रामप्रसाद और जमना दोनों ने एक के ऊपर एक रखी कुर्सियों को कतारों में लगाया। पूरा मैदान तरतीब से लगी कुर्सियों से सज गया। गेट से लेकर मंच तक लाल मैट बिछाया, फिर दोनों ने लाल मैट पर झाङू लगा दी।
"बाहर गाड़ी में कुछ गमले रखे हैं, वह भी उठा कर यहाँ रख दो।" गमले भी सज गये।
"सब हो गया साब। अब पैसे दे दो तो जाएँ।"
"लो ये बैनर भी टाँग दो।"
"जी साब।"
वे दोनों बैनर टाँगने लगे। मेन गेट पर, पंडाल में दो तीन जगह, मंच पर हर जगह बैनर सज गये। तब तक लोगों का आना शुरु हो गया। सीटें भरनी शुरु हो गईं।
अचानक शोर हुआ, चीफ गेस्ट आ गये।
उन दोनों को हाथ जोड़े, मुँह खोले छोड़ आयोजक चीफ गेस्ट के स्वागत-सत्कार में जुट गये।
रामप्रसाद ने जमना से कहा, "दो दिन बाद तो मजूरी मिली, इतना खटे। पिसे (पैसे) फिर भी ना मिले। सोचा था आज सौ रुपया मिलेगा तो भात के साथ सब्जी बनाएँगे पर लगता है आज भी बच्चों को एक टाइम भी भरपेट न खिला पावैंगे।"
"बता इब्ब क्या करें? चलें।"
"मैं तो पैसे ले बिना जाने वाला नहीं। बैठ के इंतजार करें और क्या?" मंच पर गरीबों की दशा और दिशा पर चर्चा चल पड़ी थी। एक के बाद एक वक्ता भाषण दिए जा रहे थे।
पीछे जमीन पर बैठे वे दोनों चर्चा खत्म होने का इंतजार कर रहे थे, पर चर्चा तो जारी थी और कब तक जारी रहेगी, कौन जाने!
--स्नेह गोस्वामी ई-मेल: goswamisneh@gmail.com |