जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
हँसो, जल्दी हँसो (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:कल्पना मनोरमा

एहसास की स्याही से कहानी लिखे तो ठीक, वरना कथ्य को चेज़ करते रहना टाइफाइड के लक्षणों जैसा लगने लगता है। कभी-कभी प्रकाशित आकांक्षाएँ मन जाग्रत करने में चूक जाती हैं और धुँधले निष्कर्ष सहायक सिद्ध हो जाते हैं। शनिवार ऑफिस से लौटकर, जल्दी सोने और सुबह देर से उठने का मन था। बिस्तर पर पहुँचने तक ख़याल साथ रहा। जब ऑंखें मूँदीं तो नींद हवा हो गयी। विचारों की पोटली खुलकर, मन के आँगन में बिखर गयी। मैं उठकर कमरे में घूमने लगी।

मानवीय दुःख, पीड़ा, परेशानी रात के नीरव बहाव में बहते जा रहे थे। मैं खिड़की में बैठ उजाले की तलाश में भटकने लगी। उम्र की डाल पर लगे अनुभव के सारे फल, एक साथ पकने, टपकने, फटने की प्रतीति कराने लगे। कमरे के नितांत अँधेरे सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक बज रही थी। जवान रात अपनी रवानगी पर थी। समय के संकुचन में सन्नाटे की सरसराहट थी। अचानक पक्षी चहक उठे। घड़ी पर नज़र डाली। रात के डेढ़ बज रहे थे। क्षितिज पर जिस ओर देख रही थी, एक तारा टूटकर, लकीर बनाता हुआ धरती पर आ गिरा।

"तारे टूटकर ज़मीन पर गिरते ही हैं तो लोग तारे क्यों बन जाते हैं..? क्या गज़ब का कॉम्बिनेशन बिठाया है, ऊपर वाले ने।" एक विचार उल्कापिंड-सा कौंधा।

रात के वीराने को चीरती हुई चौकीदार की सीटी चीखी। एक झुरझुरी के साथ मन सिहर उठा।

उसने कबीर की भाँति सोए हुओं को आगाह किया था। लगा, अँधेरा सब कुछ यकसां कर सकता है, आवाज़ें नहीं छिपा सकता। बीच पीठ में एक लकीर खींचती, महसूस हुई और रोएँ खड़े हो गए। रीता-रीता मन, अँधेरे में ज्योति खोजने लगा। अक्टूबर की भीगी रात, झींगुर की ताल पर थिरक रही थी। शीशम की टहनियाँ हिल-डुलकर कृत्रिम उजाले में, छाया के चकत्ते उकेर रही थीं। लाखों तारों के गुम्फन में एक, दो, तीन…तारों को तर्जनी से इंगित कर, माँ को टटोलने की कोशिश की।

“माँ, दिखो न..! कहाँ छिपी हो…? आज बहुत सारी बातें करनी हैं…।"

बहुत खोजने के बाद भी माँ को तारे में रोपित नहीं कर सकी। एक उदास भाव उठने को हुआ…तभी शीशम की अंतिम फुनगी पर, थरथराता हुआ एक चटक तारा चमका।

"ये माँ हैं..? नहीं… तो क्या ये नानी हैं?"  हाँ…हाँ..! ये नानी ही हैं। मेरी नानी हँसती बहुत थीं, बिल्कुल तारे की तरह। पहचानने में तनिक भी देर नहीं लगी।

हँसी पसंद नानी की बेटी यानी मेरी माँ! बहुत सोच-समझकर हँसती थीं। इसी बिना पर मुझे डाँटती थीं–-"नानी की तरह तुम दिन-दिन हँसती हो…! ज़रा तमीज़ सीखो कृपा। ज्यादा हँसना, माने अपने दुःख को पहचानने से इनकार कर देना है। उस पीड़ा को मौन पी जाना, जो अपने हिस्से की होती ही नहीं। हँसी, दुःख को ही नहीं, सिद्धांतिक समझ को भी खा जाती है।”    

