ऊबड़खाबड़ रास्ता। उस पर एक इंसान बढ़ता चला जा रहा था।
चलते-चलते वह झुँझला उठा। सिर पकड़ कर, किनारे पड़े एक शिलाखंड पर सुस्ताने के लिए, बैठते हुए, अत्यन्त खीझ भरे स्वर में सामने पड़े हुए उस लम्बे रास्ते से बोला, "तुम इतने ऊबड़खाबड़ क्यों हो, रास्ते?"
रास्ते ने उस की शिथिलता पर मुस्कराते हुए उत्तर दिया,"मेरा काम तो मात्र पथ-प्रदर्शन करना है...मुझे संवारकर रखना तो तुम्हारा काम है...जो जिस दशा में रखता है वैसे ही रहता हूँ...इस में मेरा क्या दोष है!"
रास्ते की बात ने इंसान को निरुत्तर कर दिया।
-बैकुंठनाथ मेहरोत्रा
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