पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्त्र गुना अच्छी है। - अज्ञात।
साहिब-ए-कमाल गुरूगोविन्द सिंह जी (विविध)  Click to print this content  
Author:बलजिन्द्र सिंह बराड़

गुरूगोविन्द सिंह जी

20 जनवरी 2021 (पौष शुक्ल सप्तमी) गुरू गोविन्द सिंह जयन्ती विशेष

"कलगीयां वालिया करां की सिफ्त तेरी । कागज कलम तों तुहाडा आकार वड्डा, सारी उम्र नां लथनां इनसानां तों, ईनसानी कौम उते तुहाडा उधार वड्डा।।"

अर्थात् गुरू गोविन्द सिंह जी के बारे में लिखना मुश्किल है क्योंकि इनके बहुरूपी बलिदानी पात्र को कागज कलम से नहीं उकेरा जा सकता। आपके एहसान का कर्ज इंसानी उम्र पर है हि इतना बड़ा की जो पूरी उम्र में नहीं उतारा जा सकता।

आपके जीवन के बारें में लिखते समय समझ नहीं आता है कि आपके जीवन के किस पक्ष के बारे में लिखा जाए! दशमेश पिता साहिबश्री गुरू गोबिन्द सिंह जी आप सर्ववंश दानी, संत सिपाही, महान योद्धा, सफल नेतृत्वकर्ता, सामाजिक-आध्यात्मिक-राजनैतिक चिंतक, श्रेष्ठ साहित्यकार, बहुभाषी विद्वान, दया-क्षमा-प्रेम-विनम्रता-परोपकार आदि उच्च मानवीय गुणों के मूर्तरूप, शरणदाता आदि सद्गुणों से विभूषित एक सम्पूर्ण व आदर्श व्यक्तित्व थे।

गुरू गोविन्द सिंह का संक्षिप्त परिचय

नाम : गोविन्द राय (गुरू गोविन्द सिंह)
पिता : हिन्द-ए-चादर (गुरू तेगबहादुर जी)
माता : माता गुजरी जी।
जन्म : 22 दिसम्बर 1666(जूलीयन कलैण्डर के अनुसार) । पौष शुक्ल सप्तमी (विक्रम सम्वत 1723)। देहावसान- 07 अक्टूबर 1708 (जूलीयन कलैण्डर के अनुसार)। कार्तिक शुक्ल पंचमी (विक्रम सम्वत 1765)।
जन्म स्थान : पटना साहिब, बिहार।
पुत्र : 1.शहीद अजीत सिंह 2.शहीद जुझार सिंह 3.शहीद जोरावर सिंह 4.शहीद फ़तेह सिंह।

उपनाम/उपाधियां : आपको साहिब-ए-कमाल, दशमेश, कवि, बादशाह दरवेश, सरबंसदानी (सर्व वंशदानी), संत-सिपाही, महादानी, कलगीधर, बाजां वाले, आपै गुरू चेला, शाहे शहनशाह, मर्द अगमड़ा आदि नामों से जाना जाता है।

आप हिन्द-ए-चादर श्री गुरू तेगबहादुर की इकलौती सन्तान थे। आपने अपना सम्पूर्ण परिवार धर्म की रक्षा और जुल्म के खिलाफ अपनी ऑंखों के सामने न्यौछावर कर दिया। विभिन्न इतिहासकारों, विद्वान लेखकों के अलावा कनिंघम जैसे पश्चिमी इतिहासकार एवं विद्वान ने भी लिखा है कि शौर्य, पराक्रम और बलिदान की ऐसी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलेगी।

प्रसिद्ध इतिहासकार व विद्वान श्री गोकुल चंद नारंग लिखते हैं कि गुरू गोविन्द सिंह जी केवल आदर्शवादी ही नहीं बल्कि व्यवहारिक व यथार्थवादी आध्यात्मिक गुरू थे जिन्होनें मानवता को त्याग, शांति, प्रेम, एकता, समानता, संघर्ष एवं समृद्धि का महान उदाहरण पेश किया।

आपके जीवन को संक्षिप्त में मुख्यतः 6 भागों में जानने का यत्न है:

पुत्र के रूप में
आपको एक आदर्श सुपुत्र के रूप में देखा जाए तो आपके जैसा कोई पुत्र नहीं है जिन्होंने अपने पिता से हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मात्र 9 साल की उम्र में शहीद होने का आग्रह किया हो। हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाए जाने पर कश्मीरी पण्डितों के आग्रह पर कि हमारे सामने ये शर्त रखी गयी है कि कोई ऐसा महापुरूष जो इस्लाम स्वीकार न कर अपना बलिदान भी दे सके तो आप सबका भी धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा। उस समय आप 9 साल के थे । आपने पिताजी गुरू तेग बहादुर जी से विनयपूर्वक निवेदन किया कि पिताजी आपसे बड़ा बलिदानी और कौन हो सकता है। 11 नवम्बर 1675 को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से श्रीगुरू तेग बहादुर जी का सिर कटवा दिया। इस प्रकार हिन्दु धर्म की रक्षा के लिए श्रीगुरू तेग बहादुर जी को हिन्द ए चादर नाम दिया गया। इसका वर्णन आप स्वयं करते हैं कि:

