उत्तर के अंतिम मोड़ पर चीन की दीवार का निर्माण पूरा हो गया था। दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिरम की दीवारों के दोनों भाग यहीं आकर मिल गए थे। टुकड़ों में निर्माण का यह सिद्धान्त- छोटे स्तमरों पर पूर्वी और पश्चिंमी दोनों ही श्रम-सेनाओं द्वारा अपनाया गया था। यह इस प्रकार किया गया थाः करीब बीस मजदूरों का एक समूह बनाकर एक निश्चि्त लम्बाहई की दीवार बनाने का काम दे दिया जाता है, जैसे पाँच सौ गज लम्बीव दीवार। इसी प्रकार एक दूसरे समूह को इतनी ही लम्बादई पर काम में लगा दिया जाता जिनका काम पहिले समूह के किए काम के अंत में आकर समाप्तज हो जाता था। लेकिन दोनों दीवारों के मिलने के बाद उनसे उस स्थाोन से आगे काम नहीं कराया जाता था, जैसे मान लो हजार गज दीवार जहाँ पूरी हुई, वहाँ से नहीं वरन् मजदूरों के इन दोनों समूहों को पास के किसी दूसरे इलाके में दीवार बनाने लगा दिया जाता था। स्वारभाविक है इस प्रकार दीवार के बीच में बड़े-बड़े हिस्सेि बनने से छूटते गए, जिन्हें बाद में छोटे-छोटे टुकड़ों में बनाया जाता रहा, यहाँ तक कि दीवार के निर्माण की सरकारी घोषणा के बाद भी इन खाली स्थाानों पर दीवार बनती रही थी। सच तो यह है कि कुछ लोगों की राय में तो बहुत से ऐसे भागों को कभी पूरा ही नहीं किया गया।
यह एक ऐसा सच था जो दीवार के निर्माण के साथ ही किंवदंती के रूप में प्रचलित हो गया और जिसे कभी भी जाँचा-परखा नहीं गया था। कम से कम किसी एक व्युक्तिा के द्वारा जिसने अपनी आँखों से पूरी दीवार को देखा हो, दीवार इतनी लम्बी जो थी।
सामान्यज सोच के अनुसार तो कोई भी यही कहता कि अधिक सुविधाजनक तो एक छोर से दीवार का बनाया जाना ही होता अथवा दो भागों में बाँटकर लगातार बनाना ही बेहतर होता। अंततः सच तो यही था और यही उद्देश्या पूरी दुनिया को बतलाया गया था कि इसके निर्माण का उद्देश्यह उत्तर के निवासियों से रक्षा करना है। लेकिन ऐसी दीवार भला रक्षा कैसे कर सकती थी यदि उसका निर्माण पूरा न किया जाए। ऐसी दीवार न केवल रक्षा करने में असमर्थ होगी वरन् यह तो लगातार ख़तरे का कारण भी बनी रहेगी। दीवार के ये बड़े-बडे़ हिस्सेम जिन्हेंल मरुस्थकल में बनाकर छोड़ दिया गया था, इन्हेंट खानाबदोशों द्वारा बार-बार गिरा दिया जाता था। विशेषकर इसलिए क्योंबकि ये आदिवासी जातियाँ इन दीवारों को लेकर सशंकित थीं। और वे अपने कैम्पष तेजी से बदलते रहते थे, टिड्डियों की तरह, इसीलिए दीवार के निर्माण के बारे में उन्हेंह अधिक जानकारी थी, कम से कम हम दीवार निर्माताओं से तो कहीं अधिक,
बहरहाल और किसी तरीके से दीवार का निर्माण सम्भसव था ही नहीं, इस निर्णय को समझने के लिए पहिले कुछ बातों पर आप ज़रा ग़ौर कर लें - दीवार को आने वाली सदियों तक रक्षा करनी थी, इसीलिए निर्माण में पूरी सावधानी अपरिहार्य थी, अतः पिछली सदियों के पुरखों के निर्माण कार्य के अनुभवों के उपयोग के साथ निर्माताओं में उत्तरदायित्व का भाव प्राथमिक आवश्यअकताओं में था। यह सच था कि दीवार बनाने के लिए अनपढ़-नासमझ मजदूरों के रूप में आदमियों, औरतों और बच्चों को रोजनदारी पर रख लिया गया था। लेकिन चार दिनों के लिए आए मजदूरों के ऊपर एक जानकार की आवश्ययकता थी, जो निर्माण कार्य में प्रवीणता रखता हो, ऐसा व्य क्तिर जो पूरे दिल से काम करने और कराने में सिद्ध-हस्ता हो। और जितना बड़ा कार्य उतनी बड़ी जिम्मेनदारी। साथ ही ऐसे व्य्क्तिीयों की आवश्यककता थी जो निर्माण कार्य में पूरा दिन और पूरा दिल लगाकर काम कर सकें, यही नहीं ऐसे लोगों की आवश्योकता बड़ी संख्याज में थी।
लेकिन दीवार निर्माण का यह कार्य बिना सोच-विचार के आरम्भआ नहीं किया गया था। पहले पत्थार के रखे जाने के बहुत पहले स्थाकपत्यय कला, विशेषकर भवन-निर्माण कला को पूरे चीन के विशाल भू-भाग में सर्वोत्तम ज्ञान की शाखा के रूप में चारों ओर घोषित कर दिया गया था, क्योंाकि देश को दीवारों से घेरा जाना आवश्यंक हो गया था, इसके साथ ही अन्या कलाओं के उसी अंग या शाखा विशेष की पूछ-परख थी, जिसमें इसी विषय से सम्बं्धित संदर्भ दिए गए थे। मुझे अच्छीे तरह याद है कि हम बच्चे जो ठीक से अभी सधे पंजों पर खड़ा होना भी नहीं जानते थे, हम अपने शिक्षक के बगीचे में खड़े थे- जहाँ हमें गोल पत्थखरों से दीवार जैसा कुछ बनाने का आदेश दिया गया था और तभी शिक्षक अपने चोगे को कसकर बाँध पूरी ताकत से दीवार से टकराया था। स्वाीभाविक है दीवार गिर गई थी और उसने हमें हमारे घटिया काम के लिए इतने जोर से डाँटा था कि हम सभी जोर-जोर से रोते चारों दिशाओं में अपने-अपने माँ-बाप के पास भाग गए थे। एक बेहद सामान्य- घटना किन्तुे महत्त्वपूर्ण क्यों कि यह अपने समय की आत्माा की परिचायक थी।
