अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 
गरीबी रेखा का कार्ड (कथा-कहानी)     
Author:शिवम् खरे

सुखी काछी ग़रीबी रेखा का कार्ड बनवाने के लिए आज पाँचवी बार सरकारी बाबू के पास आया है ।

बाबू- अरे भैय्या! तुमने साबित कर दिया की भैंस अक़ल से बड़ी होती है। दस बार कह चुका हूँ की जब तक पूरे कागज़ात सही नहीं लाओगे, कार्ड नहीं बन पायेगा।

सुखी- हुज़ूर, डेढ़ हज़ार रुपया तक की औकात ही है ग़रीब की, ले लिया जाए और ग़रीब की अरज़ सुन ली जाए सरकार।

बाबू- अरे, मरवाएगा क्या? ख़ुद का कोई ईमान धरम नहीं है तो क्या सबको अपने जैसा समझा है? चल जा अभी, साहब आएँगे तब आना।

सुखी जिस मालगुज़ार के खेत में काम करता था, वहाँ उसे पता चला कि मालगुज़ार का कार्ड बना हुआ है। वह हिम्मत करके और हैरानी के साथ मालगुज़ार से पूछता है-- "बड़े सरकार, मेरा ग़रीबी रेखा वाला कार्ड नहीं बन रहा है, बाबू बार-बार परेशां कर रहा है मालिक। आपई कुछ मदद करो प्रभु!"

मालगुज़ार ज़ोर का ठहाका लगाते हुए कहता है- "अरे काछी! ग़रीबी रेखा का कार्ड पाने के लिए ग़रीब नहीं, अमीर होना पड़ता पगलादीन!"

मालगुज़ार फिर ज़ोर से हँसता है, सुखी काछी अपनी आँखों में पीढ़ियों की विवशता लिए असहाय खड़ा है।

- शिवम् खरे
ई-मेल: shivamkhare2008@gmail.com

 

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