आज़ादी को लग चुका, घोटालों का रोग। जिसके जैसे दांत हैं, कर ले वैसा भोग ॥
ख़ाकी में काला मिला, उसमें मिला सफ़ेद। यही तिरंगी रूप है, लोक-तंत्र का भेद ॥
छत पर मोरा-मोरनी, बैठे आँखें भींच । इक अबला का चीर जब, दुष्ट ले गया खींच॥
जीवन भी इक व्यंग्य है, इसको पढ़ ले यार । जिसने ख़ुद को पढ़ लिया, उसका बेड़ा पार ॥
माँ है मंदिर का कलश, मस्जिद की मीनार। ममता माँ का धर्म है, और इबादत प्यार ॥
जब जुगनू के सामने, दीप करे ख़ुद रास। 'आईना' तब जान लो, अंत दीप का पास ॥
बेटे-बहुओं को लगे, बूढ़ी अम्मा भार । दो रोटी के वास्ते, रोज़ चले तकरार ॥
- हलीम 'आईना' [ हँसो भी....हँसाओ भी...., सुबोध पब्लिशिंग हाउस, कोटा ]
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