग पाखंडी लोग अपने स्वार्थ हेतु करते हैं। इन संतों ने मन्दिर से बेहतर मन मन्दिर को बताया जिसमंे प्रज्जवलित सच्ची भक्तभावना रूपी ज्योति से परमेश्वर की दिनरात आरती की जानी चाहिए। इन्होंने तो ज्ञान, भक्ति और सत्कर्म का समन्वय कर ऐसी माला बनाई जिसे फेरने से न केवल समाज और धर्म के दोष दूर होगें बल्कि मानवविकास का सच्चा मार्ग भी प्रशस्त होता है। इन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध कर मानवता की पूजा करने पर ज़ोर दिया। नाम की जगह भाव को महत्व दिया। इन्होंने न केवल ईश्वर और मनुष्य को पास लाने का कार्य किया बल्कि मनष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया। इन्होंने बारबार अहंकार को त्याग करने और मानव प्रेम की वकालत की बात की।
इसी मानव प्रेम की चाह कबीर को भी है। क्योंकि उनका लोकधर्म शास्त्राीय धर्म और झूठे लोक विश्वास की आलोचना है। इस संबंध में मैनेजर पाण्डेय का यह कथन पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है कि ‘‘कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष से अधिक महत्वपूर्ण है समाज में मनुष्यत्व का जागरण। भक्ति दर्शन के अनुसार भक्ति के क्षेत्र में अमीरगरीब, स्त्रीपुरुष, ब्राह्मणशुद्र आदि का भेद नहीं होता। कबीर इस आध्यात्मिक सत्य को सामाजिक सत्य बनाते हैं और एक समतामूलक समाज के निर्माण की माँग करते हैं।'' [*४ ] और इस माँग को करतेकरते उनका इस देश से मोहभंग हो जाता है तभी तो वह अपना अलग यूटोपिया बनाते हैं अमरदेश।
जहवाँ से आयो अमर वह देसवा। पानी न पान धरती अकसवा,चाँद न सूर न रैन दिवसवा। बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा।। आदि जोत, नहिं गौर गनेसवा,ब्रह्म बिसनु महेस न सेसवा। जोगी न जंगम मुनि दुरबेसवा आदि न अंन न काल कलेसवा। दास कबीर के आए संदेसवा, सार सबद गहि चलौ वहि देसवा।।
सार सबद गहि चलो वह देसवा यानी कबीर स्वयं भी यही कहते हैं कि उनके सारे शब्दों का एक ही सार, एक ही उद्देश्य है एक समतामूलक समाज। ‘‘कबीर की कविता सपना देखती है, ऐसे अमरलोक का, जिसमें मनुष्य की मनुष्यता ही महत्वपूर्ण है। कबीर के देखें सपने में न ब्राह्मण हैं, न क्षत्रिय। न सैयद हैं न शेख़। न शूद्र हैं न वैश्य। कबीर का सपना न तो सिर्फ़ सामाजिक ‘मुक्ति' तक सीमित है, न सिर्फ़ आध्यात्मिक मुक्ति तक। उनके सपने में ये दोनों मुक्तियाँ एकदूसरे का विरोध नहीं, पोषण करती हैं।'' [ *५ ] कबीर जैसा सपना रैदास भी देखते हैं। उनका बेगमपुरा वही जगह है जो कबीर के यहाँ हैं।
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसै रैदास रहै प्रसन्न।।
कहना न होगा कि इन दोनों संतों का एक ही सपना है भेदभाव मुक्त समाज। ऐसा समाज जहाँ किसी भी आधार पर मानव को मानव से दूर करनेवाली लकीरें न हों। और इनका यही सपना आज भी इन्हें हमारे और भी निकट ला देता है।
- मनीषा पी.एच.डी. शोधार्थी जे.एन.यू.
संदर्भ सूची
दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास -डॉ सुभाष चन्द्र, आधार प्रकाशन प्रथम संस्करण 2012
रैदासः धर्मपाल मैनी, साहित्य अकादमी,प्रथम संस्करण
अकथ कहानी प्रेम की: पुरुषोत्त्म अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दूसरा संस्करण 2010
अनभै साँचा: मैनेजर पाण्डेय, पूर्वोदय प्रकाशन,,प्रथम संस्करण 2002
भक्तिकाव्य और लोकजीवन: शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, संतों एवं भक्तों का जीवन चरित्र, संपादकः डॉ विक्रम सिंह राठौड, राजस्थानी शोध संस्थान
गुरु रविदास: डॉ धर्मवीर, समता प्रकाशन
साझी संस्कृति की विरासत: डॉ सुभाष चन्द्र, आधार प्रकाशन प्रथम संस्करण 2011
संत रविदास: वीरेन्द्र पाण्डेय,उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, द्वितीय संस्करण 2011
कबीर एक पुनर्मॅल्याकन: सं बलदेव वंशी, आधार प्रकाशन द्वतीय संस्करण 2011
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