कश्मीर की घाटी में एक बादशाह था। एक बार बादशाह शिकार खेलने गया था तो वन में उसने एक परी जैसी बहुत सुन्दर नवयुवती को देखा। इस सलोनी नवयुवती ने हीरे-जवाहरों से जड़े अनेक आभूषण पहने हुए थे। बादशाह की बेगम की मृत्यु हो चुकी थी। बादशाह इस नवयुवती की ओर आकृष्ट हो गया और मन-ही-मन उसने निर्णय लिया कि मैं इसी सुंदरी से शादी करूंगा।
बादशाह इस रूपसी के पास गया। उसने उसकी ख़ैर-ख़बर ली। युवती ने कहा, "मेरा पति शादी से सात दिन के अन्दर ही अल्लाह को प्यारा हो गया और अब मैं मैके जा रही हूँ।"
बादशाह ने अन्दर-ही-अन्दर अल्लाह का शुक्र किया और इस चन्द्रमुखी को बिना किसी लाग-लपेट के अपने मन की बात बता दी। रूपसी तैयार हो गई। दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया।
शादी के बाद बादशाह दिन-प्रतिदिन सूख कर काँटा होने लगा। देश के जाने-माने पीरों-फकीरों से मंत्र पढ़वाया गया तथा बड़े-बड़े हकीमों से इलाज कराया गया। कोई भी उसकी बीमारी को ठीक न कर सका। इलाज की असफलता से बादशाह काफी परेशान हो गया। मन्त्री और दरबारी भी बादशाह का इलाज करवाते थक गए। आखिर में ढिंढोरा पिटवाया गया कि जो बादशाह को ठीक कर देगा उसे आधी बादशाही दे दी जाएगी।
इस शहर में एक वृद्धा रहती थी। इसने भी बादशाह की बीमारी के बारे में सुना। यह लाठी टेकती हुई बादशाह के महल में आ पहुँची। वहाँ हर वस्तु और व्यक्ति का अपनी अनुभवी नजरों से निरीक्षण करने के पश्चात् उसने घोषणा की कि वह बादशाह को ठीक कर सकती है। सभी लोग बहुत खुश हुए और बादशाह के ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगे। बुढ़िया ने एकांत में बादशाह को कहा,"आज आप जो भी सब्जियाँ या व्यंजन पकवाएँगे उनमें काफी नमक डलवाना और भोजन करते समय यही सब्जियाँ एवं व्यंजन अपनी पत्नी को खिलवाना तथा महल में एक बूंद पानी भी नहीं रखना, रात भर जागते रहना और सुबह मुझे सारा हाल बता देना, जो आपने रात को देखा हो।"
बादशाह ने बुढ़िया की बातें मान लीं। रात भर जागते रहने के लिए उसने अपनी टाँग पर छोटे-छोटे घाव कर दिए और इन पर नमक तथा पिसी मिर्ची छिड़की। इसके बाद बादशाह अपनी नई-नवेली बेगम के साथ शयनकक्ष में चला गया। बादशाह को नींद कहाँ? वह आँखें बन्द कर सोने का नाटक करने लगा और वह अपनी बेगम की हर गतिविधि पर नजर रख रहा था। वह टाँग के घावों में दर्द के कारण अपनी टाँग सहला रहा था। उसकी पत्नी मारे प्यास के हलकान होती जा रही थी। आधी रात के करीब उसने अपनी गर्दन ओढ़ने से बाहर निकाली। गर्दन लम्बी होती गई। लगभग आधे घंटे में गर्दन लम्बी और लम्बी होती गई और खिड़की से भी बाहर हो गई। उसके बाद लगभग एक पहर बीता और उसका शरीर ठंडा हो गया। फिर गर्दन छोटी होते-होते अपने आकार तक आ गई और वापिस ओढ़ने में घुस गई। तनिक विश्राम लेने के बाद बेगम ने बादशाह के सीने को दिल की जगह चाटना शुरू किया।
सुबह बादशाह ने यह सारा हाल बुढ़िया को सुनाया। बुढ़िया बोली, "बादशाह सलामत, यह एक डाइन है। इसका भोजन आपका दिल है जिसे यह धीरे-धीरे चाट कर खत्म कर देगी।"
बादशाह हैरान रह गया। क्षण भर मौन के बाद बुढ़िया से पूछा, "अच्छा अम्मा! इस डाइन को खत्म करने की क्या युक्ति है?" बुढ़िया ने युक्ति बता दी। इसके बाद लोहार को एक चार पायों वाला मजबूत सन्दूक बनाने का हुक्म दिया गया। यह सन्दूक जब बनकर तैयार हुआ तो यह एक छोटे कमरे के बराबर था। इस सन्दूक के चारों पाये जमीन के अन्दर दबा दिये गए। इसके पश्चात् बादशाह अपनी बेगम को सैर के बहाने बाग में लाया और चहलकदमी करते हुए उस सन्दूक के पास पहुंचा और कहा, "देखो, गर्मियों के लिए मैंने कितना अच्छा सर्दखाना (ठण्डा कमरा) बनवाया है। इसके अन्दर बैठने वाले को गर्मी नहीं लगेगी।" बेगम बहुत प्रसन्न हुई और कहा, "जरा इसका ढक्कन तो खोल दीजिए, मैं भी देखूँ कि यह सर्दखाना अन्दर से कैसा है!" बादशाह ने ढक्कन खोला और बेगम सन्दूक के अन्दर चली गई। बादशाह इसी अवसर की ताक में था। बेगम के अन्दर घुसते ही बादशाह ने ढक्कन बन्द कर दिया!
लकड़ियों की लगभग एक हजार खारियाँ* लाकर इस सन्दूक के इर्द-गिर्द तथा ऊपर रखी गईं और आग लगा दी गई। इतना कुछ करने पर भी डाइन दो दिन तक नहीं मरी। अन्त में जब वह राख हो गई तो सन्दूक खोल दिया गया। इसमें राख का एक ढेर था। राख के छानने पर इसमें से एक सोने की रोटी-सी निकली। यह सोना बुढ़िया ने आधी बादशाही के बदले ले लिया।
अब बादशाह स्वस्थ होकर पुनः अपना राजकाज देखने लगा।
[कश्मीर की लोक कथाएँ, पृथ्वीनाथ 'मधुप', यात्री प्रकाशन, दिल्ली ]
शब्दार्थ
खारी = एक कश्मीरी तौल है, जो लगभग दो मन के बराबर होता है। |