मैं सौभाग्ययशाली था कि जिस समय दीवार निर्माण का कार्य शुरू हुआ। उस समय मैं बीस वर्षों का था और मैंने निम्न स्तररीय स्कूयल की अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मैंने जानबूझकर सौभाग्यंशाली कहा है, क्योंयकि मुझसे पहले बहुसंख्यी लोगों ने संस्कृचति की उच्चातम डिग्रियाँ उत्तीर्ण कर ली थीं, जो उन्हेंो प्राप्तु हो भी गई थीं, लेकिन साल-दर-साल उन्हेंू अपने ज्ञान के बदले में कोई काम ही नहीं मिला था। परिणामस्वंरूप वे किसी तरह अपनी ज़िंदगी काट रहे थे, जबकि उनके सिरों के अंदर महत्त्वपूर्ण और सुंदर स्थाअपत्या सम्ब न्धीं योजनाएँ थीं और इसके बावजूद वे निराशा की गर्त्त में डूब गए थे। किन्तुन उनमें से जिन कुछ लोगों को सुपरवाइजर के रूप में काम मिला, भले ही वह उनके ज्ञान की तुलना में निम्नु स्तसर का था, फिर भी वे अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वहाँ ऐसे राजगीर भी थे जिन्हों ने बहुत सोचा-विचारा था और जिन्हों ने विचार-मंथन करना अभी भी बन्दर नहीं किया था, कम से कम दीवार के निर्माण को लेकर। ऐसे लोग जिन्हों्ने पहला पत्थ र नींव में सरकाने के साथ स्व्यं को ही दीवार का अभिन्नत अंग स्वीगकार लिया था। राजगीरों का यह वर्ग स्वानभाविक है तीव्र इच्छाद रखता था कि वह अपना कार्य पूरी निष्ठाा और ईमानदारी के साथ पूरी शिद्दत के साथ करे। यही नहीं वे पूरी दीवार के सम्पूार्ण रूप से उपयुक्तथ होने के लिए बेताब और बेचैन थे। दैनिक मजदूरों में धैर्य का अभाव था, क्यों कि वे मात्र अपने दैनिक वेतन पर ही ध्याान रखते थे। उच्चध श्रेणी के सुपरवाइजरों के साथ बीच के सुपरवाइजर भी निर्माण के बहुरूपी विकास को केन्द्र में रख अपने विश्वाइस को दृढ़ और उच्चास्तार पर रखा करते थे। किन्तु् अपने सहायक सुपरवाइजरों को प्रोत्सारहित करने के लिए जो उनके बौद्धिक स्तरर से पर्याप्तर नीचे थे, और जो इसे बेहद साधारण काम मानते थे, उनके लिए दूसरे रास्तेी निकालना आवश्यक था। जैसे उदाहरण के लिए कोई यह आशा नहीं करता था कि वे एक पत्थकर पर दूसरा पत्थर महीनों तक या साल-दर-साल रखते चले जाएँगे- एक पर्वतों से भरे जनशून्यद स्थानन में, अपने घरों से हजारों मील दूर रहते हुए, साथ ही इस निराशा के साथ कि यह कठोर श्रम का परिणाम उनके लम्बेत जीवन में भी पूरा होने वाला तो है नहीं।
यह सोच उन्हेंी निराशा की खाई में पटक देती- फलस्वीरूप स्वाूभाविक है वे अपना काम लगन से करना बन्द कर देते। इस वास्तविकता पर मन्थान के उपरान्ता ही टुकड़ों में निर्माण की योजना बनाई गई थी। पाँच सौ गज लम्बी दीवार करीबन पाँच वर्षों में पूरी होने का अनुमान था और इन वर्षों में सुपरवाइजरों की पूरी तरह शक्तिब और ऊर्जा समाप्तम हो चुकी होगी, यहाँ तक कि वे स्वीयं पर विश्वामस करना भी भूल चुके होंगे, यही क्योंक, उनका तो दीवार और दुनिया पर से ही विश्वादस खण्डिशत हो चुका होगा। इसीलिए जब वे हजार गज दीवार के निर्माण के समाप्तर होने के उत्सिव के जोश से भरे, अपने निर्माण पर गर्व कर रहे होते थे, तभी उन्हेंउ दूर, बहुत दूर भेज दिया जाता था। रास्तेी में उन्हेंण यहाँ-वहाँ बनती दीवार, पूरी हो चुकी दीवार दिखती, वे उच्चााधिकारियों के मकानों के पास से निकलते थे जहाँ उन्हें सम्माानपूर्वक पदक भेंट किए जाते थे। देश के विशाल भू-भाग से मजदूरों की नई सेना उत्सामह से जयकारा करती देखती जाती थी, जंगलों को काटकर दीवारों के सहारे के लिए पेड़ों को खड़ा करना देखती, पहाड़ों की चट्टानों को तोड़कर दीवार के लिए पत्थेर निकलते देखती, पवित्र स्थालों में दीवार की पूर्णता हेतु की जाती प्रार्थनाओं को सुनती, और उत्साखह से भरती आगे बढ़ती चली जाती थी। ये सभी दृश्यप मिलकर उनकी अधीरता को शान्तत करने में सहयोग देते थे।
