हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।
मातृभाषा प्रेम पर भारतेंदु के दोहे  (काव्य)    Print  
Author:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra
 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन॥

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।
लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय॥

इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग॥

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात॥

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय॥

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात॥

सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

-भारतेंदु हरिश्चंद्र

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