19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरू में दो महान भारतीयों रवींद्रनाथ टैगोर और मोहनदास कर्मचंद गांधी के बीच एक संबंध और गहरा तादात्म्य स्थापित हो गया। वे दोनों भारतीयता, मानवता और प्रबंधन से मुक्ति के समर्थक थे। उनके बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1941 में अपनी जेल डायरी में लिखा- ''गांधी और टैगोर, जो पूरी तरह एक-दूसरे से अलग प्रकार के थे और दोनों भारत के विशिष्ट व्यक्ति थे, की गणना भारत के महान पुरूषों में होती है।.... मैंने बहुत लंबे समय से यह महसूस किया है कि वे आज विश्व के असाधारण व्यक्ति है। निसंदेह, ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो उनसे अधिक योग्य और अपने-अपने क्षेत्रों में उनसे महान प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। वे किसी एक गुण के कारण नहीं, बल्कि उनके सामूहिक प्रभाव के कारण मैंने महसूस किया कि गांधी और टैगोर आज विश्व के महान व्यक्तियों में मानव के रूप में सर्वोत्तम व्यक्ति थे। यह मेरा सौभाग्य था कि मैं उनके निकट संपर्क में आया।
टैगोर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने गांधी को महात्मा या महान आत्मा के नाम से पुकारा। उन्होंने कहा कि गांधी जी के आह्वान पर भारत नई महानताओं को उसी प्रकार छूने लगा जैसे पहले के समय में बुद्ध ने सच्चाई और प्राणियों के बीच भाईचारा और सद्भाव की घोषणा की थी। ''गांधी जी ने उन्हें महान संत या 'गुरूदेव' के नाम से पुकारा।
बाहरी विश्व के सामने टैगोर ने महात्मा गांधी को भारत की आध्यात्मिक आत्मा के रूप में प्रस्तुत करने में कभी हिचकिचाहट महसूस नहीं की। उन्होंने 1938 में चीन के मार्शल चेन काई सेक यह कहते हुए लिखा कि नैतिक गड़बड़ी के इस निराशाजनक अवसर पर हम लोगों के लिए यह आशा करना स्वाभाविक है कि इस महाद्वीप को जिसने दो महान व्यक्तियों बुद्ध और ईसा मसीह को पैदा किया, मानवता की दुर्बुद्धि की वैज्ञानिक धृष्टता के समक्ष नैतिकता की पवित्र अभिव्यक्ति को बनाये रखने के अपने दायित्व को अब भी पूरा करना चाहिए। क्या वह अभिलाषा गांधी के व्यक्तित्व में पूर्ति की पहली चमचमाती किरण के रूप में दिखाई नहीं देती। चेन काई सेक ने पत्र का उत्तर देते हुए टैगोर को ''रेस्पेक्टेड गुरूदेव टैगोर'' के नाम से संबोधित किया था।
दक्षिण अफ्रीका में काम कर रहे एक बंगाली कवि और एक गुजराती बैरिस्टर के बीच संबंध कैसे विकसित हुए। इस बारे में टैगोर की जीविनी लिखने वाले प्रभात कुमार मुखर्जी ने बताया है कि 1912-13 में एक गुजराती बैरिस्टर मोहनदास कर्मचंद गांधी प्रवासी भारतीयों पर अत्याचार के प्रति प्रतिरोध प्रकट करने के लिए दक्षिणी अफ्रीका में सत्याग्रह आयोजित करने में व्यस्त थे। गांधी और टैगोर के साझा मित्र एक ब्रिटिश पादरी और कवि सी एफ एन्ड्रयूज इस आंदोलन पर नजर रखने के लिए जा रहे थे। टैगोर ने एन्ड्रयूज को लिखा आप अफ्रीका में महात्मा गांधी और अन्यों के साथ हमारे हितों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
