एक विशाल वृक्ष की छाया से हटकर मैं खड़ा था और मेरे हाथ में एक सुंदर, छोटा आईना था ।
मैं यह देखकर चकित रह गया कि वह विशाल वृक्ष उस छोटे आईने में एक अंगुल के बराबर भी नहीं था।
X X X कवि ने वृक्ष देखा और देखा उसके प्रतिबिंब को। उसके मन में एक प्रश्न उठा--जो हमें इतना छोटा दीखता है, क्या वह वस्तुतः इतना महान् भी हो सकता है ?
- प्रेमनारायण टंडन
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