ठगिनी माया खा गई, पुण्यों की सब खीर तन जर्जर मन भुरभुरा, आये याद कबीर
आँसू तो चुक-चुक गये, लेकिन चुकी न पीर जनम गँवाया व्यर्थ में, रह-रह उठे समीर
बन-पर्वत-नदियाँ-पुलिन, कहीं न मिलती ठाँव प्रियतम की नगरी कहाँ, कहाँ प्रीति का गाँव
दुश्कर प्रीति निबाहना, जैसे पानी-रंग जल की अंतिम बूँद तक, रंग न छोड़े संग
अनजाने जाने हुये, जाने हुये अजान नियति नटी के होंठ पर, खेल गई मुस्कान
-अमिताभ त्रिपाठी 'अमित' [साभार : रचनाधर्मिता]
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