ऐसा मेरी माँ को लगता था…जबकि हर छोटी-बड़ी बात पर… मैंने नानी को खूब-खूब हँसते देखा था। मुझे हँसना अच्छा लगने लगा था…। हँसने में सुकून था। अपने को भुलाने की कुव्वत थी।

हालाँकि जब मेरा अनुभव पका तो ज्यादा हँसना, बे-बात का हँसना, फ़ालतू का हँसना और अति के हँसने में अंतर समझ आने लगा था। साथ में ये भी कि नानी को कोई भी दुख, दुःखी नहीं कर सकता। कोई सुख, हँसी से ज्यादा कुछ दे नहीं सकता।

शायद इसीलिए उन्होंने अपने सुख-दुःख को हँसी के भाव से तौल लिया था।

अब–जब नानी की हँसी याद आ गयी, तो रात भी मुझे हँसती हुई-सी लगने लगी। रात की हँसी यानी शून्य का महाविलास। बिरला ही महसूस कर पाता होगा।

नींद में खलल न पड़े…सोचते हुए मैं बिस्तर की ओर लौट आई।

गाव तकिया का सहारा लेकर मैं बेड पर बैठ गयी। किताबों में से रघुबीर सहाय की कृति उठा ली। मौका पाते ही कवि कानों में फुसफुसाया—“हँसो हँसो, जल्दी हँसो...!”

“क्यों भई! हँसना इतना आसान है! जो कभी भी, कहीं भी हँस पडूँ…? बचपन की बात और थी!”

यादों की रेल से नानी की याद उतरने वाली थी…मेरे साथ यात्रा करने लगी।

बात उन दिनों की थी जब गर्मियों में शिमला, मनाली, लंदन-गोवा सब नानी के घर में सिमट आते थे।

वार्षिक परीक्षा खत्म होने की प्रतीक्षा पूरे वर्ष रहती। आठवीं की परीक्षा के बाद मैं भी नानी के घर गई थी। घर के बाहर अहाते में झूला बन चुकी चारपाई में नानी अकेली बैठी थीं।

सूरज पश्चिम की ओर यूकेलिप्टस की आड़ में अटका कसमसा रहा था।

दो-चार गौरैयाँ अहाते में फुदक कर दाना खोज रही थीं। नानी मुस्कुराते हुए ऊँगली उठाए हवा में गोल-गोल कुछ बना रही थीं। मुँह खोले हँसती जा रही थीं। मैंने चारों ओर देखा, दूर-दूर तक कोई नहीं था। माँ आगे बढ़कर नानी से चिपक कर बैठ गयीं। नानी ने हँसकर उन्हें पुचकार लिया। मामा बैग उठाये घर में चले गये।

“अरे कोई सुन रहा है? देवा आई है। ज़रा पानी ले आओ।” नानी ने माँ को टटोल कर जब तसल्ली कर ली तब मेरे बारे में पूछा।

”देवा, किरपा कहाँ है?”

माँ ने मेरा हाथ उन्हें पकड़ा दिया। नानी ने खींच कर मुझे भी अपने घुटने के पास बिठा लिया। और मेरे हाथ की उँगलियाँ, बाँहें, कंधे, सिर, माथा, कान हँसते हुए टटोलती रहीं। उस दिन नानी कुछ नहीं, बहुत ज्यादा! अजीब लगी थीं मुझे।

नानी को पहली बार जिंदगी को टटोलकर तलाशते हुए देख,मैं बेचैन हो उठी थी।

शाम आँगन में मामा, नाना, मामा के बेटे-बेटियाँ सब गप लगाते रहे। मेरा ध्यान नानी से हटकर कहीं लगा ही नहीं। रात भोजन के बाद सभी सोने चले गए। हमारा बिस्तर बड़ी मामी के कमरे में लगाया गया। जब मामी की नाक बजने लगी यानी वे सो गयीं…मैंने माँ से पूछा–

“माँ, नानी को कब से दिखना बंद हो गया है? या नानी जन्मांध हैं…?”

