सुबह से कई बार स्वप्निल का मोबाइल बजा था किन्तु, वह बिना देखे ही कॉल बार-बार काट देता।
इतवार, फ़ुरसत का दिन। हँसी-ख़ुशी और मौज-मस्ती करने का दिन। पेट क्या, आलू के पराँठे और दही खाकर, आत्मा तक तृप्त हो गई स्वप्निल की। नेटफ़्लिक्स पर पसंदीदा फिल्म चल रही थी। मोबाइल फिर बज उठा। मूड न होते हुए भी उसने झुंझलाकर फोन उठाया तो देखा कि पापा का फोन है। ओफ्फो! फिर से! परसों कह तो दिया था कि अभी न आ सकूँगा। ऑफिस में ज़रूरी मीटिंग है। पापा ने एक बार आकर माँ को देख लेने और सुदेशना को भेजने की बात कही थी ताकि माँ का ख्याल रख सके। पर, स्वप्निल ने रुखाई से यह कह कर कि बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं, सुशी न आ सकेगी। छोटे भाई सुमेश और उसकी पत्नी को बुलाने और नर्स का प्रबंध करने की बात कह कर फोन काट दिया था। अब क्या हो गया जो फिर से फोन... ज़रा भी चैन नहीं है। उसे झुंझलाहट हुई लेकिन आवाज़ में भरपूर मिठास घोलते हुए उसने धीरे से कहा--'हैलो पापा! कै..से..हैं?" वाक्य पूरा भी न हुआ था कि दूसरी ओर से आवाज़ आई--"तुम्हारी माँ चल बसी।"
"ओह! अरे! कब! कैसे! क्या हो गया?" एक साथ कई प्रश्न जड़ दिए उसने।
"अभी! दस मिनट पहले"। फोन काटा जा चुका था।
"जाना ही पड़ेगा।" उसने पत्नी को तैयारी करने के लिए कहा जो पापा का नाम सुनते ही तनाव में आ चुकी थी।
कुछ ही देर में स्वप्निल नयी दिल्ली से अलीगढ़ के लिए हड़बड़ी में सपरिवार कार से निकल चुका था।
छोटा भाई सुमेश सपरिवार, पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार सभी आ चुके थे। एक ओर पापा चुपचाप शांत मुद्रा में बैठे थे। कमरे के बीचो-बीच एक बड़ा सा गोल लाल रंग का घेरा बना हुआ था जिसके एक किनारे पर स्वस्तिक का चिह्न बना था। रुमाल जितने बड़े सफ़ेद रंग के कपड़े के नीचे कुछ ढका हुआ रखा हुआ था। कपड़े के ऊपर सफ़ेद फूल रखे हुए थे। कमरा अगरबत्ती व धूपबत्ती के सुगन्धित धुएँ से भरा था। गायत्री मंत्र की धुन दुखमय वातावरण को पवित्र बना रही थी। सब चुप और शांत।
स्वप्निल ने कमरे में नज़रें दौड़ायीं और आश्चर्य मिश्रित नज़रों से पापा के कान में कंपकपाते स्वर में फुसफुसाया -"पापा, माँ?"
पापा ने घेरे की ओर इशारा किया। कुछ भी न समझते हुए डरते दिल से उसने धीरे से कपड़ा उठाया। पीतल की थाली में कागज़ का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा रखा था। आश्चर्य से स्वप्निल ने कागज़ उठाया और खोलकर पढ़ने लगा--
"प्रिय बच्चों! तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को बस एक बार देखने की चाह लिए दुनिया से विदा हो रही हूँ। कई वर्षों से देखा नहीं था न..बहुत ज़रूरी ही काम होगा जो न आ पाए तुमलोग। खैर...मैं अपने शरीर और अंगों को ज़रूरतमंदों व शिक्षार्थियों के शोध हेतु समर्पित कर रही हूँ। तुम्हारे पापा ने सब इंतजाम कर दिया है। अंतिम संस्कार के तौर पर कागज़ के इस टुकड़े को भी पुनर्चक्रण (रीसायकल) के लिए दे देना। ईश्वर करे, तुम्हारा बुढ़ापा तुम्हारे बच्चों संग हँसी-ख़ुशी गुज़रे। आशीर्वाद! तुम्हारी माँ"
"तुम लोग आ जाते एक बार तो इस पत्र के नहीं, अपनी माँ के अंतिम दर्शन कर पाते।" पापा धीरे से बोले।
स्वप्निल हाथ में फड़फड़ाते उस कागज़ के टुकड़े से शब्दों को विसर्जित होते देख रहा था। उसका बेटा कोने में बैठा मोबाइल पर गेम खेल रहा था।
डॉ॰ पूनम चंद्रलेखा, मेरठ, भारत मो: 9433700506 ईमेल : ppathak30@gmail।com |