शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
बछडू (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:मृणाल आशुतोष

"क्या हुआ? कल से देख रहा हूँ, बार-बार छत पर जाती हो।" विमल अनिता से पूछ बैठे।

"नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है।"

"कोई हमसे ज्यादा स्मार्ट आदमी आ गया है क्या, उधर?"

"बिना सोचे समझे ऊजूल-फ़िज़ूल मत बोला करो। नहीं तो अच्छा नहीं होगा। कहे देती हूँ।"

"अरे हम तो मज़ाक कर रहे थे। रानी साहिबा तो बुरा मान गयीं। क्या हुआ, बताओ न!"

" नहीं छोड़ो, जाने दो। तुम नहीं समझोगे।"

"अच्छा! ऐसा कौन-सा चीज़ है जो तुम समझती हो और हम नहीं समझ सकते।"

"बात मत बढ़ाओ। छोड़ दो कुछ देर के लिए अकेला हमको।"

"अब तुमको मेरी सौगंध है, बताना ही पड़ेगा।"

"तुमने सौगंध क्यों दे दिया?"

"बताओ न। मेरा जी घबरा रहा है अब।"

"गनेशिया ने अपना बछड़ू बेच दिया।"

"लो, इसमें परेशान होने की क्या बात है? बछड़ू को कब तक पाले बेचारा? बैल बना कर रखना तो था नहीं।"

"नहीं दिखा न तुम्हें! गाय का दर्द नहीं दिखा, न! जब से बछड़ू खुट्टा पर से गया है, गाय दो मिनट के लिये भी नहीं बैठी है।

उसकी आँखों में देखोगे तो हिम्मत जबाब दे देगा।"

"वह तो होता ही है। क्या किया जा सकता है?"

"अपने सौरभ को भी जर्मनी गये हुए पाँच साल हो गए। शादी से पहले प्रत्येक दिन फोन करता था। शादी के बाद हफ्ता, महीना होते-होते आज छह महीना हो गया, उसका फोन आये हुए।"

"उसका, इस बात से क्या मतलब है?"

"हमने भी तो बीस लाख और एक गाड़ी में अपने बछड़ू को...."

-मृणाल आशुतोष
 समस्तीपुर, बिहार, भारत
 मोबाइल:91-8010814932, 9811324545
 ईमेल: mrinalashutosh9@gmail.com

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