"ऐ! इधर लाइन में खड़े हो।" वह सकपकाकर सर झुकाए वहीं बैठा रहा। सभी को खिचड़ी, चटनी, अचार बाँटते हुए बहुत गदगद थे वे। अपनी संस्था का नाम हर दिन अखबारों के पन्नों पर देखना नित्य क्रिया का अहम हिस्सा बन गया था। खिचड़ी भरे कलछुल के साथ फैले हुए हाथों के दोनों में उतरती उनकी तस्वीरें! वे सेल्फी ले नहीं पा रहे थे। पर उनके दानवीर साथी मोबाइल का जबरदस्त उपयोग कर रहे थे। लगे हाथों उन साथियों के भी पौ बारह।
सफलता की मुस्कान उनके होंठों की कोरों पर सजी रहती। प्रत्येक दिन किसी ना किसी अखबार में छपीं तस्वीरें उनकी उदारता के बखान के लिए काफी थीं।
बहुत देर से किनारे बैठा एक शख्स अपनेआप में गुम था। गंदे बिखरे केश, धूल सने कपड़े, टूटी चप्पलें, पपड़ाए होंठ, काला पड़ गया चेहरा! उन्होंने फिर आवाज दी, "ऐई! इधर आओ, तभी मिलेगी। मैं उतनी दूर से कस्बे में आया हूँ। तुम इतने पास से उठकर नहीं आ सकते।"
फिर उन्होंने दनादन फोटो खींचनेवाले साथी से कहा, "अरे! उस भिखारी को यहाँ ले...। "
" ... साहब! हम भिखमंगा नहीं, अपने गाँव लौटनेवाले मजदूर हैं। हाँ, मजबूर हैं लेकिन भिखारी नहीं।" उनकी बात पूरी होने से पहले वह बिफर पड़ा।
-अनिता रश्मि |