माँ | मुन्नवर राना के अश़आर
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती, बस एक माँ है जो कभी ख़फ़ा नहीं होती
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इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
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मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना
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ऐ अँधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया, माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया
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किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई
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मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ मां से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
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अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा, मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
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जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
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ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता, मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी माँ सज़दे में रहती है।
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'मुनव्वर' माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
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