"सिर देना ते मुहों ना सी करनी । ईह है मौत दे नाल रीत साडी।।
 जिउना मरनां तां जानदा है जग सारा। बन्द बन्द कटवोना तां है रीत साडी।।"

पिता के रूप में 

आप जैसा महानतम् पिता कोई नहीं है जिन्होनें खुद अपने चारों बेटों को देश, धर्म के लिए अपनी आँखों के सामने वार दिये 2 बेटों (साहिबजादा अजीत सिंह 17 वर्ष व साहिबजादा जुझार सिंह 15 वर्ष )को चमकौर के युद्ध में शस्त्र दिए और जुल्म के खिलाफ़ दुश्मन का सामना करने को कहा। इस युद्ध में दोनों बड़े साहिबजादे वीरगति को प्राप्त हो गए। 2 छोटे बेटों (साहिबजादा जोरावर सिंह 7वर्ष व साहिबजादा फतेह़ सिंह 5वर्ष ) को धर्म ईमान के लिए अडिग रहना सिखाया। इस्लाम न कबूलने पर इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा कर गला रेत दिया गया। छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर माता गुजरी जी ने अकाल पुरख को इस गर्वमयी शहादत के लिए शुक्रिया किया और अपने प्राण त्याग दिए। इस प्रकार माता गुजरी व छोटे साहिबजादे भी न्यौछावर हो गए। चारों बेटों की शहादत पर दुश्मन की सेना के सैनिक ने प्रभावित होकर पूछा कि लोग पत्थरों को पूजकर पुत्र मांगते हैं आपने तो पुत्र ही दीवार में चुनवा दिए।

"कलगीयां वालेया तेरे हौंसले सी अखां साहमने पूत शहीद करवा दिते।
 लौकी लबदै ने लाल पत्थरां चों ते तूसी लाल ही पत्थरां विच चिनवा दितै।।"
इस पर गुरू गोविन्द सिंह जी कहते हैं:
"इन पुतरन के सीस पर वार दिए सुत चार। चार मुऐ तो क्या हुआ जीवत कई हजार।।"
चारों साहिबजादों की शहादत पर उर्दू शायर ने लिखा है:
"बस एक हिन्द में तीर्थ है यात्रा के लिए
 कटाए बाप ने बच्चे जहां खुदा के लिए"

लेखक/कवि के रूप में
आप तलवार के साथ कलम के धनी भी रहे हैं। आप वीर रस के ओजस्वी कवि के रूप में जाने जाते हैं। आप संस्कृत, पंजाबी, उर्दू, फारसी,पश्तो सहित विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता थे। आपने स्वयं श्रीगुरूग्रन्थ साहिब को पूर्ण रूप दिया। लेखन शैली से आपकी बहुआयामी सोच को समझ पाना आसान बात नहीं है। आपने अपनी आत्मकथा पुस्तक "वचित्र नाटक"(बचितर नाटक) नाम से लिखी है। इसके साथ जाप साहिब, चण्डी दी वार, तव प्रसाद सवैये, अकाल उस्तत, चौपई, खालसे दी महिमा, शस्त्र नाम माला, ज्ञान प्रबोध, 24 अवतार, शब्द हजारे, मंगल प्रकाश आदि प्रमुख रचनाएं लिखी हैं। "दशम ग्रंथ" आपकी रचनाओं का संकलित ग्रन्थ है। आपने 1708 में 52 "हुक्मनामा" लिखा है जिसमें खालसा के लिए आदर्श जीवन के 52 तरीके बताए हैं। आपके दरबार में बहुभाषी 52 कवि भी रहे हैं। 1705 में छोटे साहिबजादों की शहादत के तरीके को जानकर आपने फारसी भाषा में औरंगजेब के नाम एक पत्र लिखा जिसे "जफ़रनामा" के नाम से जाना जाता है, जो कि लेखन शैली की एक नायाब कृति है। जिसे स्वयं औरंगजेब पढ़कर रोने लगा।

आपकी लेखन कार्य की बानगी भी धर्म निरपेक्ष रही है उदाहरण स्वरूप:-
"साचु कहों सुन लेहु सभै जिन प्रेम किउ तिन ही प्रभ पाइओ।।"

