डब्बू ने इक सपना देखा चाँद सैर पर जाने का। उड़ता हुआ चाँद पर पहुँचा बड़ा मज़ा उड़ जाने का।
लेकिन जब वो चाँद पे पहुँचा वहाँ पड़ा पूरा सुनसान। न घर थे न बाग़ बगीचे मौसम भी खुद से अनजान
बड़े बड़े मिट्टी के टीले उबड़ खाबड़ रस्ते थे न पंछी न कोई जानवर न पढ़ाई के बस्ते थे।
हवा वहाँ नहीं चलती थी न बादल न रँग थे। न नदियाँ न झरने सुंदर न ही मित्र कोई सँग थे।
न मम्मी न पापा दिखते न भोजन न पानी डब्बू बाबा लगे सिसकने याद आ गई नानी।
फिर धीरे से मम्मी ने डब्बू को पुचकारा। सपना टूटा आँख खुली मम्मी से लिपटा बेचारा।
एक ह्रदय का टुकड़ा होता दूजा जीवन की पहचान।
-डॉ सुशील शर्मा, भारत ईमेल-archanasharma891@gmail.com |