सुबह का समय था। उपवन में रंग-बिरंगे फूल खिले थे। फूलों की सुगंध आ रही थी। पक्षी चहचहा रहे थे।
राजकुमार सिद्धार्थ अपने उपवन में टहल रहा था। सिद्धार्थ को बहुत अच्छा लग रहा था। अचानक पक्षियों का चहचहाना बंद हो गया। उनके चीखने की आवाज़ें आने लगीं। जैसे पक्षी डर से चिल्ला रहे हों। तभी राजकुमार सिद्धार्थ के पैरों के पास एक हंस आ गिरा। उसे तीर लगा हुआ था। वह तड़प रहा था।
सिद्धार्थ ने हंस को उठाया। उसने प्यार से हंस के पंखों को सहलाया। धीरे से तीर निकाला। आराम से उसके घाव को धोकर उसपर मरहम-पट्टी की।
इतने में सिद्धार्थ का भाई देवदत्त दौड़ा आया। उसने कहा - यह हंस मौजे दो। यह मेरा शिकार है।
सिद्धार्थ ने हंस देवदत्त को नहीं दिया, बोला - "नहीं, यह मेरा हंस हैं। इसे मैंने बचाया है।"
दोनों भाई वाद-विवाद करते हुए राजमहल की और कल दिए। आगे-आगे सिद्धार्थ और पीछे-पीछे देवदत्त।
राजमहल में पिता को देखते ही देवदत्त ने शिकायत की, "पिताजी, सिद्धार्थ मेरा हंस नहीं से रहा।"
सिद्धार्थ ने अपना पक्ष रखा, "पिताजी, मैंने इस हंस को बचाया है। देवदत्त ने इसे तीर मारा था। मैंने इसका तीर निकालकर, इसकी मरहम-पट्टी की है।"
"नहीं, नहीं! मैंने इसका शिकार किया है, यह मेरा है!"
राजा ने दोनों राजकुमारो की बात सुनी। देवदत्त ने हंस का शिकार किया था और सिद्धार्थ ने हंस को बचाया था।
राजा ने कहा - सुनो देवदत्त! तुमने इस हंस को तीर मारा। तुम इसे मारना कहते थे। सिद्धार्थ ने इसे बकाया। इसके घाव पर मरहम लगाया। इसकी रक्षा की। इस नाते हंस सिद्धार्थ का हुआ!"
सीख - मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता हैं।
[भारत-दर्शन] |