अपने घरों में कुछ दिनों का आराम, जहाँ वे कुछ दिनों के लिए रुकते थे, उनमें नई ऊर्जा से भर देता था। जिस विश्वासस के साथ उनकी कार्य रिपोर्टों को सुना जाता था, जिस भरोसे के साथ सीधे-सादे शान्ति्प्रिय किसान उनसे दीवार पूर्ण होने की सूचना से आश्वभस्तिस व्यदक्त करते थे, इससे उनकी आत्म विश्वाईस की गाँठ सख़्भत हो जाती थी। शाश्वरत् आशावादी बच्चोंस की तरह वे अपने घरों को अलविदा कहते थे, उनके अन्दँर एक बार फिर देश की दीवार के निर्माण में जुट जाने की उत्कहट अभिलाषा जाग्रत हो जाती थी। छुट्टियाँ समाप्त् होने के पहले ही वे निकल पड़ने को आतुर हो उठते थे और उन्हें विदा करने आधा गाँव उनके साथ बहुत दूर तक केवल उनके उत्साहह को देख चलता जाता था। बैनर्स और स्काूर्फ हिलाते लोगों के समूह उन्हेंत सभी सड़कों पर मिलते थे। यह सब देख उन्हें यह अहसास पहिली बार होता था कि उनका देश कितना महान, सम्पसन्नर और सुन्दनर था। प्रत्येबक देशवासी उनका भाई था, जिसके लिए वह दीवार बना रहा था, सुरक्षा की दीवार और प्रतिदान में वह आजीवन आभारी रहेगा, अपनी हर वस्तुज के लिए जो उसके पास थी। एकता! एकता! कन्धेप से सटा कन्धाि, भाइयों का घेरा, रक्त़ संचार, जो मात्र एक देह में सीमित नहीं है, वरन् प्रेम से बहता और लौटता हुआ असीम चीन की सीमाओं से।
इस तरह खण्डोंम में निर्माण की यह व्यरवस्थाक सम्भतव हुई, लेकिन इसके अतिरिक्तह कुछ और कारण भी थे। इतनी देर तक इसी प्रश्नन पर रुके रहना व्यभर्थ भी नहीं है, यह वास्तरव में इस दीवार के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्ना है। भले ही सरसरी तौर पर यह इतना महत्त्वपूर्ण न दिखता हो। यदि मुझे यह बात बतलानी है और उस काल की सोच और भावनाओं को समझने योग्यर बनानी है, तो इस प्रश्नक पर बिना गम्भीीरता से चर्चा किए यह सम्भंव ही नहीं होगा, हालांकि अधिक गहराई तक जाना मेरे वश में है नहीं।
सबसे पहली बात तो यह कि उन दिनों बेबल की मीनार के निर्माण की तुलना में कमजोर निर्माण के बारे में सोचा ही नहीं जाता था। हालाँकि जहाँ तक दैविक सहमति या अनुमति का प्रश्नर है और जहाँ तक मनुष्यों की सोच का प्रश्न है, वह कार्य से अधिक असंगत नहीं हो सकता, यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंचकि निर्माण के शुरुआती दौर में एक स्कॉ लर ने एक पुस्तयक लिखी थी, जिसमें उसने विस्ताकर से दोनों निर्माण की तुलना की थी। पुस्तकक में उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि बेबल की मीनार अपने उद्देश्यस में असफल उन कारणों से नहीं हुई थी, जो दुनिया भर में बतलाए जा रहे थे अथवा स्वीसकृत तर्कों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण का तो कभी पता ही नहीं चला था। उसके तर्क और सबूत न केवल लिखित परिपत्रों या रिपोर्टों पर ही आधारित थे। उसके अनुसार वह स्वकयं उस स्था न का निरीक्षण भी कर आया था और इसके बाद निष्कअर्ष निकाला था कि मीनार इसलिए अपने उद्देश्य में असफल हुई और उसे असफल होना ही था- कारण था उसकी नींव। इस परिप्रेक्ष्यस में हमारा समय उस प्राचीन काल से पर्याप्तथ श्रेष्ठा है। हमारे यहाँ प्रायः हर पढ़ा-लिखा व्याक्तिर हमारे समय में व्याहवसायिक रूप से राजगीर है और नींव रखने में प्रवीण है। हालाँकि वह स्का़लर मात्र यही सिद्ध नहीं करना चाहता था, क्योंवकि उसकी राय में महान दीवार मानव इतिहास में एकमात्र गवाह होगी, साथ ही नई बेबल की मीनार की सुरक्षित नींव भी रखेगी। इसलिए सबसे पहले दीवार और फिर मीनार। उस ज़माने में यह पुस्तंक प्रत्येदक हाथ में हुआ करती थी, लेकिन मैं स्वीबकार करता हूँ कि मैं आज भी यह समझ नहीं पाया हूँ कि आखिर उसने मीनार के बारे में सोचा क्योंल था। भला दीवार जो आधा गोला तक नहीं बनाती, बमुश्किनल चौथाई या आधा गोला, यह किसी मीनार की नींव कैसे बनेगी। इसका तात्पतर्य यह है कि इसे आध्याथत्मिोक अर्थ में ही स्वीरकारा गया होगा। लेकिन यदि यही सच था तो फिर दीवार बनाने की भला आवश्यमकता ही क्यार थी, जो पूरी तरह से साकार थी, हजारों-लाखों लोगों की ज़िन्दिगी भर की मजदूरी, खून-पसीना की साकार परिणति? साथ ही पुस्तीक में वर्णित योजनाओं, धुँधली-धुँधली अस्पहष्टा-सी मीनार की योजनाओं द्वारा विस्ता्र से बतलाया गया था कि जनता की शक्तिु और ऊर्जा को इस महान कार्य में कैसे लगाया जाएगा?