कवि और कर्मयोगी की 6 मार्च 1915 को पहली बार भेंट हुई। गांधी जी शांतिनिकेतन व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। गांधी चाहते थे कि छात्र अध्ययन के साथ-साथ अपना काम स्वयं करें। उन्होंने महसूस किया कि नौकरों, बावर्चियों, झाड़ू लगाने वालों या पानी लाने वालों की कोई जरूरत नहीं। जब गांधी जी की इच्छा टैगोर को बताई गई तो वे बिना हिचकिचाहट के उस पर राज़ी हो गए। उन्होंने घोषणा की, ''सब काजे हाथ लगाई मोरा।'' नई व्यवस्था 10 मार्च 1915 को शुरू हुई, जिसे टैगोर ने टैगोर आश्रम में ''गांधी दिवस'' के रूप में घोषित किया। इस बीच गांधीजी स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। इसके लिए उन्होंने अहिंसा और असहयोग आंदोलन को अपनाया। इस प्रकार उन्होंने कांग्रेस के पहले 30 वर्षों के याचिका और संविधानपरकता के आंदोलन को बदल कर उसे कार्यवाई आंदोलन का रूप दे दिया। 1921 में टैगोर का, 'प्रयोग में लाये जाने वाले आंदोलन के स्वरूपों के बारे में' गांधी जी के साथ विवाद हो गया।
उन्होंने स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार करने और यहां तक कि विदेशी कपड़ों को जलाने का विरोध किया। सी एफ एन्ड्रयूज को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा ''युवा छात्रों का एक दल मुझ से मिलने आया था। उन्होंने कहा कि यदि वे उन्हें स्कूल छोड़ने का आदेश दें तो वे उसका पालन करेंगे। मैंने उसे जोरदार तरीके से अस्वीकार कर दिया। वे क्रुध होकर चले गए। उन्हें मातृ भूमि के लिए मेरे प्रेम की सच्चाई पर संदेह हो गया। मेरे अस्वीकार करने का कारण था ''रिक्तता की अराजकता मुझे कभी प्रलोभित नहीं कर पाई। मतभेदों के बावजूद टैगोर गांधीजी की भावना और उनके द्वारा भारतीयों के जीवन में लाए गए अत्याधिक परिवर्तन को नमस्कार करते हैं, परंतु उनके पद चिन्हों का अनुसरण नहीं करना चाहते थे। तथापि रवींद्रनाथ, गांधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने में नहीं हिचकते थे। उन्होंने कहा ''गांधी जी अपने जैसे हजारों वंचितों की दहलीज पर रूके। वे उनकी अपनी भाषा में बोले। अन्तत: यह जीता जागता सत्य था, न कि किसी पुस्तक से उद्धृत। इसके लिए उन्हें भारत के लोगों ने महात्मा नाम दिया, जो कि उनका वास्तविक नाम है।
रवींद्रनाथ ने एक बार गांधी जी के उस आह्वान की चर्चा की कि प्रतिदिन आधा घंटा चरखा चलाना चाहिए। टैगोर ने कहा कि यदि इससे देश को स्वाधीनता या स्वराज्य प्राप्त करने में सहायता मिलती है तो साढ़े आठ घंटे क्यों न चलाया जाए। दोनों में इस पर सहमति न हो सकी।
20 मई, 1932 को महात्मा ने पिछड़ी जाति के हिंदुओं के लिए चुनावों में अलग प्रतिनिधित्व के विरोध में यरवदा जेल में भूख हड़ताल की। टैगोर ने गांधीजी को तार भेजकर कहा ''भारत की एकता और उसकी सामाजिक अखंडता की ख़ातिर अमूल्य जीवन का बलिदान करना सही है, हालांकि इसका शासकों पर क्या असर पड़ सकता है। इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते हैं। हमारे लोगों के लिए यह कितना महत्वपूर्ण है, हो सकता है वे इसे न समझ पायें। हमें विश्वास है कि हमारे अपने देशवासियों को की गई यह महान अपील व्यर्थ नहीं जाएगी। मुझे पूरी आशा है कि हम इस प्रकार की राष्ट्रीय दुर्घटना को अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचने देंगे। हमारे दुःखी मन आप की उच्च तपस्या का सम्मान और प्रेम के साथ अनुसरण करेंगे। गांधीजी ने टैगोर के तार की चर्चा करते हुए उत्तर दिया कि मैंने सदा भगवान की अनुकम्पा को महसूस किया है। आज बहुत सवेरे मैंने आप का आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए पत्र लिखा है। अभी-अभी आपका जो संदेश प्राप्त हुआ है, उसमें आपका आर्शीवाद प्रचुर मात्रा में दिखाई दे रहा है।
