देखो लड़को ! बंदर आया । एक मदारी उसको लाया ॥ कुछ है उसका ढंग निराला । कानों में है उसके बाला ॥
फटे पुराने रंग बिरंगे । कपड़े उसके हैं बेढंगे ॥
मुँह डरावना आँखे छोटी । लंबी दुम थोड़ी सी मोटी॥
भौंह कभी वह है मटकाता । आँखों को है कभी नचाता ॥
ऐसा कभी किलकिलाता है । जैसे अभी काट खाता है ॥
दाँतों को है कभी दिखाता । कूद फाँद है कभी मचाता ॥
कभी घुड़कता है मुँह बा कर । सब लोगों को बहुत डराकर ॥
कभी छड़ी लेकर है चलता । है वह यों ही कभी मचलता ॥
है सलाम को हाथ उठाता । पेट लेट कर है दिखलाता ॥
ठुमक ठुमक कर कभी नाचता । कभी कभी है टके माँगता ॥
सिखलाता है उसे मदारी । जो जो बातें बारी बारी ॥
वह सब बातें वह करता है । सदा उसी का दम भरता है ॥
देखो बंदर सिखलाने से । कहने सुनने समझाने से ॥
बातें बहुत सीख जाता है। कई काम कर दिखलाता है ॥
फिर लड़को, तुम मन देने पर । भला क्या नहीं सकते हो कर ॥
बनों आदमी तुम पढ़ लिखकर । नहीं एक तुम भी हो बंदर ॥
-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
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