उस युग में लोगों के पास इस सम्बान्धश में एक से एक विचित्र विचार थे- स्का-लर की पुस्तगक तो एक उदाहरण मात्र है- शायद इसीलिए ताकि बहुसंख्यर लोग मिलकर पूरी शक्तिग से जहाँ तक सम्भतव हो, इस एक उद्देश्यह की पूर्ति में जुट जाएं। मानवीय स्ववभाव अनिवार्यतः परिवर्तनशील है। धूल की तरह अस्थिइर जो विरोध कत्तई बर्दाश्ति नहीं करता। यदि वह अपने को बाँध भी लेता है तो तुरन्तक ही पागलों की तरह उसे खोलने में जुट जाता है। जब तक वह सब कुछ को चीर-फाड़ न डाले। चाहे वह दीवार हो या कोई बन्धअन, यहाँ तक कि स्व यं को भी।
सम्भनव है ये सारे विरोधी विचार जो दीवार के निर्माण के विरोध में खड़े हो गए थे, हाई कमाण्डध के मन भी रहे होंगे, जब उन्होंरने खण्डं निर्माण का निश्चाय किया था। मैं यहाँ पर्याप्त बड़ी संख्यां की ओर से बोल रहा हूँ, वे वास्तरव में उन्हेंा जानते ही नही हैं। जब हमने हाई कमाण्डे द्वारा पारित आदेशों को जाँचा-परखा तो पाया कि बिना हाई कमाण्ड के न तो हमारा पुस्तडकें पढ़ना और ना ही हमारी मानवीय बुद्धि ही पर्याप्ता होती, जो हम अपने छोटे-छोटे प्रयासों से सम्पूनर्ण कार्य के लिए करते रहे हैं। कमाण्डड आफिस में- वह कहाँ था और वहाँ कौन बैठता था, जिससे भी मैंने प्रश्नए किया वे इस सम्ब न्ध में कुछ भी नहीं जानते थे और न ही अब जानते हैं- उस आफिस में यह निश्चि त तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्योंह का प्रत्येसक विचार और इच्छा्एँ वहाँ चक्क र लगाती रहती थीं और उनके सभी मानवीय उद्देश्य और पूर्णताएँ प्रत्युऔत्त र में वहाँ उपस्थि त थीं। साथ ही वहाँ की खिड़कियों से दैवीय दुनिया के वैभव की परछाइयाँ नेताओं के हाथों में पड़ा करती थीं जब वे अपनी योजनाओं पर चर्चा किया करते थे।
और इसीलिए भ्रष्टानचार से परे रहने वालों को यह जानना चाहिए कि नेतृत्वक यदि गम्भीीरता से कामना करता तो वह इन बाधाओं के पार भी जा सकता था, जो लगातार निर्माण के विरोध में था, अतः शेष बचता है मात्र यह निष्कथर्ष कि नेतृत्वा ने जानबूझकर खण्डम-निर्माण का चुनाव किया था। लेकिन खण्डथ निर्माण मात्र पालियों (शिफ्टोंथ) में होना अनुपयुक्ते था। अतः निष्क र्ष यह निकलता है कि नेतृत्वर कुछ अनुपयुक्त की ही इच्छाो करता था- आश्च।र्यजनक निष्कचर्ष है न! यह सच है और एक दृष्टिपकोण से इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। आज तो इस विषय पर आराम से बिना किसी चिन्ता के कोई भी चर्चा कर सकता है। उन दिनों अधिकांश लोग और उनमें से भी श्रेष्ठक मस्तिकष्कोंा के स्वायमियों के पास भी एक गुप्तर रहस्य मय कथन था, जिसके अनुसार हाई कमाण्डु के आदेश को अपनी पूरी क्षमता से पूर्ण करने की कोशिश करो। लेकिन मात्र एक निश्चिकत बिन्दुप तक- इसके बाद उस बारे में सोच-विचार पूरी तरह बन्दे कर दो। एक सूक्तिक व समझदारी भरी सूक्तित, जिसके विषय में विस्ताेर से एक नीतिकथा में दर्शाया गया है, जिसे लोग प्रायः उद्धृत कर दिया करते थे, आगे ध्यातन देने से बचो, लेकिन इसलिए नहीं कि वह हानिप्रद हो सकता है, क्योंतकि यह भी अन्त तः निश्चिोत नहीं है कि वह हानिप्रद वास्तहव में है ही।
