'प्रसन्न रहना तो बहुत सहज है, परन्तु सहज रहना बहुत कठिन' ‑ रवीन्द्रनाथ टैगोर
रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861 - 1941) ब्रह्म समाज के नेता देबेन्द्रनाथ टैगोर के सबसे छोटे पुत्र थे। वे कलकत्ता के एक धनी व प्रसिद्ध परिवार में पैदा हुए थे। उनके दादा ने एक विशाल वित्तीय साम्राज्य खड़ा किया था। टैगोर ने आरंभिक शिक्षा पहले घर में शिक्षकों से प्राप्त की और उसके बाद विभिन्न स्कूलों में। इनमें बंगाल अकादमी शामिल है जहां उन्होंने इतिहास और संस्कृति की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद वे कानून की पढ़ाई के लिए यूनीवर्सिटी कॉलेज, लंदन गए, लेकिन मौसम रास न आने की वजह से एक साल बाद ही वापस आ गए।
जब वे बड़े हो गए तो उन्होंने अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ‑साथ खानदानी जायदाद की भी देखभाल की, जिसके कारण लोगों से उनका नजदीकी संपर्क हुआ और सामाजिक सुधार के प्रति उनकी रुचि बढ़ी। उन्होंने शांतिनिकेतन में एक प्रायोगिक स्कूल भी शुरू किया जहां उन्होंने अपने औपनिषदिक आदर्शों पर आधारित शिक्षा आरंभ की।
टैगोर को अपने गृहराज्य बंगाल में जल्द ही सफलता मिल गई थी। अपनी कविताओं के अनुवाद के कारण वे जल्द ही पश्चिमी देशों में जाने जाने लगे। वास्तव में उनकी प्रसिद्धि प्रकाश की तरह हर तरफ फैल गई और वे व्याख्यान दौरों व दोस्ताना दौरों पर विदेशों में जाने लगे। पूरी दुनिया के लिए वे भारत की आध्यात्मिक विरासत के प्रतीक थे, और भारत के लिए व खासतौर से बंगाल के लिए वे महान जीती जागती संस्था के रूप में हो गए थे।
यद्यपि टैगोर ने साहित्य की हर विधा में कामयाबी के साथ लेखन किया है लेकिन वे कवि पहले थे, और कुछ बाद में। उनके पचास के आसपास काव्यसंग्रह हैं जिनमें मानसी (1890), शोनार तारी (1894), गीतांजलि (1910), गीतमाल्या (1914) और बालका (1916) हैं। उनकी जिन कविताओं का अनुवाद हुआ, उनमें दी गार्डनर (1913), फ्रूट‑गैडरिंग (1916), दी फ्यूजीटिव (1921), गीतांजलि:सॉंग ऑफरिंग्स (1912) को बहुत लोकप्रियता मिली। गीतांजलि:सॉंग ऑफरिंग्स जब प्रकाशित हुई तो उनकी प्रसिद्धि अमेरिका और इंग्लैंड में फैल गई। इस कविता में अलौकिकता और मानवीय प्रेम की गाथा है। कवि ने स्वयं अपनी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
टैगोर के प्रमुख नाटकों में राजा (1910), डाकघर (1912), अचलयातन (1912), मुक्तधारा (1922), रक्तकरावी (1926) शामिल हैं। उनकी कहानियों के कई संग्रह हैं और उपन्यासों की संख्या भी बहुत है। इनमें गोरा (1910), घरे‑बाइरे (1916), योगायोग (1929) शामिल हैं। इन सबके अलावा उन्होंने संगीतमय नाटक, नृत्य नाटिकाएं, सभी प्रकार के निबंध, यात्रा डायरियां और दो आत्मकथाएं लिखी हैं। इन दो आत्मकथाओं में से पहली उनकी प्रौढ़ावस्था और दूसरी 1941 में उनके देहावसान के कुछ पहले के वर्षों से संबंधित हैं। टैगोर ने तमाम पेंटिंग्स और रेखाचित्र भी बनाए हैं। उन्होंने गीत लिखे और उनकी धुनें भी तैयार कीं।
'जब बूझ ले कोई तुझे, तब कोई अजाना नहीं, बंद कोई दरवाजा नहीं। हे, पूरी कर प्रार्थना मेरी कि दुनिया के मेले में कभी न भूलूं मैं सिमरन तेरा।'
(गीतांजलि से)
टैगोर एक समर्पित शिक्षाविशारद थे और उन्होंने अपनी रियासत शांतिनिकेतन में पूर्वी और पश्चिमी दर्शनों की मिलीजुली शिक्षा देने के लिए 1901 में एक स्कूल स्थापित किया था। सन् 1921 में उनके स्कूल का विश्व भारती के रूप में अंतर्राष्ट्रीय विस्तार हुआ। उन्होंने पूरी दुनिया की यात्रा की और व्याख्यान दिए। विश्व भारती पश्चिमी और भारतीय दर्शन व शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र था और 1921 में वह विश्वविद्यालय बन गया।
1890 में टैगोर पूर्वी बंगाल (वर्तमान में बांग्लादेश) चले गए, जहां उन्होंने किम्वदंतियों और लोक कथाओं का संकलन किया। उन्होंने 1893 और 1900 के मध्य कविताओं के सात खंड लिखे जिनमें शोनार तारी (1894), खनिका (1900) और नश्तानीर (1901) शामिल हैं जो पहले धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुईं। यह समय टैगोर का अत्यंत सृजनशील समय था और उन्हें 'बंगाल का शैली' के रूप में जाना जाने लगा था जो एक भ्रामक संज्ञा थी।
