एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।
होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।
भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -
नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे वैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।
हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए खाती जाए । परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।
हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''
कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए ।
[साभार - हिंदुओं के व्रत और त्योहार]
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