“जन्मांध...न! नहीं तो, किसने कहा तुमसे…?”

लैम्प की मद्धिम रोशनी में माँ का चेहरा बुझता हुआ दिखा। ज़रा-सी हवा लगते ही अपनों के दर्द कैसे सतह छोड़कर आँखों में तिर जाते हैं– देखा मैंने। नानी की पीड़ा को जब माँ की आँखों में टीभते पाया तो मैं खिसककर उनसे चिपक गयी। माँ की धड़कन बज रही थी। पता चला, साँसें प्रेम में ही नहीं, दुःख में भी बहुत शोर मचाती हैं। माँ टकटकी लगाए लैम्प की स्थिर लौ को देख रही थीं। उस दिन पता चला माँ के जीवन में जो अपने दुख हैं,उनमें से आधे दुखों का कारण नानी का अंधकार है।

मैंने माँ का रुख अपनी तरफ मोड़ते हुए कहा– “नानी के बारे में कुछ और बताओ न माँ!”

”क्या ही तुम्हें बाताऊँ? और क्या करोगी सुनकर ?"

"कुछ भी..! सुनना है मुझे!"

"कृपा, नानी अपने ज़मीदार पिता की इकलौती सन्तान थीं।”

उनके पिता बड़े चाव से जिंदगी जीने वाले रईस इंसान थे। नानी की माँ का देहांत उनकी कम उम्र में ही हो गया था। फिर भी उनके पिता ने दूसरी शादी नहीं की थी। बेटी की परवरिश चाची, ताई और भाभियों की मदद से करते रहे। नानी के पिता खाने-पीने के शौक़ीन थे। शुद्ध मावे के पेड़ों को भी वे पीतल की चाक़ू से छीलकर खाते थे। क्योंकि पेड़ों के ऊपर पड़ी पपड़ी उन्हें दो-चार दिनों में ही सख्त लगने लगती थी।

उनकी इस आदत ने पेड़ों के छिलके खाने वालों की एक जमात इकट्ठी कर दी थी। उसी चहल-पहल में नानी का दिन निकल जाता। तुम्हारी नानी अपने पिता के साथ हिली-मिली थीं। वक्त के साथ आँख-मिचौली करते जब वे दस वर्ष की हुईं… इस शर्त पर उन्हें ब्याह दिया गया कि गौना, सोलह साल होने पर दिया जायेगा। जैसा उनके पिता ने चाहा वैसा ही हुआ।

सोलहवें साल में सौ बीघे ज़मीन की मालकिन बनकर नानी ससुराल आ गईं और बिना किसी अकड़-धकड़ के नाना की गृहस्थी सम्हालने लगीं। समय की पीठ पर डोलते-डोलते हवाएँ भी निशान छोड़ जाती हैं। नानी पहले दो से तीन हुईं। फिर चार और देखते-देखते दस बच्चों की माँ बन गयीं। तेज़-तर्रार सास के साथ भी वे इतनी शांति और सामंजस्य से जीती गयीं कि बिना किसी दबाव के उनके सुबह-शाम ढलते-उगते रहे।” कहते-कहते माँ अचानक मौन हो गयीं।

“माँ! पर नानी अपनी बात पर खुद ही क्यों हँस पड़ती हैं? ये तो बुरी बात होती है न!”

