कई दिनों से वे दोनों मजदूर चौक पर आते थे। पूरा-पूरा दिन बिता देते थे मगर उनकी दिहाड़ी नहीं लगती थी। माहौल में एक अजीब तरह की तल्खी और सिहरन थी। इंसानों के वहशीपन को प्रशासन ने डंडे की चोट से शांत तो करा दिया था मगर कुछ लोग खासे असंतुष्ट थे। उन्हें खुलकर वह सब करने का मौका नहीं मिल पाया था जो वे करना चाहते थे। दंगे के प्रभाव से मजदूर चौक भी अछूता नहीं रहा था क्योंकि दंगे के दिन ही सात मजदूर मार दिए गए थी। उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे एक ऐसे इलाके में मजदूरी करने गए थे जहां उनके धर्म के लोगों की आबादी कम थी। जिस तरह रोटी की जरूरत साझी होती है, उसी तरह नफरत की विरासत भी साझी थी। लोगों को जब मारने के लिए कोई और न मिलता थे तो अपने इलाके में आये दूसरे धर्म के मजदूरों पर ही हमला करके उनको अधमरा कर देते थे। ये सिलसिला बढ़ा तो मजदूरों ने अपने-अपने इलाके में ही मजदूरी करना बेहतर समझा। मगर मजदूरी के अवसर मजहब देख कर पैदा नहीं होते। नतीजा कई दिनों तक उन दोनों को मजदूरी नहीं लगी। दोनों रोटियाँ लेकर आते फिर दोपहर में सब्जी बाँट लिया करते थे। बीड़ी, तमाखू की अदला-बदली करके बिना दिहाड़ी लगाए घर लौट जाते। हालात बिगड़े तो सब्ज़ियां आनी बन्द हो गयीं, अमल-पत्ती के भी लाले पड़ गए। किसी दिन बरसाती अली रोटियां लाता तो किसी दिन घसीटालाल। उन दोनों को अपनी पसंद के इलाके में मजदूरी ना मिली और दूसरे इलाकों में जाने पर जान का खतरा था। उनके घरों में रोटियां पकनी बन्द हो गयीं और वे खाली पोटलियों के साथ आते और नाउम्मीद होकर लौट जाते। उन्हें मौत अवश्यंभावी नजर आ रही थी, एक तरफ दंगाइयों से मारे जाने का भय दूसरी तरफ भूख से मर जाने का अंदेशा।
बरसाती को कुछ सूझा, उसने घसीटा को बताया। मरता क्या ना करता। बरसाती ने शाम को ये बात अपने घर वालों को बतायी, पहले तो उन लोगों ने बड़ी आनाकानी की मगर मजबूरी में वो लोग तैयार हो गए। वही बात घसीटा ने अपने घर वालों को बताई तो वे लोग भी इस पाप कर्म के लिए आसानी से राजी ना हुए मगर पापी पेट के आगे वे सब भी विवश हो गए।
अगले दिन बरसाती अली घसीटालाल के मोहल्ले की तरफ मजदूरी करने गया और अधमरा होकर अस्पताल पहुंच गया। उसे घसीटालाल के परिवार वालों ने घेरकर बहुत बुरी तरह से मारा था। इस घटना के एक दिन बाद घसीटा लाल बरसाती के मोहल्ले में मजदूरी करने गया तो उसे बरसाती के परिवार वालों ने मार-मार कर बेदम कर दिया। दोनों अस्पताल में भरती थे। उन दोनों के धर्म के लोगों ने उनकी फ़ौरी तौर पर माली मदद की। सरकार ने भी दंगा पीड़ित के तौर पर उनकी सुध ली और अब उन्हें सहानभूति के तौर पर एक बड़ी रकम की मदद मिलने की उम्मीद है हुकूमत से।
वे दोनों अब एक ही अस्पताल में भर्ती हैं। अब भी उनके घर से खाना आता है तो दीन-दुनिया से नजर बचाकर, वे अपनी सब्ज़ियां बाँट लेते हैं क्योंकि उनके घाव भी साझा थे और रोटियां भी।
-दिलीप कुमार ईमेल: jagmagjugnu84@gmail.com
*लेखक उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में जन्में और लखनऊ एवं महाराष्ट्र में पढ़ाई की। आपके दो कथा संग्रह, एक लघुकथा संग्रह,एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। एक व्यंग्य संग्रह, एक उपन्यास व एक कथा संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। आप कहानी, व्यंग्य, लघुकथा, उपन्यास विधाओं में सृजन करते हैं। लेखन हेतु कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। |