क्याि हानिप्रद है और क्या नहीं का प्रश्न् से कोई सम्बसन्धन ही नहीं है, इसलिए बेहतर होगा कि बसन्ता ऋतु में नदी के विषय में सोचो। वह फैलती-बढ़ती जाती है, जब तक वह शक्तिबशाली नहीं हो जाती और धरती का पालन-पोषण करती है अपने तटों का दूर-दूर तक, लेकिन अपनी दिशा को कभी नहीं भूलती और उसी पर चलती रहती है, जब तक वह समुद्र से मिल नहीं जाती, जहाँ उसका खुले हृदय से स्वाीगत किया जाता है। क्यों कि वह एक उपयुक्तद सहयोगी है- इसलिए कुछ दूर तक तो हाई कमाण्डव के निर्देशों का पालन और ध्याकन रखना आवश्याक है, लेकिन उसके बाद नदी अपने किनारे तोड़ देती है, उसका आकार विलुप्तो हो जाता है, उसकी धारा की गति को धीमा कर देती है। अपनी नियति की चिन्ताउ न कर धरती के ऊपर ही अपने स्वियं के छोटे-छोटे समुद्रों का निर्माण कर लेती है, खेतों को नुकसान पहुँचाती है और इतना सब करने के बावजूद अपने नए रूपाकार को अधिक समय तक बनाए नहीं रख पाती और अपने पुराने तटों के बीच बहने को उसे तैयार होना पड़ता है। गर्मियों में बहुत से स्थकलों पर उसे सूखना भी पड़ता है। स्वााभाविक है वह मौसम भी आता ही है- इसीलिए अधिक दूरी तक हाई कमाण्डत के निर्देशों और नियमों पर तुम्हेंव चिंतन-मनन करने की आवश्यलकता ही नहीं है।
अब यह जो लोककथा है इसका प्रभाव दीवार निर्माण पर अधिक मात्रा में रहा होगा, किन्तुज मेरे वर्तमान आलेख के लिए तो यह केवल सीमित सन्देर्भ ही रखती है। मेरी जाँच-पड़ताल और खोज तो विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक है, बहुत दिनों से कोई बिजली न तो लपलपाती है, न ही कौंधती ही है, क्योंसकि गरजने वाले बादल कहीं नहीं हैं, और इसलिए मैं इस प्रखण्डर निर्माण की व्य,वस्थान की व्याेख्याक करना चाहता हूँ, जो वहाँ से बहुत आगे जाती है। जिस पर उस समय के लोग सन्तुसष्टा हो जाया करते थे। मेरी वैचारिक क्षमता पर्याप्तो सीमित है, किन्तुष जिस लम्बेा-चौड़े विशाल भू-भाग पर मुझे चलना है वह असीम है। यह महान दीवार किससे रक्षा के लिए बनाई गई थी? उत्त।र के निवासियों के विरुद्ध! अब मैं तो चीन के दक्षिण-पूर्व का हूँ। उत्त।र का कोई भी व्यसक्तिर हमारे लिए ख़तरनाक नहीं बन सकता। हम पुरानी पुस्तेकों में पढ़ते हैं, उन क्रूरताओं के बारे में जो उन्होंनने अपनी प्रकृति के चलते की थीं, जिन्हेंं शान्तत पेड़ों के नीचे बैठ पढ़ते हुए हम लम्बीउ साँसें लेते हैं। कलाकारों द्वारा किए गए उनके यथार्थ चित्रण हमें बतलाते हैं इन शैतान चेहरों के खुले मुँह से झाँकते बड़े-बड़े नुकीले दाँत, उनकी अधखुली आँखें जो पहिले से ही शिकार को अपने जबड़ों में फँसा निगलने को तैयार हैं। जब भी हमारे बच्चेि शैतानी करते हैं, हम उन्हेंो ये चित्र दिखलाते हैं और एक नज़र पड़ते ही वे रोते हुए हमारी बाँहों में समा जाते हैं। बस, इसके अतिरिक्तत हम उत्तेरवासियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते। हमने उन्हें देखा नहीं है और यदि हम गाँवों में रहे आते हैं तो उन्हेंो कभी देखेंगे भी नहीं, भले ही वे अपने जंगली घोड़ों को तेजी से दौड़ाते सीधे क्योंउ न हमारी ओर आवें। तब भी नहीं, हमारा देश बहुत विशाल है और उन्हेंे हमारे पास तक पहुँचने नहीं देगा, उनकी मंजिल ख़ाली हवा में ही ग़ायब हो जाएगी।
यदि यह सच है तो फिर भला हमने अपना घर क्योंल छोड़ा, झरनों को उनके पुलों के साथ, अपनी माताओं और पिताओं, अपनी सुबकती पत्निरयों, अपने बच्चोंक को जिन्हें हमारी आवश्यहकता है। हम दूर बसे शहरों में ट्रेनिंग के लिए क्योंक जाते हैं, जबकि हमारी कल्पयना हमें वहाँ से भी बहुत दूर वहाँ ले जाती है जहाँ दीवार है। क्योंह? हाई कमाण्ड के लिए प्रश्नह। हमारे नेता हमारे स्वहभाव से अच्छीं तरह परिचित हैं। भले ही वे विशाल समस्यारओं को ले चिंतित हों, हमारे बारे में वे जानते हैं, हमारी छोटी-छोटी आकांक्षाओं को। वे हमें अपनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में बैठा देखते हैं, हमारी सन्या् प्रार्थनाओं से सहमत-असहमत होते देखते रहते हैं, जिसे घर का बुर्जुग परिवार के बीच दोहराता बैठा रहता