बहुत पुरानी बात है। किसी देश में एक सूफी फ़क़ीर रहता था। वह बहुत प्रसिद्ध था। लोग दूर-दूर से उसके पास अपनी समस्याएं लेकर आते थे। जो फ़क़ीर कह देता, वह भविष्य में सच घटित हो जाता था।
उस देश का राजकुमार था बड़ा घमण्डी। बड़े-बड़े हाथ, बड़ी-सी काया, रोबीली आवाज़, गर्व से तमतमाता व्यक्तित्व। कमी थी तो केवल नम्रता की। उसे फ़क़ीर के मान-सम्मान से बड़ी ईर्ष्या होती। वह सोचता कहाँ मैं शक्तिशाली युवराज और कहाँ वह अदना, निरीह सूफी फ़क़ीर! पर फिर भी लोग उसका अधिक सम्मान करते है। राजा से भी अधिक मानते है। ये बहुत अखरता था राजकुमार को। वह लगा था उधेड़बुन में, कि कैसे फ़क़ीर को नीचा दिखाया जाए!
फ़क़ीर का एक नियम था। वह हर बार जब भी हाट लगती तो, वहां जाकर लोगों से मिलता, उनकी परेशानियां सुनता, उनको सुलझाने की कोशिश करता।
राजकुमार ने एक योजना बनाई। उसने बहेलिए से बहुत छोटी-सी चिड़िया खरीदी। और सोचा, अगली बार जब फ़क़ीर हाट में आएगा तो बीच बाजार, चौराहे में, जब खूब भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, मैं फ़क़ीर से जाकर पछूंगा कि बता मेरी मुट्ठी में जो चिड़िया छुपी है- वो जिंदा है या मरी हुई है?
उसने सोचा कि यदि फ़क़ीर ने कहा कि मरी हुई है तो मैं अपनी मुट्ठी खोल दूंगा और चिड़िया फुर्र से उड़ जाएगी। यदि फ़क़ीर ने कहा कि चिड़िया जिंदा है तो मैं धीरे से मुट्ठी भींचकर चिड़िया की गर्दन दबा दूंगा और चिड़िया मरी हुई निकलेगी। इससे सूफी फ़क़ीर झूठा सिद्ध हो जाएगा और लोगों का उससे विश्वास भी उठ जाएगा। ऐसा सोचता, राजकुमार बेसब्री से हाट के दिन का इंतजार करने लगा।
आखिर हाट का दिन आ गया। लोग आने लगे। फ़क़ीर भी आया। धीरे-धीरे फ़क़ीर के पास भीड़ जमा होने लगी। राजकुमार भी अपनी मुट्ठी में चिड़िया छिपाए, सेवकों के साथ हाट में आया। वह फ़क़ीर के पास पहुंचा और बोला, "अरे फ़क़ीर! जो तू इतना बुद्धिमान व भविष्यवक्ता है, तो बता मेरी मुट्ठी में जो चिड़िया है, वो ज़िन्दा है या मरी हुई है?"
ऐसा विचित्र प्रश्न सुनकर भीड़ में चुप्पी छा गई। सबने आश्चर्य से पहले राजकुमार को देखा। फिर सबके चेहरे फ़क़ीर की ओर मुड़ गए। फ़क़ीर शांत था। उसने राजकुमार की आँखों में देखा, मानो उसके मन के भावों को पढ़ रहा हो! भीड़ फ़क़ीर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। सब तरफ मौन व्याप्त था। हवा बंद थी। सूरज तेज हो चला था।
फ़क़ीर ने कहा, "कुंवर! तेरी मुट्ठी में वो है जो तू उसका बनाएगा।"
-राजीव वाधवा, ऑकलैंड [भारत-दर्शन, अक्टूबर-नवंबर 1996] |