हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
खोट | लोक-कथा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:भारत-दर्शन संकलन

एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफ़ी थक चुकी तो पास से जाते हुए एक घुड़सवार से दीनतापूर्वक बोली-'भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़े पर रख ले और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहाँ दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ, मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती ।'

घुड़सवार ऐंठकर बोला--'हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते फिरें? और यह कहकर वह आगे बढ़ गया।'

बुढ़िया बिचारी धीरे-धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर घुड़सवारको ध्यान आया कि गठरी छोड़कर बड़ी ग़लती की, गठरी उस बुढ़िया से लेकर प्याऊवाले को न देकर, यदि में आगे चलता बनता, तो कौन क्या कर सकता था? यह ध्यान आते ही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़िया के पास आया और बड़े मधुर वचनों में बोला-'ला बुढ़िया माई, तेरी यह गठरी ले चलूं, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है, प्याऊ पर देता जाऊँगा।'

बुढ़िया ने गठरी देने से इनकार कर दिया तो घोड़े वाले ने अचरज से कहा,'अब किस कारण मन बदल गया?'

'जिस कारण तुम्हारा बदल गया!'

बुढ़िया बोली- 'बेटा, वह बात तो गई, जो तेरे दिल में कह गया है वह मेरे कान में कह गया है। जिसने तेरी मति पलटी, उसी ने मेझे भी मति दी। जा अपना रास्ता नाप ! मैं तो धीरे-धीरे पहुँच ही जाऊँगी।'

घुड़सवार मनोरथ पूरा न हुआ और वह अपना सा मुँह लेकर अपने रास्ते हो लिया।

[भारत-दर्शन संकलन]

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