गांधीजी ने उसी दिन गुरूदेव रवींद्रनाथ को यह कहते हुए पत्र लिखा कि इस समय मंगलवार को प्रात: के तीन बजे हैं। मैं आज दोपहर को अनशन करने जा रहा हूं। इसमें मुझे आपका आर्शीवाद चाहिए। आप मेरे सच्चे मित्र रहे हैं, क्योंकि आप स्पष्टवादी मित्र हैं। अवसर अपने विचार जोर से बोलते हैं। मुझे आपसे परिपक्व राय की आशा रही है, परंतु आपने आलोचना करना अस्वीकार कर दिया है हालांकि अब यह मेरे अनशन के दौरान हो सकती है। तथापि मैं अभी भी आप की आलोचना को महत्व दूंगा, यदि आप का हृदय मेरे कार्य की आलोचना करे। मैं अपनी गलती को स्वीकार करके कोई बड़ा काम नहीं कर रहा हूं, फिर चाहे मुझे अपनी गलती स्वीकार करने की कोई भी कीमत चुकानी पड़े, आप हृदय से मेरे कार्य या कदम का अनुमोदन करेंगे तो मैं इसे आपका आर्शीवाद समझूंगा। यह मुझे बनाए रखेगा। मैं आशा करता हूं कि मैंने अपने आपको स्पष्ट कर दिया है।
मेरे प्रिय, ''गांधी जी ने इस पत्र के साथ एक नोट भी संलग्न किया।'' मैं जैसे ही यह पत्र अधीक्षक को सौंप रहा था, मुझे आपका सप्रेम और शानदार तार प्राप्त हुआ। यह मेरे अनशन के दौरान मेरा मनोबल बनाये रखेगा, जो मैं शुरू करने वाला हूं। (स्रोत: रवींद्र रचनावली, खंड 14)
अनुसूचित जातियों के लिए चुनावों में अलग से प्रतिनिधित्व गठित करने के लिए ब्रिटिश प्रस्ताव के विरूद्ध यरवदा जेल में अनशन कर रहे महात्मा गांधी के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित रवींद्रनाथ टैगोर उन्हें स्वयं मिलने के लिए पुणे पहुंचे। महात्मा जी ने अपने बेटे को टैगोर को अंदर लाने के लिए भेजा। उस समय तक ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी की मांग को स्वीकार कर लिया था और अनशन कर रहे नेता ने उस दिन दोपहर तक मौन रखा और वे अनशन तोड़ने पर सहमत हो गए। कमला नेहरू ने जूस तैयार किया और कस्तूरबा गांधी ने गांधी जी को उसे पिलाया। महात्मा जी ने टैगोर से स्व रचित एक गीत गाने का अनुरोध किया। उन्होंने गाया -
"जीवन जखां सुखईकरूणाघराई ऐसो"
टैगोर ने उस दिन के अपने अनुभव को महात्मा गांधी पर लिखित अपनी पुस्तक में शामिल किया।
पुणे में गांधी के जन्म दिवस पर टैगोर ने शिवाजी मंदिर में एक बैठक में भाग लिया। बैठक की अध्यक्षता मदन मोहन मालवीय ने की, जहां उन्होंने अपना लिखित भाषण पढ़ा और महात्मा जी के छुआछूत उन्मूलन आंदोलन को पुरजोर समर्थन दिया।
महात्मा गांधी शांति निकेतन में टैगोर के स्कूल और विश्वविद्यालय में चार बार गए। दो बार कस्तूरबा गांधी के साथ और दो बार अकेले गए। 1936 में रवींद्रनाथ अपनी नृत्य नाटक मंडली के साथ दिल्ली पहुंचे। इसके पहले वे इलाहबाद और लखनऊ गए थे। उनका उद्देश्य विश्व भारती के लिए धन एकत्र करना था। विश्व भारती उन दिनों आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही थी। महात्मा गांधी को यह देखकर निराशा हुई कि उनके गुरूदेव को इस वृद्धावस्था में धन एकत्र करने के लिए इधर-उधर जाना पड़ रहा है। गांधी जी उनसे मिले और धन की व्यवस्था कर दी। टैगोर की मृत्यु से एक वर्ष पहले 1940 में गांधी जी कस्तूरबा गांधीजी के साथ बीमार कवि को मिलने के लिए गए, जहां टैगोर ने उन्हें अपनी अनुपस्थिति के बाद विश्व भारती का कार्यभार अपने हाथ में लेने का अनुरोध किया। स्वाधीनता के बाद 1951 में विश्व भारती को केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में भारत सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया।
रवींद्रनाथ ने कोलकाता में कांग्रेस के कई अधिवेशनों में भाग लिया, जहां उन्होंने गीतों की रचना की और उन्हें गाया भी। 1911 में कांग्रेस के अधिवेशन के दूसरे दिन 'जन गण मन' सर्वप्रथम गाया गया।
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साभार- पसूका फीचर
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