अनेक साहित्यिक ग्रंथों में रक्षाबंधन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटक, 'रक्षाबंधन' का 98वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिंदे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक लिखा है जिसका शीर्षक है 'राखी उर्फ रक्षाबंधन'।
हिंदी कवयित्री, 'महादेवी वर्मा' व 'निराला' का भाई-बहन का स्नेह भी सर्वविदित है। निराला महादेवी के मुंहबोले भाई थे व रक्षाबंधन कभी न भुलते थे।
वह अनोखा भाई
महादेवी वर्मा को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तो एक साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया था, 'आप इस एक लाख रुपये का क्या करेंगी? '
कहने लगी, 'न तो मैं अब कोई कीमती साड़ियाँ पहनती हूँ, न कोई सिंगार-पटार कर सकती हूँ, ये लाख रुपये पहले मिल गए होते तो भाई को चिकित्सा और दवा के अभाव में यूँ न जाने देती.' कहते-कहते उनका दिल भर आया. कौन था उनका वो 'भाई'? हिंदी के युग-प्रवर्तक औघड़-फक्कड़-महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी के मुंहबोले भाई थे।
एक बार वे रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह जा पहुंचे अपनी लाडली बहन के घर और रिक्शा रुकवाकर चिल्लाकर द्वार से बोले, 'दीदी, जरा बारह रुपये तो लेकर आना।' महादेवी रुपये तो तत्काल ले आई, पर पूछा, 'यह तो बताओ भैय्या, यह सुबह-सुबह आज बारह रुपये की क्या जरूरत आन पड़ी?
हालाँकि, 'दीदी' जानती थी कि उनका यह दानवीर भाई रोजाना ही किसी न किसी को अपना सर्वस्व दान कर आ जाता है, पर आज तो रक्षा-बंधन है, आज क्यों?
निरालाजी सरलता से बोले, "ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये तुम्हें देना है। आज राखी है ना! तुम्हें भी तो राखी बँधवाई के पैसे देने होंगे।"
ऐसे थे फक्कड़ निराला और ऐसी थी उनकी वह स्नेहमयी 'दीदी'।
-रोहित कुमार 'हैप्पी' |