जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
निकम्मी औलाद | लघुकथा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:रेखा शाह आरबी 

"आइए जगमोहन जी, बैठिए और बताइए क्या हाल-चाल है?" अपने पड़ोसी जगमोहन सिंह  को कुर्सी देते हुए गुप्ता जी ने कहा। 

"सब ठीक है। बस आजकल घुटनों में थोड़ा दर्द बढ़ गया है.. अब उम्र भी तो हो चली है। घर का राशन-पानी और साग-भाजी लाने में ही दम फूलने लगता है। खैर, यह तो उम्र के साथ होना ही है। आप अपनी बताइए, अपना हाल-चाल बताइए!" कुर्सी पर बैठते हुए जगमोहन जी बोले।

"अपना भी ठीक ही चल रहा है। खेती-किसानी अच्छी  चल रही है, काम चल जाता है। आप जितना भाग्यशाली तो नहीं हूँ कि जैसे आप के दोनों बेटे उच्च पदों पर कार्यरत हैं। भगवान ने एक ही औलाद दी और वह भी निकम्मी निकली। इतना पढ़ने-लिखने के बावजूद भी कहीं जाकर कुछ करने के लिए तैयार नहीं है।" अपना दुखड़ा गाते हुए गुप्ता जी बोले।

"गुप्ता जी, शुक्र मनाइए कि आपके पास एक निकम्मी औलाद है, जो आपकी वृद्धावस्था में  कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। आपके दुख-सुख में आपका साथ देने के लिए आपके पास दिन-रात है। वरना काबिल औलादें अक्सर माँ-बाप के मरने के बाद पड़ोसियों के सूचना देने पर आती हैं।" जगमोहन फीकी हँसी हँसते हुए बोले।

"बाबू जी, इतना दिन चढ़ आया है और अभी तक आपने अपनी दवाई नहीं ली!" गुप्ता जी का बेटा उनके हाथ में दवाई और पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोला।

पता नहीं जगमोहन के कहने का असर था या ऐसे ही पर गुप्ता जी को आज अपनी औलाद निकम्मी नहीं लग रही थी।

रेखा शाह आरबी 
बलिया (यूपी )
ई-मेल :  rekhasahrb@gmail.com

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