जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
पहचान (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:अनिता रश्मि

"ऐ! इधर लाइन में खड़े हो।" वह सकपकाकर सर झुकाए वहीं बैठा रहा। सभी को खिचड़ी, चटनी, अचार बाँटते हुए बहुत गदगद थे वे। अपनी संस्था का नाम हर दिन अखबारों के पन्नों पर देखना नित्य क्रिया का अहम हिस्सा बन गया था। खिचड़ी भरे कलछुल के साथ फैले हुए हाथों के दोनों में उतरती उनकी तस्वीरें! वे सेल्फी ले नहीं पा रहे थे। पर उनके दानवीर साथी मोबाइल का जबरदस्त उपयोग कर रहे थे। लगे हाथों उन साथियों के भी पौ बारह।

सफलता की मुस्कान उनके होंठों की कोरों पर सजी रहती। प्रत्येक दिन किसी ना किसी अखबार में छपीं तस्वीरें उनकी उदारता के बखान के लिए काफी थीं।

बहुत देर से किनारे बैठा एक शख्स अपनेआप में गुम था। गंदे बिखरे केश, धूल सने कपड़े, टूटी चप्पलें, पपड़ाए होंठ, काला पड़ गया चेहरा! उन्होंने फिर आवाज दी,
"ऐई! इधर आओ, तभी मिलेगी। मैं उतनी दूर से कस्बे में आया हूँ। तुम इतने पास से उठकर नहीं आ सकते।"

फिर उन्होंने दनादन फोटो खींचनेवाले साथी से कहा, "अरे! उस भिखारी को यहाँ ले...। "

" ... साहब! हम भिखमंगा नहीं, अपने गाँव लौटनेवाले मजदूर हैं। हाँ, मजबूर हैं लेकिन भिखारी नहीं।" उनकी बात पूरी होने से पहले वह बिफर पड़ा।

-अनिता रश्मि

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश