अहद एक मुसलमान है। मुसलमान इसिलए क्योंकि वो एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ है। हाँ, ये बात अलग है कि 'वो' कभी इस बात पर जोर नहीं देता है कि वो मुसलमान है। वो मुसलमान है तो है। क्या फर्क पड़ता है? और क्या जरूरत है ढ़िंढ़ोरा पीटने की? वो कभी इन बातों पर गौर नहीं करता है। लेकिन उसके गौर न करने से क्या होता है? लोग तो हैं? और लोग तो गौर करते हैं और लोग अहद की हरकतों पर भी गौर करते हैं।
सच कहा जाए तो अहद सिर्फ एक इनसान है। एक सच्चा इनसान। जो लोगों की मदद करता है। किसी को तकलीफ में देखकर बेचैन हो उठता है। चाहे वो उसके अपने मजहब का हो या किसी और मजहब का हो। वो हर मजहब की इज्जत करता है जिस गांव में पैदा हुआ वहां गिनती के मुसलमान थे और इस वजह से उसके ज्यादातर दोस्त गैर-मजहब के थे। मसलन, हिन्दू वगैरह!!!
और हिन्दू दोस्तों के साथ घूमते-फिरते वो मन्दिर में भी जाने लगा। उसके दोस्तों ने उसे आगाह किया मगर अहद कहता, "यार...ये दुनिया सिर्फ एक ने बनाई है और वो एक सिर्फ एक है जिसे मैं अल्लाह कहता हूं और तुम भगवान। ये सिर्फ ज़ुबान का फर्क है। कोई भी धर्मग्रन्थ उठाकर पढ़ लो। सब में एक ही बात लिखी है "आपस में मिलजुल कर रहना चाहिए।" और फिर अगर कुछ फर्क है भी तो वो हमने ही बनाया है। अपनी सहूलियत के हिसाब से। वक्त और जरूरत के हिसाब से चीजों ने एक अलग शकल ले ली है। और हम आपस में बहस करते हैं कि मैं हिन्दू मैं मुसलमान। सब बेकार की बातें हैं। मेरे कुरान शरीफ में लिखा है, "अपने पड़ोसी का ख्याल रखो।" अब तुम बताओ? क्या मैं तुम्हें अपना पड़ोसी समझूं या क़ाफिर? क़ाफिर मानने में कोई भलाई नहीं हैं। ना तो मेरी, ना तो तुम्हारी। हम इनसान अगर मिलजुल कर रहें और खुश रहें तो एक दिन वो ऊपरवाला इतना खुश हो जाएगा कि खुद जमीन पर आकर बताएगा कि "मैं ही हूँ सबकुछ। सबका भगवान और सबका खुदा।"
अहद की फिलॉसफी के आगे उसके हिन्दू दोस्त खामोश हो जाते थे। वो कहते थे, "यार अहद....तेरी सारी बातें हमें तो समझ में आती हैं मगर बाकी लोगों का क्या? लोग तो हमें 'नादान नौजवान' समझकर एक किनारे रख देते हैं। उसका क्या? लोग दंगे-फसाद करते हैं और बेगुनाहों को मारते हैं। ऐसी हालत में तू क्या करेगा अगर इस गांव में भी कभी दंगा हुआ तो? यहां तो तुम लोग बस गिनती भर हो?
अहद इस बात पर मुसकुराता और हँस कर मजाक में कहता, "अबे....इसीलिए तो मैं तुम लोगों के साथ मन्दिर भी आता हूँ ताकि तुम लोग मुझे भी अपना भाई समझो। और तुम्हारे भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि 'मेरे हिन्दू भाईयों को अकल दे।' सब अहद की बात सुनकर हँस देते थे।
वक़्त गुजरा। सब अपने-अपने रास्ते हो लिए। अहद अब एक बड़े शहर में रहने लगा जहां आए दिन हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-मरते रहते थे। खैर...अहद को अपने अल्लाह और ईश्वर पर यकीन था कि उसे कोई मुश्किल नहीं होगी इस शहर में। और कुछ खास मुश्किल हुई भी नहीं, जिस सोसाईटी में रहता है, वहां वो अकेला मुसलमान है। मगर सबने अहद को हाथों-हाथ लिया। वजह थी अहद की बीबी, जो एक हिन्दू थी। जी हाँ...अहद ने एक हिन्दू लड़की से शादी की थी।
अहद अब भी उसी तरह रहता है। जहां मस्जिद मिली, नमाज़ पढ़ ली। जहां मन्दिर दिखा, सिर झुका लिया। अहद दिवाली में पटाखे भी लाता है, अपनी बीबी के लिए...छुरछुरी। हां, जी...अहद की बीबी को दिवाली में छुरछुरी जलाना बहुत पसन्द है। अहद खुद तो पटाखे नहीं जलाता है मगर छुरछुरी जलाने में अपनी बीबी की मदद जरूर करता है। अहद को छुरछुरी की जगमग रोशनी बहुत पसन्द है। अपनी बीबी के कहने पर अहद घर के हर कोने में 'दिया' जलाता है। अहद को ये बात बहुत अच्छी लगती है क्योंकि पूरे साल में एक बार घर का हर कोना रोशनी से जगमगा जाता है। अहद इसी बात से खुश हो लेता है कि 'चलो इसी बहाने, घर के सारे कीटाणु मर जाएंगे।'
फिर आया मार्च का महीना और लोग होली की तैयारी करने लगे। पहले तो अहद ने सोचा कि 'इस बार होली नहीं खेलूंगा क्योंकि अब वो गांव नहीं। और वो लोग भी नहीं...तो मजा नहीं आएगा। लेकिन फिर उसने देखा कि 'उसकी एक बीबी और एक तीन साल का बच्चा होली खेलने के लिए तैयार हैं। अगर वो नहीं खेलेगा तो इन्हें भी मजा नहीं आएगा।'
और फिर अहद ने शुरु की अपने तरह की होली और बाल्टी भर-भर के रंग बनाया और जो भी दिखा सबको रंग दिया। खूब जमकर होली हुई। सोसाईटी में जिसने नहीं भी देखा था उसने भी देख लिया कि 'ये वही अहद है जो ज्यादातर खामोश रहता है। मगर आज इसे क्या हो गया है? और ये तो होली खेल रहा है। ये तो मुसलमान है ना???'