हिन्दु, तुर्क कोउ राफजी ईमाम साफी मानस की जात सबैं एक पहिचानबौ।

त्यागी के रूप में
एक त्यागी के रूप में आपको देखा जाए तो आप आनन्दपुर का सुख वैभव छोड़कर, मां की ममता, पिता का सम्मान, बच्चों का मोह, धर्म एवं देश हित में आसानी से त्याग कर मुगल सेना से टक्कर लेने को निकल पड़े। सिरसा नदी के किनारे पर रात के समय में सारा परिवार बिछुड़ गया। नदी के वेग में आपका सिख धर्म से सम्बंधित बहुमूल्य साहित्य भी बह गया। आनन्दपुर साहिब के किले को छोड़कर मात्र 42 सिख सैनिकों के साथ आपने चमकौर का युद्ध लड़ा। आपके सहर्ष त्याग के जज्बे को आपकी लेखनी बयां करती है: 

"देह शिवा वर मोहि ईहो शुभ करमन ते कबहूँ न टरों।
ना डरों अरि सों जब जाई लरों निश्चै कर आपणी जीत करों।
अर सिख हो आपने ही मन को इह लालचरो गुण तउ उचरों।
जब आव की अउध निदान बनै अत ही रन मैं तब जूझ मरों।।"

महान योद्धा के रूप में 
सर्ववंशदानी पर्याय आपके बारे में बहुत कुछ जाहिर करता है। आपको एक योद्धा के रूप में देखा जाए तो हैरानी होती है कि आप अपने हर तीर के साथ दो तौला सोना लगाकर रखते थे ताकि आपके तीर से हताहत हुए का ईलाज हो सके अगर उसकी मौत हो गई तो अन्तिम संस्कार हो सके। आप जोश के साथ होश का तालमेल बनाकर रखते थे। आप जोश के लिए लिखते हैं-

"चुंह कर अज हमह हिलते दर गुजशत।
हलाल अस्त बुरदन ब शमशीर दस्त।।"
(जब जुल्म रोकने के सारे रस्ते काम न आएं तब हाथ में तलवार उठा लेनी चाहिए)
होश के लिए आप लिखते हैं:-
"मजन तेग बर खुन कस बे दरेग।
तुरा नीज खुँ चरख रेजद घतेग।।"
(कि असहाय और गरीब पर उठाई तलवार आप खुद का खून बहाएगी )
"सूरा सौ पहचानिये जो लड़े दीन के हेत पुर्जा पुर्जा कट मरे कबहुँ न छाडे खेत।"
की भावना के साथ आपने स्वयं व अपनी फौज को तैयार कर मुगलों व पहाड़ी राजाओं के साथ लड़ाईयां लड़ी जिनमें भंगानी, नादौन, गुलेर, आनंदपुर, निर्माहगढ़,बसोली,सरसा,चमकौर व मुक्तसर के युद्ध प्रमुख हैं। बहुत सारे युद्धों में मुगलों की लाखों की सेना के सामने आपके नेतृत्व में गिनती के सिख सैनिकों ने लड़ाईयां लड़ी जिसे आपने कुछ यूं उकेरा है-

"सवा लाख ते एक लड़ाउॅँ, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाउँ।
 तबै गुरू गोबिन्द सिंह नाम कहाउँ।"

चमकौर का युद्ध भारतीय इतिहास का वह ऐतिहासिक युद्ध है जिसमें गुरू साहिबान स्वयं व दो बड़े साहिबजादे व 40 अन्य सिंह थे। 22 दिसम्बर 1704 को लड़े गए इस अनोखे युद्ध में मात्र 43 सिक्खों ने वजीर खां के नेतृत्व वाली 10 लाख मु़गल सैनिकों की सेना के मंसूबे पर पानी फेर दिया। इस युद्ध में गुरुजी व मात्र दो सिंह जीवित बचे थे। यह युद्ध सिक्खों को विजय प्रदान कर गया।

पराक्रम के साथ सौम्यता को धारण करने वाले गुरू गोविन्द सिंह जी ने एक युद्व के मैदान में अपने सैनिक भाई घनिया जी को मुगल सेना के घायल सैनिकों को भी पानी पिलाने को कहा। आपने कहा कि हमारी लड़ाई जुल्म के खिलाफ़ है किसी जाति, धर्म या व्यक्ति विशेष के विरूद्ध नहीं है।

महान गुरू के रूप में
गुरू रूप में भी आपकी महिमा अपरंपार है। आप सिक्खों के दसवें गुरू होने के साथ ही आपने सिखों के चरणों में बैठकर अमृत की दात मंगाई और वचन दिया कि मैं आपका सेवक हूँ जो हुकुम दोगे मंजूर करूंगा। तभी कहा गया है-

"वाहु प्रगटिओ मरद अगंमड़ा वरियाम अकेला।
वाहु वाहु गोबिन्द सिंह आपे गुरू चेला।।"

