कहते जिसे गिलहरी हैं सब । सभी निराले उसके हैं ढब ॥
पेड़ों से नीचे है आती । फिर पेड़ों पर है चढ़ जाती ॥
कुतर कुुतर फल को है खाती । बच्चों को है दूध पिलाती ॥
उसकी रंगत भूरी कारी । आँंखों को लगती है प्यारी ॥
होती है यह इतनी चंचल । कहीं नहीं इसको पड़ती कल ॥
उछल कूद में है यह जैसी । दौड धूप में भी है वैसी ॥
बैठी इस धरती के ऊपर । दोनों हाथों में कुछ ले कर ।।
जब वह जल्दी से है खाती । तब है कैसी भली दिखाती ॥
चिकना चिकना रोआँ इसका । लुभा नहीं लेता जी किसका ।।
मत तुम इसको ढेले मारो । जा पूरा इतना बात बचा ॥
कहीं इसे जो लग जावेगा । तो इसका जी दुःख पावेगा ॥
अब तक सब ने है यह माना । जी का अच्छा नहीं दुखाना ॥
- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' |