“हाँ, होती तो है…! लेकिन रात के अँधेरों से ज्यादा दिन के अँधेरे खतरनाक होते हैं। दिन का अँधेरा कमरे के कोने ही नहीं, मन को भी अँधेरे से भर देता है। जहाँ न चाँद जादुई रंगत बिखेरता है। न तारे टिमटिमाते हैं। और न ही इनमें रात के जैसी आत्मीयता होती है। दिन के अँधेरों के फेर में पड़कर नानी अपने आपको भूलती जा रही हैं।" माँ ने निंदासी उबासी लेकर करवट बदल ली। मेरा मन शांत हुआ तो नाक हरकत में आ गयी। मुझे अजीब सी गंध महसूस हुई। उठकर खुली खिड़की से झाँका तो अहाते में पक्की नाली से बू उठ रही थी। उसी को हवा बहाकर मेरे कमरे तक ला रही थी।

“नानी वहाँ कैसे लेट सकती हैं….? वहाँ से कितनी बदबू आ रही है।” कहते हुए मैंने माँ को अपनी ओर खींचा। उदासी ने उन्हें और दबा लिया, वे नहीं बोलीं। रात का सन्नाटा मेरे कानों में सांय-सांय बज उठा। सहमकर मैंने भी आँखें मूँद लीं।

“कृपा सो गईं तुम?”

“नहीं…..!”

दूसरी रात में माँ ने वही बात फिर छेड़ी, "जो तुम देख रही हो वही सच है हमारा, तुम्हारी नानी का। नानी के जीवन में अँधेरा बिना किसी संकेत और प्रमाण के आ डटा है। हँसते-मुस्कराते आधा जीवन बुनते-बुनते एक दिन उन्हें दीए की ज्योति में किरणें फूटती-सी दिखने लगीं। लेकिन जीवन अघटित को भी सह लेता है।"

जब नानी ने अपनी आँखों के बारे में बताया तो जानकारों ने मोतियाबिंद उतर आने की बात कही थी।

उम्र के अधरस्ते पहुँचते हुए नानी के कई बेटे-बेटियाँ गृहस्थी वाले हो चुके थे। आँखों में मोतियाबिंद की सफेदी फ़ैलना आम बात थी। क्योंकि इस मर्ज़ का इलाज़ संभव हो चुका था।

पर कलकल बहती मीठी नदी को परिस्थियाँ भीतर की ओर मोड़कर ही दम लेगीं। नहीं जानते थे हम।

एक बात का मलाल हमेशा बना रहेगा। उन्हें डॉक्टर को दिखाने का निर्णय देर से लिया गया। आँखों का ऑपरेशन सीतापुर आई-हॉस्पिटल में करवाने का जब निश्चय किया तो नाना ने सोचा कि एक ही साथ दोनों आँखों का ऑपरेशन करवा दिया जाए। बार-बार अस्पताल आने के झंझट से बच जायेंगे। हम सब अंजान थे इसलिए खुश थे।

पट्टी खुलने का दिन आया तो डॉक्टर ने पूरी सावधानी से पट्टी भी खोली।

दोनों हथेलियाँ मलते हुए उसने चाव से नानी से पूछा–-"माताजी आँखें खोलकर बताइए कैसा दिख रहा है?"

“इधर देखिए मेरी ओर! बताइए कितनी उँगलियाँ हैं…?”

"अरे! आँखें तो खोलो डाक्टर।" नानी ने कहा।

डॉक्टर को जैसे करेंट छू गया। नाना ने बताया था…उसका चेहरा फक्क पड़ गया। आगे झुककर उसने अपना हाथ नानी की आँखों के आगे ऊपर-नीचे किया। लेकिन नानी ने पलकें नहीं झपकाईं। चारों ओर सन्नाटा खिंच गया। कुछ मिनटों तक कोई किसी से बोल न सका।  

”माताजी एक बार खिड़की के बाहर देखने की कोशिश कीजिए।” डॉक्टर ने खेद सहित कहा।

“कुँए में झाँकने पर जैसा दिखता है, वैसा ही कुछ…।"

नानी, जीवन के दावानल में भीगी लकड़ी-सी धुंधक उठी थीं, जान कोई नहीं सका। क्लिनिक में देखने वालों ने महसूस किया कि वे खुश हैं।

डॉ. ने हाथ मसलते हुए कहा– “आई एम सॉरी, सो सॉरी। इट इज वैरी सेड! ऐसा होना नहीं चाहिए था। इस फ़ील्ड में काम करते हुए मुझे बीस वर्ष हुए…पर ऐसा केस तो कभी नहीं हुआ।”