आपने 13 अप्रैल 1699 (वैशाखी वाले दिन) को भक्ति और शक्ति के संगम से खालसा पंथ बनाया जो कि सिख इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन है। आपने खालसा सृजन के लिए आह्वान किया:
"है कोई सिख बेटा जो करे शीश भेटा।
बेअंत शीश चाहिए सो जल्द जल्द आइए।।"

तदोपरान्त गुरूजी के आदेश की पालना के लिए शीश देने को तत्पर युवक अलग-अलग जगह से अलग-अलग जाति वर्णों के उठ खड़े हुए जिनमें लाहौर से खत्री, दिल्ली से नाई, गुजरात से जाटव, उड़ीसा से धोबी, बीदर (कर्नाटक) से अहीर थे। गुरूजी ने इन्हें खण्डे बाटे का अमृत पिलाया व खुद उनसे पीया। इस प्रकार आपने सामाजिक एकता अपनाने, छुआछूत की बुराई को त्यागने और "मानस की जात सबै एक पहिचानवौ" का महासन्देश दिया। और शब्द उकेरे--

"रहनी रहे सोई सिख मेरा,
ओ साहिब मैं उसका चेरा।।"
(मर्यादा में रहने वाला सिख ही मेरा गुरू है व मैं उसका चेला)

गुरूजी ने फिर आदि ग्रन्थ श्री गुरू ग्रन्थ साहिब को सिखों के गुरू के रूप में नवाजा व बताया कि आज्ञा भई अकाल की तभे चलायेओ पन्थ सब सिखन को हुक्म है गुरू मानेयो ग्रन्थ।

आपने अन्तिम सन्देश दिया कि--
"जो हम को परमेश्वर उचरै हैं। ते सब नरक कुंड में परिहै।
मो दास तवन का जानौ या मै भेद न रंच पछानो।"

(जो भी कोई मुझे भगवान कहता है वो नर्क में चला जाएगा मुझको सदा उसका सेवक ही मानो और इसमें किसी भी प्रकार का संदेह मत रखो।)

बलिदान/शहीदी
औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरूजी ने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरूजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरूजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरूजी पर धोखे से घातक वार किया जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरू गोविन्द सिंह जी नांदेड़ साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए।


लाला दौलतराय ने आर्य समाजी होते हुए भी गुरू गोविन्द सिंह जी पर "पूर्ण पुरूष" नामक एक ज्ञानवर्धक पुस्तक लिखी है।

उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख हिन्दी उपन्यासकार हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक "सिख गुरूओं का पुण्य स्मरण" में गुरूगोविन्द सिंह जी के साहस व पराक्रम को बखूबी उकेरा है।

पंजाबी सूफी कवि बुल्ले शाह गुरु जी के बारे में लिखते हैं--
"ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की, बात कहूँ मैं अब की, अगर ना होते गुरु गोविन्द सिंह, सुन्नत होती सभ की।"

आपने जात-पाँत के भेद और जीवन में कायरता को समाप्त कर महान धार्मिक व सामाजिक क्रांति के रूप में भारतीय समाज को स्वाभिमानी राष्ट्र का रास्ता दिखाया। स्वामी विवेकानन्द जी ने गुरूजी के त्याग एवं बलिदान के बारे में कहा है कि ऐसे आदर्श व्यक्तित्व सदैव याद रहने चाहिए। 20वीं सदी के उर्दू शायर अल्लाह यार खां जोगी ने लिखा है कि--

"इंसाफ अगर करे जमाना तो यकीं है,
गुरु गोबिंद का तो सानी ही नहीं है,
करतार की सौगंध अल्ला की कसम है,
जितनी भी तारीफ हो गोबिंद की वो कम है।"

1915 में गुरू गोविन्द सिंह जी के बलिदान पर लिखी गई कविता "गंज-ए-शाहिदां" को पढ़कर पत्थर दिल इंसान की आँखों में भी आंसू आ जाए।
प्रत्येक भारतीय को अपने बच्चों को एक बार साहिबजादों की वीरगति की भूमि चमकौर साहिब व फतेहगढ़ साहिब (सरहिन्द) का प्रत्यक्ष साक्षी बनवाना चाहिए।

-बलजिन्द्र सिंह बराड़
 व्याख्याता (अंग्रेजी)
 राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय
 4 जेजे (पदमपुर) श्रीगंगानगर, राजस्थान।
 मो. 9983217581

संदर्भ:
लाला दौलत राय - साहिबे कमाल गुरु गोविन्द सिंह, पृष्ठ 165
स्वामी विवेकानंद और उनका अवदान, अद्वैत आश्रम, रामकृष्ण मठ प्रकाशन
हजारी प्रसाद द्विवेदी "सिख गुरूओं का पुण्य स्मरण"

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