सारी बातों को भूलकर अहद ने खूब जमकर होली खेली। और उसका असर ये हुआ कि रंग इस कदर चढ़ चुका था कि उतरने का नाम नहीं ले रहा था। अहद के दोनों हाथ गुलाबी हो चुके थे। गर्दन के पिछले और किनारे के हिस्से से लेकर कानों तक रंग लगा हुआ था जो नहाने और रगड़-रगड़ कर छुड़ाने के बाद भी नहीं छूटा। अहद को लगा कि 'लोग क्या कहेंगे?' मगर फिर सिर झटककर खुद से कहा, 'क्या कहेंगे? पहली बार तो होली खेली नहीं है? हर बार ही खेलते हो। हर बार की तरह इस बार भी एक-आध महीने में छूट ही जाएगा।'
ऐसा सोचकर नहा-धोकर, साफ कपड़े पहनकर बैठ गया और होली में बनी गुझिया खाने लगा। अहद को अपनी बीबी के हाथ की बनी गुझिया बहुत पसन्द है। सच कहें तो होली की हुड़दंग और गुझिए की मिठास ने ही अहद का दिल जीत लिया था और उसने सारी बातों को दरकिनार करते हुए एक हिन्दू लड़की को पसन्द कर लिया था।
बात यहां तक उसकी जाति जिन्दगी की थी जिससे किसी को कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। मगर होली के अगले दिन जब अहद सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद की ओर चला तब उसके दिमाग में तरह-तरह के सवाल आने लगे। खैर....अब वो कर भी क्या सकता है। लोगों के डर से अपना हाथ तो नहीं काट सकता है।
अहद मस्जिद में दाखिल हुआ। उसने वुज़ू किया। सुन्नत तो उसने अकले में पढ़ ली। मगर फर्ज़ पढ़ने के लिए जब सफ में खड़ा हुआ जो कि इमाम के पीछे पढ़ी जाती है और सब लोग लाइन से खड़े होते हैं। एक-दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर। सफ इसी लाइन को कहते हैं। इसका तरीका ये होता है कि अगर अगली सफ में जगह बाकी है तो लोग आगे बढ़कर पहली सफ को पूरा करते हैं फिर दूसरी सफ बनती है और इसी तरह लोग लाइन में खड़े होकर नमाज़ पढ़ते हैं।
अहद दूसरी सफ में खड़ा था। मस्जिद में ज्यादा भीड़ तो नहीं थी इसिलए पहली सफ में जगह बच रही थी जिसमें बड़े-बड़े बुजुर्ग दिखाई दे रहे थे। अहद ने एकबारगी ये सोचा कि 'अगली सफ में ना जाए मगर वो सफ का तरीका तोड़ नहीं सकता था। वो भी सिर्फ इसलिए कि उसके हाथों-पैरों में होली का रंग लगा हुआ है?'