अँधेरे की छटपटाहटें डॉक्टर के चेहरे पर पसर गईं। मगर ये कोई नहीं जान पाया कि नाना अपने निर्णय पर शर्मिंदा थे भी या नहीं।

कुछ दवाइयों के साथ आँखें गँवा, काली ढक्कनदार पट्टी बँधवाकर नानी घर लौट आयीं।

उसके बाद नानी के जीवन की विधि जो बिगड़ी, उन्होंने क्या! किसी ने भी कभी नहीं सोचा था।

लोग बताते रहे कि नाना पूजा के दौरान कई दिनों तक चुपके-चुपके रोते रहे थे।

मुझे कभी सच नहीं लगा। बताने को लोग कुछ भी बता देते हैं। …जो महिला न कभी खद्दर पर रीझी…न सिल्क के लिए मचली….उसने अपनी आँखों का जाना भी सहज स्वीकार लिया था। अचंभा तो इस बात का था।

उनके जीवन में पहले वस्तुओं ने, फिर व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जगहें बदल लीं। नानी किसी गरीब की तरह बस सारा दिन हँसी को धोने-सुखाने में गुजारने लगीं।

अँधेरे के साथ सामंजस्य बैठाने के बाद नानी को पहले आवाजें प्रिय हुईं। फिर जब खामोशियों की झिड़कियाँ सुनाई पड़ने लगीं, तो हर उस मौके पर वे हँसकर उसकी अहमियत गिराने लगीं… जो उनके लिए अनिवार्य और कीमती रहा था।लम्हा-लम्हा नानी के सुख-दुःख हँसी में बिलाते चले गए।

ज़ाकिर हुसैन तबले की रियाज़ के लिए जितने प्रतिबद्ध होंगे…नानी निरंतर हँसी के लिए प्रयासरत रहने लगीं। और देखते-देखते उनकी साँसों में हँसी जीवन की तरह उतर गई।

अँधेरे से भरे ठोकर खाए दिनों की शुरुआत में जब वे एक जगह बैठे-बैठे ऊब जातीं तो दीवारों का सहारा लेकर चल पड़तीं। और किसी न किसी से टकराकर फिर बैठ जातीं। हाथों से दीवारों को टटोलती। कानों को दीवार से लगाकर जीवन की आहट लेतीं। देखने वालों का मन बैठ जाता। आँगन में बैठ कर जब वे चौके की ओर दीदे फाड़ कर देखतीं तो मन होता कैसे अपनी आँख से थोड़ी-सी रोशनी लेकर अम्मा की आँख में रख दूँ। कोई किसी को पुकारता तो उसकी दिशा में उठ पड़तीं। टकरा जातीं। माथे पर चोट फूल आती। बैठकर सहलाते हुए ज़ोर से हँस पड़तीं।

उनके दिन-रात इतने हँसने लगे कि लोगों के दिलों से उनकी बेचैनियाँ तिरोहित होती चली गईं।

इतने पर भी दुःख का मन नहीं भरा। वह ज्यादा नुकीला होकर उन्हें छलने लगा। दर्द छिपाने में उनका हँसना तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। इस तरह गहन दुख के एक-दो दृश्यों में नहीं…नानी दयनीयता की पूरी पिक्चर में बदल गईं।

माँ ने सिसक कर मेरी ओर से पीठ फेर ली थी।

मेरी माँ को हमेशा लगता रहा कि उनकी माँ अर्थात नानी अपनी पीर छिपाने के लिए हास-परिहास का चोंगा, जबरन पहने रहती हैं। वरना किसी न किसी से तो उन्हें शिकायत होती। कभी तो मन का क्षोभ उगल लेतीं। मन का बोझ हल्का कर लेतीं। लेकिन नानी को न बहू, न बेटे, न उनके बच्चों से शिकायत थी। न ही ऊपर वाले के प्रति नाराज़गी। मानो दुनिया के सारे दुःख एक तरफ और नानी की हँसी एक तरफ।