टैगोर आधुनिक भारतीय साहित्य के महानतम लेखक, बंगाल के कवि, उपन्यासकार और भारत की आजादी के आरंभिक समर्थक थे। उन्हें 1913 में अपने काव्य गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके दो वर्षों बाद उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की गई जिसे उन्होंने 1919 में अमृतसर के जालियॉंवाला बाग नरसंहार के विरोध में वापस कर दिया था। गांधी और आधुनिक भारत के संस्थापकों के ऊपर टैगोर का बहुत प्रभाव था लेकिन पश्चिम में उनकी छवि रहस्यवादी आध्यात्मिक व्यक्ति की थी जिसके कारण पश्चिमी देशों के पाठक शायद उनकी उपनिवेशवाद के आलोचक और सुधारक की भूमिका को नहीं देख पाते।
70 वर्ष की आयु में टैगोर ने पेंटिंग करना शुरू किया। वे संगीतकार भी थे और उन्होंने सैकड़ों कविताओं का संगीत तैयार किया। उनकी कई कविताएं वास्तव में गीत हैं और संगीत से इन गीतों का रिश्ता अटूट है। टैगोर का गीत 'आमार शोनार बांग्ला' बंग्लादेश का राष्ट्रगान है। जो कुछ भी उन्होंने लिखा है, उसे अब तक पूरी तरह संकलित नहीं किया जा सका है। बहरहाल, ये लगभग 30 खंडों के बराबर हैं। टैगोर 1920 के दशक तक पश्चिम में प्रख्यात और लोकप्रिय लेखक के रूप में जाने जाते रहे हैं।
भारतीय साहित्य पर टैगोर की कहानियों का बहुत प्रभाव पड़ा है। उनकी कहानी 'दण्ड' गांव की पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसे हर तरह के कहानी संकलनों में सम्मिलित किया जाता रहा है। इसमें कमजोर जाति के रुई खानदान की त्रासदी के जरिए औरतों के उत्पीड़न को पेश किया गया है। टैगोर की प्रमुख विषयवस्तु मानव द्वारा ईश्वर और सत्य की खोज से संबंधित है।
1916 और 1941 के बीच टैगोर के गीतों और कविताओं के 21 संकलन प्रकाशित हुए। इसके साथ ही उन्होंने यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान और इंडोनेशिया के व्याख्यान दौरे किए। सन् 1924 में उन्होंने देश के सांस्कृतिक केंद्र विश्व भारती विश्वविद्यालय का शांतिनिकेतन में उद्घाटन किया।
टैगोर ब्रिटिश राज के अधीन भारत की सामाजिक‑राजनैतिक स्थिति से गहराई से परिचित थे। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया और वे 19वीं शताब्दी के भारत के धार्मिक पुनर्रुत्थान से बहुत गहरे प्रभावित थे। दुर्भाग्य से 1902 और 1907 के बीच टैगोर ने अपनी पत्नी, बेटे और बेटी को खो दिया। इस दुख से उनकी कुछ अत्यंत संवेदनशील कविताएं पैदा हुईं। मिसाल के तौर पर गीतांजलि जो 1910 में प्रकाशित हुई थी। टैगोर वास्तव में एक देशभक्त थे जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन किया था। उन्होंने 'जन गण मन' की रचना की जो आज भारत का राष्ट्रगान है।
टैगोर की कृतियॉं उत्कृष्ट साहित्य की कोटि में आती हैं। वे अपनी लयात्मक सुंदरता और आध्यात्मिक मार्मिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। टैगोर अपनी साहित्यिक मेधा के लिए याद किए जाते हैं और शांतिनिकेतन आज प्रगति के मार्ग पर बढ़ता जा रहा है। टैगोर के अपने शब्दों में, 'विश्व मुझसे रंगों में प्रश्न करता है और मेरा आत्मा संगीत में उत्तर देता है।' आजाद जलधारा के रूप में बहने वाली उनकी कविताओं की गहरी प्रतीकात्मकता एक ऐसे सुंदर ब्रह्माण्ड का सृजन करती है जहां ईश्वर का असीम प्रेम और सभी सुंदर चीजों के प्रति मानवता की गहरी संवेदना व्यक्त होती है।
कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को 'गुरुदेव' के रूप में जाना जाता है। उन्होंने भारत की आध्यात्मिक धरोहर को आत्मसात किया था, और इसे उन्होंने अपनी अनुपम भाषा में व्यक्त किया। वे हमारे महान देशभक्तों में से थे और उन्होंने शैक्षणिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से सदैव अपने देशवासियों के कल्याण को प्रोत्साहन दिया। वे ऐसे महापुरुष थे जिसने चित्रकला, संगीत, नृत्य और नाटक के विकास में शानदार योगदान किया। उन्होंने संसार के कई देशों का कामयाब दौरा किया और हर जगह उभरते हुए भारत का संदेश पहुंचाया।
-तड़ित मुखर्जी
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