अहद अगली सफ में शामिल हो गया। इमाम साहब ने नमाज शुरु की। सबने बाकायदा नमाज़ पढ़ी। अहद ने भी। मगर नमाज़ के दरम्यान अहद का दिमाग कुछ बातों पर गया जैसे कि 'अहद की हथेलियां गुलाबी रंग से रंगी हुई थीं। अहद के पैरों की अंगुलियां इस तरह से रंगी हुई थी जैसे हिन्दूओं के यहां नई-नवेली दुल्हन का पैर रंगा जाता है, गुलाबी रंग में। रंग अहद की हथेलियों से होता हुआ पूरे बाजू तक फैला हुआ है। अहद की हथेलियां ऐसे लग रहीं थीं जैसे उसने अपने हाथों में गुलाबी रंग की मेंहदी लगाई हो।'
अहद को महसूस हुआ कि बगल में खड़े बुजुर्ग लोग उसे अजीब नजरों से देख रहे हैं। भले ही लोग नमाज़ में थे मगर आँखें तो सबकी खुली थीं और खुली आँखों से जो दिखाई दे रहा था वो सबको मन्जूर नहीं था। सब थे नमाज़ में इसलिए कोई कुछ कह भी नहीं सकता था।
खैर नमाज़ खत्म हुई और अहद ने अपने रंगीन हाथों से ही अपने खुदा से दुआ मांगी और हाथ मुंह पर फेरते हुए उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कुछ लोग उसे घूर रहे थे। अहद ने कुछ नहीं कहा क्योंकि अभी तक किसी ने उससे भी कुछ नहीं कहा था। और जब तक बात मुंह से बाहर नहीं निकलती है तब तक कोई मुश्किल नहीं होती हैं।
अहद आगे बढ़ा और मस्जिद से बाहर की तरफ निकलने लगा तभी किसी ने कहा, "अस्सलामुअलैकुम।" अहद ने जवाब में कहा, "वालैकुमअस्सलामज़।"
सलाम करने वाला अकेला नहीं था। मगर अहद ने भी सोचा "चलो आज दो-दो हाथ कर ही लेते हैं।" एक ने कहा, "तो जनाब नमाज़ भी पढ़ते हैं और होली भी खेलते हैं?" अब अहद को जवाब देना था। उसने कहा, "जी।"
अगला सवाल हुआ, "तो क्या आप अल्लाह से नहीं डरते?" अहद ने जवाब दिया, "अल्लाह से डरता हूं इसीलिए तो नमाज़ पढ़ता हूं?"
इस जवाब ने एक पल को खामोशी पैदा कर दी। सवाल पूछने वालों को समझ नहीं आ रहा था कि अगला सवाल क्या करें? अहद ने सोचा, "बात खत्म हो चुकी है। इन लोगों को इनके सवाल का जवाब मिल चुका है।"
उधर सवाल करने वाले भी यही सोच रहे थे कि ये तो पढ़ा-लिखा मालूम होता है। इसके ऊपर अपनी बातों का असर नहीं होने वाला। मगर जब बात यहां तक पहुंच ही चुकी थी तो थोड़ी दूर तक और जानी थी। अब वहां कुछ लोग और आ चुके थे। सब अहद को चील की नजर से देख रहे थे जैसे नोच कर खा जाएंगे। वो तो अहद के बदन पर रंग लगा हुआ था इसलिए सब खुद को रोके हुए थे क्योंकि रंग से ही तो उन्हें परहेज है।
भीड़ में से एक सवाल और हुआ, "ये रंग आपको जहन्नुम में ले जाएंगे।"
अब अहद को गुस्सा आने लगा क्योंकि उससे सवाल करने वाले जाहिल लोग थे जिन्हें खुद ज़न्नत और जहन्नुम के बारे में ठीक से पता नहीं है । वो उसे ज़हन्नुम में भेज रहे थे सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके हाथ-पैरों में रंग लगा हुआ है। फिर भी अहद ने गुस्से को पीकर बात का जवाब बात से ही देना ठीक समझा। वैसे भी 'कुरान झगड़े को जितना हो सके टालने की नसीहत देता है।'
अहद ने इस बात का जवाब कुछ यूं दिया "कौन जाने जनाब..... किसको जन्नत मिलेगी और किसे जहन्नुम? ये तो खुदा ही जानता है और ये आप भी जानते होंगे कि खुदा को किसकी कौन सी अदा पसन्द आ जाए ये भी सिर्फ खुदा ही जानता है। मेरे हाथों में रंग लगा है। इस बात पर आपने मेरा जहन्नुम का टिकट निकाल दिया। ...और मैंने इन्हीं रंग लगे हाथों से नमाज़ पढ़ी है तो हो सकता है खुदा मेरे इस नमाज़ पढ़ने के तरीके को पसन्द कर ले और मुझे जन्नत में डाल दे और मुझे इन रंगों के बदले रंगीन चादर दे ओढ़ने के लिए, जैसे बाकी ज़न्नत में जाने वालों को सफेद चादर मिलती है। ...तो मैं तो इस बात से खुश हूं कि खुदा मुझे अलग नज़र से देखेगा जैसे आप लोग देख रहे हैं। मगर मुझे पता है आपकी नज़र और खुदा की नज़र में बहुत फर्क है।"
अहद के इस जवाब ने सबको लाजवाब कर दिया। एक बार के लिए तो भीड़ में खड़ा हर आदमी सोचने लगा "काश! मेरे भी हाथ रंगीन होते!" भीड़ छंटने लगी और अहद को अपना रास्ता दिखाई दिया। अहद अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में वो एक बार फिर अपने रंगीन हाथों को देखने लगा और सोचने लगा। अहद सोचने लगा 'वो' ज़न्नत में है। चारों तरफ सफेद बादल हैं। लोग सफेद लिबास में हाथ ऊपर किये खड़े हैं। इन्हीं लोगों के बीच में अहद गुलाबी लिबास में लिपटा हुआ खड़ा है। अहद खुदा का शुक्रिया अदा कर रहा है।
- क़ैस जौनपुरी, मुंबई, भारत। ई-मेल : qaisjaunpuri@gmail.com |