फिर जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी– देखा,नानी के हिस्से की धूप जब–सब में बंट गई तो नानी अपने हिस्से की गुनगुनाहट अकेले तलाशने के लिए मजबूर होती चली गयीं। अपने परिवार के सुख-दुःख की उलीचन में नानी अपनी पीड़ा हँसते हुए गूँदने लगीं।

घर के चेहरे पर जो स्थाई रूप से तनाव था…पिघल गया। सभी अपनी ओर लौटे और नानी सबकी ओर… लेकिन वे पहुँची कहीं नहीं।

इतने पर भी समय अपनी भड़ास उगलता रहा।

नानी को पूरी तरह दिखना बंद हो गया। उन्हें सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी की जरूरत पड़ने लगी। लोगों की खिसियाहट पारा की तरह बढ़ने लगी। इसकी भनक जल्दी ही नानी को लग गयी। उन्होंने अपने कामों को आगे की ओर स्थगित करना सीख लिया।

अब वे खुद ही अपने कपड़ों को टटोलकर पहचानने का प्रयास करतीं और बिना कँघी-चोटी हफ़्तों-हफ़्तों गुज़ार देतीं। जुएँ उनके स्थाई संगी बन गए थे।

खाना खिलाने वाले अकसर झुँझलाकर दाल-सब्ज़ी, दही एक साथ थाली में उड़ेल देते। उन्हें दिया जाने वाला गिलास भर दूध,पानी का साथी हो गया। तीन कपड़ों में से उनका साथ सबसे पहले ब्लाउज ने छोड़ा। नामुराद ऐसे कहीं दब जाता कि खोजे नहीं मिलता। अब बिन बटनों के ब्लाउज का खोना ही ठीक था। उसके बाद जब पेटीकोट भी समय से नहीं मिलने लगा… तो द्रोपदी की तरह वे एकवस्त्रा हो गयीं। और जीवन भर गाँठ बाँधकर धोती पहनती रहीं।

धोती उनके प्रति सदा समर्पित बनी रही। कारण उसे खँगाल कर नानी गुसलखाने के पास खूँटी पर जैसी  टाँग देतीं, वैसी ही उन्हें मिल जाती।

मैंने बहुत बार देखा— गरमी की धूप उनके पायताने घंटों खड़ी रहती। दिन के तीसरे पहर भी नहाने को उन्हें मिलता तो भी वे उफ़ तक न करतीं। चप्पल पलंग के पास न मिलने पर नंगे पाँव चल पड़तीं। तलवों में कुछ गड़ जाता तो उनके हँसने में इजाफ़ा हो जाता। प्यास जब गला खरोंचती तो उनकी हँसी का ताप बढ़ जाता।

इस बात का अंदाजा मेरी माँ को हुआ था जब उन्होंने ख़ुद प्यास लगने पर अचानक पूछ लिया था–-"अम्मा पानी पियोगी?”

नानी दो गिलास पानी एक साथ गटक गयी थीं। नानी के मौन पर माँ स्तब्ध थीं। फिर तो उनकी उम्र ज्यों-ज्यों ढलती गयी, सुबह से लेकर शाम तक उन्हें हर बात के लिए अपनी बारी का इंतज़ार रहने लगा। वहीं उनकी हँसी अपना दायरा बढ़ाती चली गयी।

माँ कभी-कभी अचानक बोल पड़तीं–-“कृपा, नानी की हँसी के नीचे अनगिनत ज़िन्दा नासूर हैं। काश! कोई हँसी का लिहाफ़ उठाकर मरहम लगा देता!”