है। यदि मुझे अपने इस प्रकार के विचार प्रकट करने की अनुमति है तो मैं यही कहूँगा कि मेरी राय में हाई कमाण्ड प्राचीन काल से अस्तिेत्व में है, वह यों ही बुला नहीं लिया गया है, जल्दीा से इकट्ठी की गई मेंडरीन; चीनी भाषा हो जो किसी के सपने पर चर्चा के लिए बुलाई हो, और उतनी ही जल्दी से उसे बर्खास्तह कर दिया जाता है, ताकि उसी शाम लोगों को ढोल बजाकर बिस्तऔरों से उठा दिया जाता है। निर्णय के अनुसार निर्धारित काम करने के लिए, भले ही वह कुछ भी क्योंा न हो, वह एक पुच्छरल तारा ही हो, जो ईश्विर के सम्मावन में निकला हो। जिसने मालिकों का एक दिन पहले ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया हो और दूसरे ही दिन किसी अन्धेेरे कोने में धक्केन और लाठियाँ मार-मारकर ढकेल दिया गया हो। वह भी पुच्छलल तारे के अंतिम भाग के लुप्त होने के पहले भले ही बहुत दूर क्योंय न हो। मैं विश्वाोस करता हूँ कि हाई कमाण्डम का अस्तिपत्वथ अनन्तल काल से है और उसी तरह से उनका दीवार बनाने का निर्णय भी। अब यह तो उनका अज्ञान ही है कि उत्तररवासी समझते हैं उनके कारण दीवार बनाई जा रही है। अनजान ईमानदार सम्राट जिसने कल्पसना की कि उसने निर्माण का आदेश दिया था। हम दीवार निर्माण में व्यनस्तस राजगीर अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा कुछ है नहीं, इसके साथ ही हम अपनी जुबान भी हमेशा बन्द् रखते हैं।
दीवार के बनते समय से आज तक मैंने स्वयं को जातियों के तुलनात्म क इतिहास के एकमात्र काम में व्यमस्त रखा है- कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिन्हेंह कोई चाहे तो उसकी हड्डियों की मज्जा तक पहुँच सकता है, जैसे वे हैं, ठीक इसी विधि से और मैंने खोज लिया है कि हम चीनियों में कुछ लोक और कुछ राजनैतिक संस्थाजएँ हैं, जो अपनी विशिष्टमताओं में स्पीष्टछ हैं, और कुछ अन्यए दुरूहता में विशिष्टि हैं। इन विचित्रताओं के कारणों को जानने की तीव्र इच्छाछ, विशेषकर बाद में हुई। घटनाएँ मुझे सदैव चिढ़ाती रही हैं और अभी भी चिढ़ाती हैं और दीवार निर्माण भी इसी समस्याक का अंग है।
हमारे यहाँ सर्वाधिक दुरूह संस्थाम आप जानते हैं साम्राज्यू ही है। पीकिंग की राजकीय कोर्ट में स्वावभाविक है इस विषय में पर्याप्त स्पाष्टयता मिलती है, हालाँकि वह भी यथार्थ से कुछ अधिक ही भ्रामक है। साथ ही हाईस्कूतल के राजनैतिक-विधि एवं विधि के शिक्षक यह मानते हैं कि वे इस विषय के ज्ञाता हैं और उनमें इतनी सामर्थ्यप है कि वे उस ज्ञान को अपने छात्रों को देने में भी समर्थ हैं। जितना अधिक कोई समाज नीचे स्तवर के स्कूनलों में जाता है, वहाँ स्वा भाविक रूप से ऐसे शिक्षक और छात्र मिलते हैं, जिनको अपने ज्ञान पर सन्देलह बिल्कुमल भी नहीं होता है और एक सतही दिखावटी-सी संस्कृति क्रमशः आकाश की ऊँचाई तक जाती दिखती है। जो कुछ नियमों के चारों ओर घूमती है, जिन्हेंि लोगों के मस्तितष्कों में सदियों से ढूँढ़ा जाता रहा है। नियम या आदेश, अपने अजर-अमर सत्यं, जिसमें से कुछ भी कम नहीं हुआ है, लेकिन वे शाश्वयत रूप से सदैव सन्दे हों के कोहरे में अदृश्य, रहे हैं।
