शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।
आखिर क्यों?  (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:डॉ. ज्ञान प्रकाश

शाम का धुंधलका छाने को था, मैं फिर से वहीं अपने चिरपरिचित स्थान पर आ कर बैठ गया और हर आने जाने वाले को गहरी निगाहों से देखने लगा।

याद नहीं, कितने दिन या कितने वर्ष बीत गए, पर ऐसा ही चल रहा है, मैं आता हूँ, अपनी चिरपरिचित जगह पर आ कर बैठता हूँ, और हर आने जाने वाले को गहरी निगाहों से देखता रहता हूँ। आज फिर वैसे ही आ कर बैठ गया ...

स्टेशन की धड़ी में शाम के 6.30 हुए है, हाँ यही वो समय है, कुछ ही समय में एक उद्घोषणा होगी--‘राजधानी ट्रेन प्लेटफार्म न० 1 पर से निकलेगी कृपया पटरी खाली रखे ...'

ओह...उद्घोषणा भी होने लगी, सभी यात्री, जो पटरी के रास्तें एक से दूसरे प्लेटफार्म पर जा रहे थे, वे पटरी से हट कर प्लेटफार्म के नजदीक जुटने लगे।

तभी एक युवा, उम्र के उसी पड़ाव पर, कंधे पर स्कूल बैग ... न जाने कहा से प्रकट होता है और ... वो न जाने क्यों, प्लेटफार्म के नजदीक जाने लगा, साथ ही उसकी नज़रें जैसे सभी से खुद को छुपा भी रही थी। पर उसकी नज़रें मुझसे छुप नही सकती थी, मैं समझ गया।

शायद आज फिर से वही इतिहास दोहराने वाला है। शायद आज फिर से एक गोद सूनी होने वाली है।

नहीं, नहीं मुझे कुछ करना ही होगा, ऐसा फिर से नहीं होने देना है मुझे, जैसा ... नहीं, अभी वो याद करने का वक्त नहीं है।

मुझे कुछ करना ही होगा ... पर क्या करूँ मैं?

‘बचाओ उसे, रोको उसे ...' मैं डर कर चिल्लाने लगा।

पर ... ये क्या हुआ मुझे, ऐसा लगा कि डर के कारण मेरी आवाज रुक सी गयी हो। बहुत कोशिशों के बाद भी मेरे मुख से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी। शायद भय से कुछ भी नहीं बोल पा रहा था मैं।

अब क्या करूँ मैं? मैं सब कुछ भूल कर दौड़ पड़ा, उसे रोकने ...

ट्रेन अपनी स्पीड में थी, उसे रुकना था नहीं और न वह रुकी, ट्रेन की आवाज के साथ कुछ आवाज़ें और उभरने लगी, कौन था वो, उफ़ ... ...!

समय रहते किसी ने ध्यान नहीं दिया और अब एक भीड़ लगी थी।

आज ही तो बोर्ड एग्जाम का परिणाम आया था और आज फिर से एक गोद सूनी हो गयी। क्यों यह युवा, परीक्षा का दबाव नहीं झेल पाया ... आखिर क्यों?

हमेशा से यही होता आ रहा है, माता-पिता क्यों नहीं समझ पाते कि हर बच्चे में अपनी एक अलग राह चुनने की क्षमता होती है।

मैं रंगों की एक अलग सी दुनिया मे खोया-सा रहता था और मेरे माता-पिता की चाहत कुछ और ही थी। ऐसा नहीं था कि अपने शौक से तारीफे न बटोरी हो मैंने, पर शायद माता पिता कि नजरों में ये कुछ भी न था। और ... आज से कुछ वर्ष पहले, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं रही कि मैं घर जा सकूँ, अपने बोर्ड एग्जाम का परिणाम बताने। यह वही स्थान था, जहाँ आ कर मैं बैठा रहा देर तक। और फिर न जाने किन ख़यालातों में गुम ... मैं सभी से गुम हो गया।

आँखों से दो बूंदें फिर से ढुलक गईं कि क्यों मैं चाहते हुए भी न रोक पाया ...क्यों ... आखिर क्यों ...? बस यही एक यक्ष प्रश्न, जिसका जवाब रोज खोजने निकलता हूँ, पर अब तक अनुत्तरित-सा ही हूँ। आखिर क्यों हम अपनी इच्छाएँ अपने बच्चों पर थोपते हैं? आखिर क्यों?


-डॉ. ज्ञान प्रकाश
सहायक आचार्य (संखिय्की)
मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज
इलाहाबाद, भारत

 

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