दुनिया की नंगी सच्चाई…आँख वालों से ज्यादा बिना आँख वाले साफ़ देख लेते हैं। मुझे नानी को देखकर समझ आ गया था। उसके बाद नानी के घर जब भी जाना हुआ, उन्हें नहलाना, बालों में कँघी करना, घर में इधर-उधर घुमाना, मैं अपने जिम्मे ले लेती थी।

जब आँखें मींचे नानी हँसी में लहालोट नज़र आतीं… तो उन्हें नीले आसमान की रंगत, भोर की नारंगी धूप, अबोध मुस्कान, अपनी हथेली पर मेंहदी दिखाने को मेरा मन मचल उठता। मगर उम्र की ढलान पर नानी पहले से ज्यादा हँसने और सोने लगी थीं।

उनकी छाती से पल्ला सरकता तो मुझे बहुत झेंप लगती। एक दिन मैंने उनसे कहा–-"नानी आप ब्लाउज पहनने लगो। मुझे अच्छा नहीं लगता।”

“अच्छा ठीक है किरपा ! अपनी आजी की अँगिया लेती आना…।” कहकर नानी तेज़-तेज़ हँसने लगी। 

एक दिन नानी अपना हाथ चौखट पर रखे थीं, उसी समय किसी ने दरवाज़ा खोल दिया। उनकी कानी ऊँगली दब गयी। नाख़ून नीला पड़ गया। देखने वाले कराह उठे। नानी उस टीसती नील पर भी हँसती रही थीं।

"नानी, हँसने और रोने में कितना अंतर होता है..? आप इतना क्यों हँसती हो? जबकि आपके मुँह में एक भी दाँत नहीं, जिन्हें देखकर कोई दूसरा भी हँस सके..?" इस बार मैंने उनसे गुस्से में पूछा था। 

“किरपा,रोना किसी को सीखना नहीं पड़ता। हँसी सीखने में उम्र निकल जाती है। अब जबकि हमें हँसना आ ही गया है तो आखरी दम तक बस हँसती रहूँ..सोचती हूँ।”

कहते-कहते नानी रुक गईं। उनके शब्दों की आँच मेरे मन को तपाने लगी थी। उनकी हँसी मेरे भीतर हिल्की बनकर उभरना चाह रही थी। तब तक नानी ने टटोलकर मुझे अपनी गोद में खींच लिया और अपनी नरम हथेली से मेरा माथा सहलाकर हँसने लगीं।

नानी के काले वर्तमान ने विस्तृत हो मुझे ढँक लिया।

गरमी की छुट्टियाँ फिर आई थीं। नानी के घर जाने की तैयारियों में माँ जुटी थीं। तभी ननिहाल से खबर आई–“नानी नहीं रहीं— उनकी मृत्यु का कारण डॉक्टरों ने अति ख़ुशी बताया था।”

"माँ, ऐसी कौन-सी ख़ुशी थी जो नानी सहन नहीं कर सकीं…?" मैंने पूछा।

“तुम चुप रहोगी? एक! दम! चोsप…! जाओ एक तरफ बैठो जाकर….!”

रोते हुए माँ ने इतनी व्यग्र कठोरता से कहा कि मेरी अधपकी भावुकता चटख गयी।

मैं जानती थी कि उत्तर उन्हें मालूम था मगर वे देना नहीं चाहती थीं। मैं जाकर दूर बैठ गयी। रोते-रोते माँ ज़मीन पर उँगलियाँ चला रही थीं। जैसे कुछ लिख रही हों। क्या लिख रही होंगी…? नानी की हँसी या उनका दुख… जिसे नानी ने हँसी की परतों में छिपा रखा था….?

"ठक ठक ठक….."

चौकीदार के डंडे की आवाज़ें मुझे वर्तमान में लौटा लाईं।

नज़र घड़ी पर पड़ी तो महसूस हुआ कि रात अपने अंतिम चरण में डोल रही थी। रघुबीर सहाय की कविता ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ की किरचें अर्थ के साथ मेरे जेहन में धँस चुकी थीं।

किताब बंदकर मैंने तकिया के नीचे खिसका दी और आँखें मूँद लीं।

-कल्पना मनोरमा, भारत
 
ई-मेल: kalpanamanorama@gmail.com

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