किन्तुम यह साम्राज्यह का प्रश्नं ही तो है जो मेरी राय में सामान्य जनता से जिसका उत्ततर पूछा जाना चाहिए, क्योंहकि वे ही तो हैं जो साम्राज्यन के अन्तिजम आसरा हैं। यहाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं केवल अपने जन्म स्थाीन के विषय में ही ईमानदारी से कह सकता हूँ। प्राकृतिक देवता और उनके कर्मकाण्डह जो पूरे वर्ष को सुन्दारता और प्याीरे परिवर्तनों से भरे रखते हैं, इसके अतिरिक्तह यदि हमारे चिन्त न का कोई विषय होता है तो वे सम्राट ही हैं। लेकिन वर्तमान सम्राट के प्रति नहीं, या फिर हम वर्तमान के बारे मं विचार करते यदि हमें पता होता कि वे कौन हैं, या उनके सम्बान्धय में कुछ तथ्यों से परिचित होते, सच यही है कि उत्सुमकता ही है, जिसमें हम सदैव व्यमस्त् रहते हैं- हम हर सम्भिव प्रयास करते हैं। इस विषय में जानकारियों और सूचनाएँ प्राप्तव करने की, चाहे वे तीर्थयात्रियों से ही क्यों न मिलें, क्योंरकि उन्हों ने लम्बेर-चौड़े इलाके की यात्रा की होती है, या फिर पास या दूर के गाँवों से, या नाविकों से, क्यों कि उन्हों ने न केवल हमारे झरनों को पार किया होता है वरन् पवित्र नदियों को भी। ढेर सारी सूचनाएँ और समाचार एक व्यपक्तिह को मिलते हैं यह सच है, लेकिन कुछ भी निश्चिचत तथ्यम एकत्र नहीं कर पाता।
हमारा देश इतना विशाल है कि कोई भी पौराणिक कथा उसकी विशालता के साथ न्याभय नहीं कर सकती। स्वकर्ग (आकाश) उसे नाप नहीं सकता और पीकिंग तो उसमें मात्र एक बिन्दुर ही है, और सम्राट का महल बिन्दुल से भी छोटा। दूसरी ओर जहाँ तक सम्राट का प्रश्नर है वह दुनिया के सभी धार्मिक राजनैतिक वर्गों में सर्वाधिक शक्ति।शाली हैं, यह मैं स्वी्कारता हूँ। लेकिन वर्तमान सम्राट हमारे- आपके जैसा एक व्यैक्तिा है, जो पलंग पर हमारी तरह ही लेटता है, जो हो सकता है विशाल हो या फिर यह भी सम्भा्वना है कि वह सकरा और छोटा हो। हमारी ही तरह वह कभी-कभार स्वसयं को खींचता है और जब वह थक जाता है तो सुन्दँर तराशे मुँह से जम्हाीई भी लेता है। लेकिन इस सबका हमें भला पता कैसे चलेगा-हजारों मील दूर दक्षिण में तिब्ब त की पर्वत श्रृंखलाओं की सीमाओं के पास? और इसके साथ ही जो भी ज्वा्र-भाटे वहाँ उठते हैं यदि वे हमारे पास तक पहुँचते भी हैं, तो बहुत देर से पहुँचते हैं और हम तक पहुँचने के पहले ही लुप्ते प्रायः हो चुके होते हैं। सम्राट सदैव बुद्धिमान किन्तुै फिर भी अस्प ष्टु से दरबारियों और कुलीनों से घिरे रहते हैं- नौकरों व मित्रों के वेश में विद्वेष और शत्रुता-जो साम्राज्यत की शक्तिर पर विरोधी दबाव बनाते हैं और लगातार सम्राट को पदच्यु त करने के लिए विषाक्त बाण चलाते रहते हैं। साम्राज्य अमर है, किन्तुष सम्राट स्व यं लड़खड़ाता है और सिंहासन से उतार दिया जाता है। हाँ, सच यही है कि साम्राज्यन अन्त तः डूब जाते हैं और अपनी मौत की बड़बड़ाहट में अन्तिरम साँसें लेते हैं। इन संघर्षों और पीड़ाओं से जनता कभी परिचित नहीं होती। हारे-थके आगन्तुंकों की तरह, शहर में आने वाले अजनबियों की तरह, किसी भीड़ भरी सड़क के किनारे खड़े हो, साथ लाए खाने को चबाते खड़े रहते हैं, जबकि उसी इलाके के सामने बहुत-बहुत दूर शहर के बीच के चौराहे पर उनके शासक को फाँसी दी जा रही होती है।
एक नीति कथा है जो इस पूरी स्थिसति को बहुत अच्छीच तरह समझाती हैः सम्राट ने, इस कथा के अनुसार, एक सन्देश तुम्हाचरे पास भेजा, एक सीधे-सादे नागरिक के पास, साम्राज्यु के सूरज ने अपने विशाल देश के बहुत दूर, बेहद दूर स्थिकत महत्त्वहीन छाया के पास, सम्राट ने अपनी मृत्युेशय्या से केवल आपके पास सन्देधश भेजा। उसने सन्देसशवाहक को आदेश दिया कि वह उसके पलंग के पास घुटनों के बल बैठ जाए, और तब उसने फुसफुसाकर सन्देआश बतलाया। फिर उसने ज़ोर देकर सन्दे शवाहक से कहा कि जो भी सन्देफश उसने अभी बतलाया है, वह उसके कानों में दोहराए। सुनने के बाद उसने सिर हिलाकर यह निश्चिउत किया कि सन्दे श सही है। आपने देखा न कि अपनी मृत्युो के अनगिनत दर्शकों के बीच- जहाँ सभी बाधा डालने वाली दीवारों और अवरोधकों को गिरा दिया गया था और ऊँची-चौड़ी सीढ़ियों पर साम्राजय के सभी राजकुमार एक घेरा बनाए खड़े थे- इन सबके सामने उसने अपना सन्दे्श सुना दिया। सन्देुशवाहक तुरन्त अपनी यात्रा पर निकल पड़ा, एक तन्दुेरुस्ता, न थकने वाला आदमी- अब अपने दाहिने हाथ को आगे बढ़ाता, फिर बाएँ को, इस प्रकार भीड़ की चीरता वह अपनी राह पर चलता गया। जहाँ भी उसे विरोध का सामना करना पड़ा, उसने तुरन्त अपने सीने की ओर इशारा कर दिया, जहाँ सूर्य का चिन्हक चमक रहा था। तुरन्त ही उसके लिए रास्ताअ आसान कर दिया जाता था, जो अन्यि किसी के लिए नहीं होता। लेकिन जनसंख्याह इतनी अधिक है कि उनकी संख्याी का कहीं कोई अन्त ही नहीं है। यदि वह खुले खेतों-मैदानों में पहुँच जाता तो वह कितनी तेजी से उड़ता हुआ-सा चलता और निस्सोन्देदह बहुत जल्दीं आप अपने दरवाजों पर उसकी मुट्ठियों की आवाज़ सुनते। लेकिन ऐसा होता नहीं है- उसकी शक्तिव बहुत जल्दीि ही क्षीण होने लगती है, लेकिन वह महल के आन्त रिक हिस्से के गलियारों में किसी तरह रास्ताो बनाता चलता जाता है, जिसके अन्तव में वह कभी भी पहुँच ही नहीं पाएगा और यदि वह सफल हो भी जाता है, तो भी कुछ होने वाला नहीं है। उसे सीढ़ियों के बीच में लड़-झगड़कर रास्ताो बनाना होगा और यदि वह सफल हो भी जाता है, तो भी कुछ फायदा होने वाला नहीं है। अभी दरबारों को पार करना है उसे, दरबारों के बाद दूसरा बाहरी महल और फिर एक बार सीढ़याँ और दरबार और फिर आगे एक और महल और इस तरह हज़ारों वर्षों तक यही अनथक क्रम और यदि अन्तएतः वह बाहरी दरवाजों को तोड़कर निकल पाने में समर्थ होता है- लेकिन नहीं, यह कभी नहीं होगा- साम्राज्यक की राजधानी उसके सामने होगी, दुनिया का केन्द्रफ, अपने कूड़े-करकट से फटने की हद तक भरा। यहाँ से लड़-झगड़कर कोई भी रास्ता- बनाकर जा ही नहीं सकता, यहाँ तक कि मृतक का शोक सन्देधश लेकर भी। इसलिए बेहतर यही है कि तुम सूरज ढलते और शाम के उतरते समय खिड़की के पास बैठो और स्व यं उसका सपना देख लो।
तो इन परिस्थि तियों में, इतनी निराशाओं के बीच आशा को जीवित रख हमारी जनता सम्राट का सम्मारन करती है। वे यह भी नहीं जानते कि कौन सम्राट राज्य कर रहा है, यही नहीं उनके मन में राजवंश को लेकर भी सन्देवह होते हैं। स्कूजलों में पर्याप्तर विस्ताअर से राजवंशों और उनके उच्चांधिकारियों के बारे में विस्तािर से तारीखों सहित पढ़ाया जाता है, लेकिन इस सम्बोन्धय में सर्वकालिक अनिश्चिसतता चली आ रही है कि श्रेष्ठततम विद्वत्जन भी इसके भ्रमजाल में फँस जाते हैं। पता नहीं कब के मर-खप चुके सम्राटों को हमारे गाँव में राजगद्दी पर बैठा दिया जाता है और एक जो मात्र गीतों में ही जीवित है, अभी कुछ दिन पहिले उसकी घोषणाओं को पूजा स्थकल पर पढ़ा गया है। युद्ध जो प्राचीन इतिहास में दफन हैं, हमारे लिए हाल-फिलहाल ही हुए हैं और किसी का भी पड़ोसी चमकते-दमकते चेहरे के साथ उसके समाचार को आए-दिन सुनाते देखा जा सकता है। सम्राटों की रानियाँ, जिन्हें चतुर-चालाक दरबारी, राजसी रीति-रिवाजों द्वारा पथभ्रष्टी प्रायः ही कर लिया करते हैं, जो महत्वााकाँक्षाओं से मुटियाती दैहिक कामनाओं में असंयमित और घोर लालची होने के साथ अपनी घृणित आदतों में मगन रही आती हैं। वे अपने समय में जितनी गहराई में दफन हैं, उनके कार्यों को उतने ही गहरे रंगों से रंगा जाता है और दर्द भरी लम्बीं-सी आह के साथ हमारे गाँव वाले अन्तयतः सुनते हैं कि कैसे हजारों वर्षों पहिले एक साम्राज्ञी ने अकाल के दिनों में अपने ही पति का रक्त्पान किया था।
आप समझे न, कि हमारी जनता अपने विगत सम्राटों के साथ कैसा व्यकवहार करती है, क |